शनिवार, दिसंबर 29, 2007

लखनऊ हम पर फ़िदा-2

लखनऊ के रहने वालों को इस शहर से प्यार इस कदर होता है

'लखनऊ हम पर फ़िदा, और हम फिदाए लख्ननऊ
क्या है ताकत आसमां की, जो छुडाये लखनऊ.'

मुझे याद है युनिवर्सिटी के ज़माने में जब हमें होली या विदाई समारोह में 'टाइटिल' देने होते थे तो शेर-ओ-शायरी का बडा सहारा रहता था.आखिर इस शहर की रवायत ही ऐसी है.

महबूबा को खत लिखा तो इस उम्मीद के साथ

'सियाही आँख की लेकर मैं नामा तुमको लिखता हूँ
कि तुम नामे को देखो और तुम्हं देखें मेरी आँखें'

लेकिन इतना करने के बाद भी उधर से कोई आवाज़ दे ऐसा ज़रूरी नहीं .

'नामावर तू ही बता,तूने तो देखे होंगे
कैसे होते हैं वह खत ,जिनका जवाब आता है.'

हाय रे किस्मत,वो पढते भी हैं और आँखें भी चुराते हैं.
'खत ग़ैर का पढते थे ,जो टोका तो वो बोले
अखबार का पर्चा है खबर देख रहे हैं '
याद आया वो कॉलेज के दिन जब छुपछुप कर उन्हीं पर नज़रें रहती थीं ,पर जैसे ही वो इधर देखते आँखें आसमान पर या किताबों पर गड जातीं ?
यह उम्मीद भी बेमिसाल है
' बरसों से कानों पे है क़लम इस उम्मीद पर
लिखवाएं मुझसे खत ,मेरे खत के जवाब में '

लेकिन जब खत पडा जाता है तब के लिये हिदायतें हैं

'नामे को पढना मेरे,ज़रा देखभाल के,
कागज़ पर रख दिया है,कलेजा निकाल के'

बुधवार, दिसंबर 19, 2007

लखनऊ हम पर फ़िदा

एक उत्सुकता सी मन में जागी है कि जिस शहर में मैं रहती हूँ उसका इतिहास क्या है,उसका अतीत कैसा था,उसकी बुनियाद क्या थी ,उसकी शख्सियत क्या थी .वह क्या था जिसने लखनऊ को एक अलग सा परिचय दिया है .यह जो इमारतें आते जाते हम देखते हैं इनके पीछे कौन सी कहानियां है.किसने इन्हें बनवाया,क्या सपना था उनका इस शहर के बारे में . कैसा रहा होगा लखनऊ पहले का? यह जो सडक है इस पर पहले का नज़ारा कैसा था .कहाँ से आती थी और कहाँ तक जाना था? बहुत किस्से सुने है यहाँ की नज़ाकत,नफ़ासत और तहज़ीब के.'पहले आप वाला' किस्सा तो लखनऊ का नाम आते ही कोई भी बता देता है.पर यहाँ के नवाबों के शौक , उनके मिज़ाज के बारे में भी बहुत कुछ सुना है.
गोया पहुँचे यहाँ की प्रसिध्द किताबों की दुकान युनिवर्सल बुकसेलर्स.इसकी कई शाखाएं हैं . अलीगंज के कपूरथला कॉम्प्लेक्स में मिली यहाँ के मशहूर लेखक योगेश प्रवीण की लिखी किताबें . अभी तो पढना शुरू किया है.चिकन कारी के बारे में,बेगम अख्तर की गायकी के बारे में,कबाब ,रेख्ती, ठुमरी ....बहुत कुछ. पता चल रहा कि संजय दत्त की नानी जद्दन बाई इसी शहर की थीं.अब बस करना यह है कि एक कैमरा लो और जो पढती जा रही हूँ ,उस जगह जा कर कैमरे में कैद करो.खयाल नेक है खयाली पुलाव न बन जाए .

