फ़लसफ़े
गुरुवार, अप्रैल 13, 2023
जलन-१
सोमवार, अगस्त 16, 2021
शुक्रवार, दिसंबर 25, 2020
एक चाय की प्याली का साथ
सवेरे उठकर अगर बस कोई एक चीज़ चाहिए तो वह है चाय। दिन की शुरुआत हो गरमा गर्म बेड टी से तो आगे का दिन लगता है अच्छा ही बीतेगा। अगर खुदा न खास्ता उसमें ज़रा सी देर हो जाए तो मूड ख़राब,अपना भी बाकी घरवालों का भी। चाय का नशा ऐसा होता है कि पूछिए मत। इस नशे को करने की सबका अपना तरीका। मैं अकेले रहा करती थी तो उठते ही मंजन वगैरह के बाद पहला काम होता चाय बनाने का। हमें चाहिए होती दो कप चाय,अखबार के साथ। चाय भी कड़क अदरक डालकर, अच्छे से उबालकर। तो खुद दो कप चाय बनाते,बिस्तर के बगल में रखती और ताज़ा समाचार को चुस्कियों के साथ पढ़ते। इस पर भी मेरी यह पाबंदी कि चाय हम अपने आप बनाएंगे। किसी और के हाथ की सवेरे की चाय हमें नागवार गुज़रती है । यह सिलसिला कई सालों तक चला। अपने हाथ की चाय तसल्ली से समाचार पत्र के साथ पढ़ने के लिए हमें काफी सवेरे उठना पड़ता था। दफ्तर दूर था और हमें समय पर पहुँचने के लिए घर से जल्दी रवाना होना पड़ता था। पर क्या इस वजह से सुबह की चाय न पी जाये या उसके साथ जल्दबाजी की जाये। न जी ! उससे अच्छा है भोर होते उठो। बड़े फायदे हैं सवेरे उठने के और सबसे बड़ा चाय की हर चुस्की का सुख।
चाय के साथ सबका रिश्ता बड़ा अनूठा और एक दूसरे से अलग होता है। बहुत लोग बदनाम हैं इसके दीवाने होने की वजह से। हमारे घर में मम्मी का चाय इश्क़ मशहूर था। पापा का चाय पीने का समय नियत था। हम बच्चों को चाय पीने पर सख्त रोक थी और हमने चाय पीनी शरू की नौकरी में आने पर। चाय पीने से सांवले होने का डर भी पहले बैठाया गया था। कोई ज़ोर से चुस्की लेकर चाय पीता है,कोई बड़ी नज़ाकत से टी कोज़ी के अंदर ढंकी केटली से डाल कर।
इसलिए चाय के नाम यह मेरा पैगाम।
अलसाई सी सुबह हो या शाम सुहानी
सर्दियों की ठिठुरन हो या गर्म दोपहरी
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
अकेले बैठे विचरता मन हो या भरी महफिल का संग
अनमना सा लगता हो या सजे हों कई रंग
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
बगल वाली मिसेज़ शर्मा हों या दूर की कोई चाची
दफ्तर की बातें हो या प्रेम कहानी दुहरानी
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
मिटटी का एक कुल्हड़ हो या महंगी चीनी मिट्टी
शीशे का अदद गिलास हो या डिज़ाइनर टी सेट
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
नुक्कड़ के अड्डे पर बैठे हों या किसी पांच सितारा
घर का कोई कोना हो या हरी घास पर बिछौना
बस साथ एक चाय की प्याली हो
घर के कामकाज के बीच हो या फाइलों के ढेर
यूं ही टीवी के सामने हो या ख़बरों के फेर
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
अदरक,इलायची के संग बनी हो या हलके पत्तों वाली
चीनी मिली हो ढेर सारी या दूध बिना हो काली काली
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
थक गए काम कर-कर के या बैठे हों निठल्ले
इम्तिहान की तैयारी हो या हाँके गप्पे शप्पे
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
सारी दुनिया साथ हमारे,या कोई भी नो हो पास
हर उमंग से भरा हो जीवन या टूटी हो हर आस
