बुधवार, दिसंबर 27, 2006

सुस्वागतम

नव वर्ष में
साथ मिला तुम्हारा
मंगल बेला

नए साल में
पुरानी बिंदी पर
सिंदूरी आभा

नए साल में
एक लकीर नयी
हाथ तुम्हारा


शुक्रवार, दिसंबर 22, 2006

नववर्ष तुम लेकर आना

नव उमंग नव तरंग नव उल्लास
तुम लेकर आना.
नयी आशा नया सवेरा नया विश्वास
तुम लेकर आना.
भूल जाएं सब ज़ख्म पुराने
एसा मरहम तुम लेकर आना

नव चेतना नव विस्तार नव संकल्प
तुम लेकर आना
विशव शांति हरित क्रांति श्रम शक्ति
तुम ले कर आना
प्रगति पथ प्रशस्त बने
ऐसा विकास तुम लेकर आना

नव सृजन,नव आनन्द,नवोदय
तुम लेकर आना
आत्मबोध,आत्मज्ञान,आत्मविश्वास
तुम लेकर आना
दूर अँधेरे सब हो जाएं
ऐसा सुप्रभात तुम लेकर आना.


शनिवार, दिसंबर 16, 2006

सतरंगी संसार


माँग का सिंदूर
माथे की बिंदिया
हाथ की मेंहदी
कलाई की चूडियाँ

कजरारी आँखें
गाल शर्मसार
काँपते लबों
का
मौन स्वीकार

सजाऊँ तुम्हारा
सतरंगी संसार

बुधवार, दिसंबर 13, 2006

तुम मेरे हो

बडा अच्छा लगता है
तुम्हें निहारना
पलकों की कूची से
तुम्हारे चेह्ररे पर
निशान छोड जाना.


मत खोलो मुंदी आँखें
अभी
कैद सपनों में
रंग तो भर
देने दो.

गुरुवार, अक्तूबर 19, 2006

वापसी

कुछ महीनों के अंतराल पर मैं वापस अपने चिट्ठे पर आइ हूँ.कुछ वही चिर परिचित चेहरे ,कुछ नये चिट्ठे .प्रत्यक्षा की अनूभूतियाँ हमेशा की तरह संवेदनशील हैं. .वह एक बहुत अच्छी लेखिका और चित्रकार होने के साथ एक बहुत ही अच्छी इंसान और दोस्त भी है.उसकी हर पोस्ट का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता है.ब्लोगस्पोट पर वापस आने पर लगता है जैसे पुराने दोस्तों के बीच आ गयी हूँ.वैसे आजकल मौसम ही कुछ ऐसा है...पुराने बिछ्डे दोस्तों से मिलने का. यह सब अंतरजाल की माया है .अभी कल ही कुछ बोरियत के क्षणों में ,हमने अपनी कुछ पुरानी स्कूल की सहेलियों का नाम गूगल पर डाल दिया.और एक पुरानी अंतरंग दोस्त से पुनः नाता जुड गया.इस अंतरजाल का भी जवाब नही.घर बैठे बैठे अमेरिका में बसी २५ साल से खोयी सहेली से मिनटों में मिलवा दिया. अभी तो जान पहचान पुनः स्थापित करने का सिलसिला चल रहा है.देखें यह वार्तालाप कब तक चलता है.मैंने अपने तज़ुर्बे से पाया है कि बहुत अरसे बाद कोइ रिश्ता दुबारा बनाना काफी मुश्किल होता है.स्कूल की अल्हड लड्की और वयस्क स्त्री में बहुत फर्क है.जीवन के अनुभवों से व्यक्तित्व बदल जाते हैं.ज़िन्दगी जीने के तरीके अलग हो जाते हैं.कब तक पुरानी यादों के सहारे पत्राचार होगा.आखिर वो 'पुरानी जीन्स और कैन्टीन'की कथा अनन्त तो है नही. अगर आपकी तरंगें अभी भी उसी frequency पर हैं तो क्या कहने.पुरानी दोस्ती की सुद्र्ढ नींव तो है ही ,उस पर इमारत भी शानादार खडी हो जायेगी.अभी तो इस बात की खुशी है कि इस व्यस्त दिनचर्या में कुछ सुकून के पलों को दुबारा से महसूस किया और इस माध्यम से कुछ वक्त के लिये फिर ज़िम्मेदारी रहित अल्हड्ता का एहसास हुआ .
क़्या यह संपर्क का सिलसिला जारी रहेगा? समय ही बता सकता है.तब तक हम अपने स्कूल के दिनों की स्मृतियों को ताज़ा कर रहें हैं और इस आश्चर्य से अभिभूत हैं कि टेक्नालोजी के माध्यम से एक दोस्ती पुनः कायम हो गयी.

