यह सिर्फ लखनऊ वापस आने की कहानी नहीं है। यह हर उस व्यक्ति की भावना है जो कई बरस बाद अपने शहर या गाँव वापस जाता है। सब कुछ पहचाना सा है फिर भी वह शहर जो मेरा था वह शायद मेरे दिल में ही है।
अरसे बाद लखनऊ आये हैं आप कैसा लग रहा है
क्या बचपन के रास्ते वहीं होंगे इंतज़ार करतेया मुड़ गये होंगे किसी और मंज़िल की तरफ़
या मंज़िलें अब वैसी नहीं जैसी तब थीं
जब हम घूमते थे रिक्शे पर बैठकर
जब आठ आने में पहुँच सकते कहीं से कहीं
जब स्टेशन पर इक्के भी मिल जाते थे
और साइकिलें चलती थीं कारों की जगह !
जब तसल्ली से सड़क पर ही हो जाती थीं
और किनारे खड़े होकर या चौराहों पर हो सकती थीं बातें तमाम।
जब गर्मी की शामें और सर्दी की दोपहर बीतती थीं छतों पर
चिनिया बादाम खाते खाते हर पड़ोस की चाची और खाला का हाल मिल जाता था
और पतंग की पेंचों में पैग़ाम भी पहुँच जाता था !
अमीनाबाद की गलियाँ क्या वैसे ही तंग हैं
अलबत्ता हर ज़रूरत के लिए दस्तक दी जाती थी जहाँ
क्या गड़बड़झाला और
मोहन मार्केट,गणेशगंज और चौक की रौनक़ वही है
या नये ज़माने के माल्स में गुम हो गई वहाँ की
चहलक़दमी कहीं ।
गंजिंग का लुत्फ उठाते हैं लोग अभी भी क्या
या भूल गए love lane में नज़रें लड़ाना आजकल के आशिक़
अभी भी कोई कहता है बीबी पौने तीन वाले तो अरमान लेकर चले गये
या अब पहले आप का लहजा ढक्कम धुक्का में धराशायी हो गया.
अरसे बाद अपने शहर आए हैं कैसा लग रहा है
कुछ पहचाना सा लगता है कुछ अनजाना सा
लगता है कि सब कुछ वही है पर फिर भी कुछ अलहदा सा लगता है
कहीं झलक दिख जाती है अपने ज़माने की,
कहीं झांकते हुए मिल जाता है पुराना नुक्कड़ कोई
कभी लगता है कि इतना कुछ बदल गया
कभी झुँझलाहट है कि ज़माने के साथ बदलता क्यों नहीं
अरसे बाद अपने शहर आए हैं
यादों के चिलमन से झांकते शहर को फिर अपना बनाने।