गुरुवार, दिसंबर 13, 2007

चीं चीं चैं चैं

कितना बोलते हैं हम अपने आपसे.यह अंदर का संवाद है कभी खत्म नहीं होता .जब देखो बातें किसी भी चीज़ पर,कहीं भी .सवेरे उठेते ही,दिन मे ,ऑफिस में . कुछ भी कर रहे हों अन्दर के 'सी पी यू' की 'प्रोसेसिंग ' चलती ही रहती है.
बेटी को श्यामक दावर के डांस क्लास में भरती का दिया है.अपनी भी ड्यूटी लगी है.ले जाओ ,एक घंटे बैठी रहो . जब वैसे ही कितनी बातें करती हूँ खुद से तो सोचिये एक घंटे बैठे ठाले क्या क्या सोच डाला .मुझे बहुत अच्छी लगती हैं लडकियां .कितनी चुलबुली हैं .कितनी उत्साहित हैं .कितनी कॉनफिडेंट . सच यह उम्र होती ही ...चटपट चटपट बातें करने की,खिलखिलाने की, गिगल करने की .अरे वह चुपचाप क्यों खडी है.चलो जाओ दोस्त बनाओ, हंसी पर रोक मत लगाओ .बोलने पर बंदिश नहीं .मुस्कराहट भी कितनी नाज़ुक सी है सबकी .शायद मिल्स एंड बून पडती होंगी .पर यह क्या एक के हाथ में सिडनी शेलडन .आजकल के बच्चे ज़्यादा जल्दी बडे हो जाते हैं .
डांस इंसट्रक्टर आया .अनजाने में सब थोडा इतरा रही हैं . कोई कट कर अलग से कुछ कहने लगी .एक फुसफुसाहट हुई " हे कूल डयूड मैन.हीस गाट एन ऐटिटयूड "! और फिर कनखियों से इधर उधर देख कर गिगल .
और कपडे ...स्टाइलिश. वह हल्की गुलाबी केपरी क्या जंच रही है . स्कर्ट अच्छी है पर ज़रा छोटी .जैसे जैसे उम्र बडती है स्कर्ट की लम्बाई भी बडती है.याद आया कभी मम्मी ने मेरी शॉर्ट स्कर्ट को लंबा कर दिया और मैं कितना नाराज़ हुई थी उनसे.क्या मस्ती है और बेफिक्री भी.
'ओह कम ऑन यार .डोन्ट बी अ स्पोइल स्पोर्ट .वी'ल हेव फन'
'बट माय माँ'स गोना मर्डर भी इफ आई'म लेट .'
कभी हम भी तो ऐसे ही थे.क्या इनको विशवास होगा अगर मैं बताऊँ कि यह सब एक 'डेजा वू ' की तरह है. यह सफेद बालों वाली आंटी भी ऐसी ही भाषा बोलती थीं .
ओहो मुझे भी जॉइन कर लेना था.कुछ नहीं तो कायदे से हाथ पैर मारना ही आ जाता .एक अपनी ही उम्र के दंपति को क्लास में जाते देखा .गम हुआ ...मैं भी तो सीख सकती थी.अरे कहाँ ...अकेले क्या मज़ा .पतिदेव साथ होते. हाँ लौट कर आएंगे तो ज़रूर सीखूँगी .वैसे हम दोनों ही के पास 'टू लेफ्ट फीट ' हैं. पर उससे क्या. नाचना है तो नाचेंगे ही. बच्चे बोलते थे हम आप लोगों को 'डिस ओन ' कर देंगे अगर आप लोग नाचने पहुँचे .'डिसओन 'करने में बिल्कुल अव्वल.जब देखो तब .आपलोग मेरे दोस्तों के सामने ऐसे कपडे पहन कर जाओगे ....'डिस ओन ' की धमकी .हाथ मत पकडना बाज़ार में...हम लोग डिस.......... हल्की मुस्कान आ गयी .नज़र एक ओर गयी तो देखा एक लडकी मुझे घूर रही थी .मैं सकपका गयी . सठिया गई ?
ड्रेस डिज़ाइनर आ गई .सरगर्मियां बढ गईं.रंग के चुनाव ,डिज़ाइन,क्या नहीं है ....सोचने को .माहौल गर्म हो गया .डिसकशन तू तू मैं मैं बनने जा रहा है .'शी इस सच अ बि....
'हेलो ,क्या कहा'
''कुछ नहीं !'
चलो यार .हम लोग सर से बात करते हैं.सम पीपल अरे एक्टिंग टू प्राइसी'
सर भी आ गए.डांस इंसट्रक्टर .....ताली बजा कर उसने सबका ध्यान खींचा.मैं सोचती उसकी ज़रूरत ही नहीं थी .आधी तो वैसे ही उसे देख रही थीं.कैसे उसने तुरन्त कमान अपने हाथ में ले ली.बहुत खूब.सारी चीं चीं चैं चैं बन्द. चलो मेरे भी ने का समय हुआ.अब अन्दर की चीं चीं चैं चैं किसी और विषय पर.

शुक्रवार, दिसंबर 07, 2007

रांग नम्बर

"हैलो !"
"हैलो!"
"हैलो.....?"
"अरे भाई आगे भी बोलिये !किससे बात करनी है?"
"जी आपसे"
"मुझसे?"
"जी."
"अरे कुछ नाम पता होगा ."
"जी आप ही का नाम है.
"अच्छा ....?"
"मेरे नाम वाले तो बहुतेरे हैं.शायद नम्बर गलत लग गया..आपका."
"नहीं.अबकी सही लगा ."
"कैसे पता?"
"आप तक जो पहुँच गया"
"तो क्या काम है मुझसे?"
"जी,आपका नाम जानना था..."
"अभी तक तो पता था ."
"पर अब याद नहीं."
"बडी कमज़ोर याददाश्त है.जब याद आ जाए तब दुबारा फोन कर लीजियगा"
और मैंने फोन रख दिया .


"हैलो !"
हैलो!"
"हैलो.....?"
आप कहाँ से बोल रही हैं?"
"आपने कहाँ फोन किया ?"
"आप कहाँ से बोल रही हैं?(अब की आवाज़ ज़रा ज़ोर देकर आई)
"आपने कहाँ फोन किया ?"(मैंने भी आवाज़ कडक की)
"लोग बताते ही नहीं कहाँ से बोल रहे हैं"
फोन कट जाता है.


मोबाइल पर मोबाइल से फोन आया ...फिर भी
"हैलो !"
"हैलो!"
"संजय से बात करनी है?"
"यहाँ कोई संजय नहीं है . नंबर चेक कर लीजिये ."
"आपका क्या नम्बर है?"
"आपने जो मिलाया है."
"पर आपका नम्बर क्या है?"
"जो भी है कम से कम संजय का तो नहीं है."
"आप उससे बात करवा सकती हैं?"
"ज़रूर करवा देती ,लेकिन उसका पता ठिकाना नहीं मालूम."
"नम्बर तो यही था ......?आपका नम्बर क्या है ?"
"याद नहीं "
मैं ही फोन काट देती हूँ.