मंगलवार, अप्रैल 11, 2006

घर घर की कहानी 'क्लोद्स लाइन' की ज़बानी !

क्या आपने कभी किसी घर के सामने से गुज़रते हुए उसकी क्लोथस लाइन पर नज़र डाली है.क़्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हर क्लोथस लाइन हमसे कुछ कहती है? मैंने ऐसा महसूस किया और एक दिन वक्त निकाल कर उनकी बातों पर ग़ौर फ़रमाया.जो सुना वह पेश-ए-खिदमत है!यह वार्तालाप है तीन डोरियों के बीच.
डोरी न:१: अरे यह क्या तुम तो सवेरे से ही लदी फंदी हो?
डोरी न: २: पूछो मत !इस घर में तो सवेरा होते ही वाशिंग मशीन लगा दी जाती है.सवेरे की चाय बाद में कपडा धोना पहले.
डोरी न:१:पानी की समस्या होगी .सुबह ही आता होगा.हमारे घर में पानी की कोइ कमी नहीं पर उसका इस्तमाल बडी लापरवाही से होता है.
डोरी न:२:सामाजिक साधन जो है इसलिये बचत की क्या ज़रूरत? तभी मैं सोचूं तुम्हारे घर में हर दूसरे दिन चादरें धुल जाती हैं!और हफ्ते में एक बर पर्दे भी.
डोरी न:१:अरे नौकर के सहारे है. कितना भी काम करवा लो उससे.
इतने में नम्बर तीन भी कूद पडा किटी पार्टी में.
डोरी न:३: हमारे यहाँ तो आज मियाँ बीबी में झगडा चल रहा है.क्या झटक कर कपडे फैलाए गए .मेरी तो कमर ही टूट गयी.
डोरी न:२ : और सिर्फ सल्वार कमीज़ पडे हैं सूखने के लिये .लगता है आज पतिजी को अपने कपडे खुद ही धोने पडेंगे मेरे यहाँ तो मियाँ जी ही कपडे धोते हैं.
डोरी न: ३:लगता है दोंनो कामकाजी हैं.मदद नहीं करेगा तो घर चलेगा केसै?
डोरी न: २: पर बच्चा कितना शुशू करता है देखा है.हर समय उसके कपडे पडे रहते हैं . मेरा अंग अंग महकता है डेटौल की खुश्बू से.
डोरी न:१:फिर भी ठीक है.यहाँ तो नौकर कपडे धोता है विज्ञापन देखकर ...."भिगोया, धोया और हो गया". मेरे नसीब में गंदे कपडे हैं.
इतने में किसी घ्रर से कपडे उतारने के लिये कोइ निकला और मैं भी चल दी अपने रास्ते.लेकिन अब जब भी उन घरों के सामने से गुज़रती हूं तो उन के सदस्य कुछ परिचित से लगते हैं .

रविवार, अप्रैल 02, 2006

अप्रैल फूल..!!??

१ अप्रैल को दो अनूठी सी खबरों से वास्ता हुआ.एक अख्बार में और एक इ-मेल के ज़रिये.पहली खबर थी आदमी के चाँद पर पहुँचने से संबंधित.कुछ लोगों का मानना है कि यह एक बहुत बडा धोखा है जो विश्व पर अमेरिका ने किया है.चाँद पर आदमी के कदम अभी तक नहीं पडे हैं और अमेरिका का यह दावा झूठा है.एसी खबरें पहले भी पढी हैं पर यह समझना मुश्किल है कि सच्चाई क्या है.क्या इतना बडा छल पूरी दुनिया के सामने कर पाना संभव है,जबकि समस्त वैज्ञानिक जगत की नज़रें उस घटना पर लगी रही होंगी? जो लोग इस घटना को एक बहुत बडा धोखा कहते हैं वो अपने कथन के समर्थन मे ऐसे तथ्य रखते हैं जिनको नज़रअंदाज़ भी नही किया जा सकता है.आखिर सत्य क्या है?क्या वाकइ मानव कदम चाँद पर पडे या फिर हम एक भुलावे में जी रहे हैं ! क्या कोइ इस पर प्रकाश डाल सकता है?
इसी तरह की एक और खबर है ताजमहल से संबंधित.इसमें कहना यह है कि ताजमहल शाह्जहाँ ने बनवाया ही नहीं.वस्तुत: वह एक प्राचीन हिन्दू शिव मंदिर है जिसमें कुछ परिवर्तन कर ताजमहल बना.इसके कम से कम २२ कमरे बंद हैं और उन्हीं बन्द कमरों में कैद है इस की असलियत!
तो आप लोगों का क्या विचार है....क्या चँदा मामा हमारे ऊपर हंस रहे होंगे इस स्वरचित स्वांग पर और क्या ताजमहल के उन कथित मूल कारीगरों की आत्माएं रो रही होंगी अपनी अद्वितीय रचना के अपहरण पर?