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
कुछ मन की बातें कर लें कुछ चर्चे ज़माने पर
सुबह की सैर पर या शाम को आना घर
बस साथ एक चाय की प्याली हो।
कुछ भी न हो जीवन में लगे अगर सब बेगाना
सब कुछ निपट जाएगा सब ठीक हो जायेगा
सिर्फ,अगर,महज,मात्र
बस
साथ हो एक चाय की प्याली।
रविवार, अगस्त 16, 2020
बटोहिया,गिरमिटिया और घर की याद
कल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर WhatsApp पर एक मित्र ने बटोहिया गीत का ज़िक्र किया और एक अनुपम video भी डाला।
गीत और गान ऐसा कि दौड़ वापस अपनी जन्मभूमि को लौट जाने को विवश करे, पुरखों तक पहुँचा देने वाला गीत,आँसू बह निकले ऐसा गीत,दिल पर चोट लगे ऐसा गीत, दूर देश में गए भारतीयों के सपनों का गीत।१९वीं सदी के उत्तरार्ध के सालों में अंग्रेज़ी हुकूमत ने बहुत से भारतीय मज़दूरों को खेतों पर मज़दूरी करने के लिए मौरिशस,फ़िजी,सूरीनाम,त्रिनिदाद आदि देशों में भेज दिया।उनके साथ एक करार होता,अग्रीमेंट,जिसका अपभ्रंश होकर हुआ गिरमिट।अधिकतर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार से गए यह मज़दूर कहलाए गिरमिटिया और गाँव,घर द्वार,रिश्ते नाते छोड़,बेहतर जीवन,कमाई,पैसे के लिए रवाना हो जाते अनजान ठिकानों के लिए।कई परिवार के साथ जाते,कइयों के परिवार पीछे छूट जाते।व्याकुल पत्नी गाती,
“रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे,
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे…
जौन टिकसवा से बलम मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
पानी बरसे टिकस गल जाए रे, रेलिया बैरन…
तीन महीने की समुद्री यात्रा वह भी उस समय जब सम्पर्क के सुगम साधन नहीं थे।जहाज के हालात बदतर,ठूँस ठूँस कर इन्हें ले जाया जाता,जो रास्ते में मर गया उसे वहीं समंदर में फेंक दिया जाता।जो मंज़िल तक पहुँचते उनके साथ पाँच साल का करार हुआ था।सो पाँच सालों तक बंधुआ मज़दूर,शोषित,सामान की तरह ख़रीदे-बेचे जाते,औरतों के साथ दुर्व्यवहार,अत्याचार और पाँच साल बाद भी स्वतंत्र होने ऊपर कुछ पाबंदियां। अगर कुछ उधार लिया है तो करार की अवधि बढ़ जाती। गिरमिट ख़त्म होने के बाद कुछ वापस आए पर अधिकतर वहीं बस गए। वह समय था जब सन्देश पहुँचाने में महीनों लग जाते।घर बार की कुछ खबर नहीं।बड़ी ऊहापोह की स्थिति होती। यहीं रहकर नया जीवन शुरू किया जाए।या फिर जो कमाया है उसे लेकर देस वापस जाएँ। पता नहीं यात्रा पूरी भी हो पाएगी या नहीं। यहाँ खेत के मालिक बन। अपना गाँव छोड़ नयी दुनिया बसा ली। पर हृदय तो रहा भारत में ही। गाँव की याद,रीति रिवाज,वहाँ के देवी देवता,महुआ,नीबिया के पेड़,अंबवा के बगिया,कुआँ,गंगा मैया का किनारा,चंदा सुरुज,कागा-सुगुना सब संजो कर रखा दिल में। एक सपना भी कि कभी वापस जाएंगे। अपने घर दुवार देखेंगे,कुछ मरम्मत कराएँगे,अम्मा के आँचल की छाँव,बाबू की डाँट,बहन,परिजन सब मिलेगे ।
पाँच साल के बाद बहुत दुविधाएँ थीं,
“पांच बरस कस के कमाई के
लौटब गांव पैसा जमाइके
कुछ दिन सरनाम में रहि के भाई
धीरे-धीरे आदत पड़ जाई
अब इतना दिन मेहनत कईके
सब छोड़ छाड़ वापस के जाई
सरकार के बल खेत मिल जाई
मन के कोना में एक सपना रह जाई
इहीं रही के एक दिन गांव आपन जाई के
सात समुन्दर पार कराइके.”
तो video में दिखाए गीत की चर्चा करें।बटोहिया का गीत सुंदर सुभूमि भैया भारत के देशवा को १९११ में बाबू रघुबीर नारायण ने लिखा था।वैसे वह अंग्रेज़ी में लिखते थे पर बाबू राजेंद्र प्रसादजी के कहने पर उन्होंने भोजपुरी में यह गीत लिखा।महात्मा गांधी ने इसे भोजपुरी में वन्दे मातरम के समतुल्य स्थान दिया।इस विडीओ में ग्यारह देशों में बसे इन्हीं गिरमिटिया मज़दूरों के वंशजों ने स्वर दिया है ।भावुक,हृदय की तड़प,तरसती आँखों और अपनी धरोहर और जन्मभूमि के साथ अटूट रिश्ते का यह गीत।मोरे बाप-दादा की कहानी कहकर हर बात को विह्वल स्वरों में याद करती, अपनी जड़ों को ढूंढती, रुला देने वाली स्वर लहरी है यह।
पूरा गीत ऐसे है
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया
जाऊ-जाऊ भैया रे बटोही हिंद देखी आउ
जहवां कुहुकी कोइली गावे रे बटोहिया
पवन सुगंध मंद अगर चंदनवां से
कामिनी बिरह-राग गावे रे बटोहिया
बिपिन अगम घन सघन बगन बीच
चंपक कुसुम रंग देबे रे बटोहिया
द्रुम बट पीपल कदंब नींब आम वृछ
केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया
तोता तुती बोले रामा बोले भेंगरजवा से
पपिहा के पी-पी जिया साले रे बटोहिया
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्रान बसे गंगा धार रे बटोहिया
गंगा रे जमुनवा के झिलमिल पनियां से
सरजू झमकि लहरावे रे बटोहिया
ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसि दिन
सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया
उपर अनेक नदी उमड़ि घुमड़ि नाचे
जुगन के जदुआ जगावे रे बटोहिया
आगरा प्रयाग कासी दिल्ली कलकतवा से
मोरे प्रान बसे सरजू तीर रे बटोहिया
जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिंद देखी आउ
जहां ऋसि चारो बेद गावे रे बटोहिया
सीता के बीमल जस राम जस कॄष्ण जस
मोरे बाप-दादा के कहानी रे बटोहिया
ब्यास बालमीक ऋसि गौतम कपिलदेव
सूतल अमर के जगावे रे बटोहिया
रामानुज-रामानंद न्यारी-प्यारी रूपकला
ब्रह्म सुख बन के भंवर रे बटोहिया
नानक कबीर गौर संकर श्रीरामकॄष्ण
अलख के गतिया बतावे रे बटोहिया
बिद्यापति कालीदास सूर जयदेव कवि
तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया
जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिंद देखि आउ
जहां सुख झूले धान खेत रे बटोहिया
बुद्धदेव पृथु बिक्रमार्जुन सिवाजी के
फिरि-फिरि हिय सुध आवे रे बटोहिया
अपर प्रदेस देस सुभग सुघर बेस
मोरे हिंद जग के निचोड़ रे बटोहिया
सुंदर सुभूमि भैया भारत के भूमि जेही
जन 'रघुबीर' सिर नावे रे बटोहिया।
(रघुवीर नारायण)
https://drive.google.com/file/d/1_NSlh16e1ZdDjJnOOtZPeBXnFnOfwylt/view?usp=drivesd