http://www.stephen-knapp.com/was_the_taj_mahal_a_vedic_temple.htm

रविवार, मार्च 26, 2006

चलती का नाम गाडी

आज के "टाइम्स आफ इंडिया" में एक बेहद खूबसूरत लेख पढा "कीप मूविंग ".ज़िंदगी की असह्य तकलीफों को झेलने और उनसे निकलना का रास्ता हमारे ही हाथों में है. ज़रूरत है उन परिस्थितियों से आगे बढने की .पर यह कहना आसान है और शायद करना कठिन ,पर नामुमकिन नहीं. जो दो बातें हमें आगे बढने से रोकती हैं वो हैं ...हमारा आन्तरिक प्रतिरोध और अज्ञात का डर."द डेविल यू नो इस बेटर दैन द डेविल यू डोंट".इसलिये हम उस स्थिति से उबरने का प्रयत्न नहीं करते जो हमें तकलीफ़ दे रही हो.सिर्फ़ शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक तकलीफ़ भी .
कोई नहीं चाहता कि उसकी ज़िंदगी में कोइ दुख के पल हों या कोइ ऐसी घटना घटे जो उसके खुशहाल जीवन में पतझड ला दे.कोइ अपना साथी खो देता है और सोचता है कि मेरे साथ ही क्यों ...?मैंने किसी का क्या बिगाडा..?काश कि मेरी ज़िंदगी पहले जैसी हो जाती! ऐसा सोचना पूर्णतया जायज़ है .और हर व्यक्ति कि यह रूहानी ज़रूरत है कि वो शोक मनाए ,गिला करे ,रोए ,भगवान के द्वारा किए गये अन्याय पर उससे नाराज़ हो. लेकिन यथार्थ तो यह है कि ज़िंदगी बदल गयी और बहुत पीडा ,व्यथा ,कष्ट दे गयी. और इस यथार्थ को स्वीकार करना भी एक आवश्यकता है. अन्यथा आप एक तकलीफ़देह स्थिति में बने रहेंगे.
बदली हुइ परिस्थितयों को स्वीकार करना पहला कदम है.आगे बढना दूसरा.इसी आगे बढने का नाम है ज़िंदगी .अपने आप को फ़िर से सपने देखने की इजाज़त दीजिये,दिल की आवाज़ सुनिये और भविष्य की ओर देखिये.कुछ सपने बदलने पड सकते हैं.नए रास्तों को अपनाना पड सकता है. जीने के मायनों में परिवर्तन करना पड सकता है.पर यह ज़रूरी है हकीकत का सामना करने के लिये और कदम आगे बढाने के लिये.
गाडी चलाने के लिये सामने देखना होता है.रियर वियू मिरर में देखते हुए कभी गाडी नहीं चलायी जा सकती है!!

मंगलवार, मार्च 14, 2006

रंगीला रे

पिछ्ला चिट्ठा लिखा तो यादों का एक सिलसिला शुरू हो गया.कुछ बसंत का प्रभाव ,कुछ समीरजी की वतन से दूर होली की कसक वाली कविता ,कुछ आज सवेरे माँ का एक होली गीत गुनगुनाना.सब ने मिल कर मुझे अपनी उसी पुरानी कालोनी की होली को यहाँ अवतरित करने के लिए प्रेरित किया. पहले मम्मी का लोकगीत.बाग़बान फिल्म के बाद यह काफी मशहूर हो गया है लेकिन उस का असली रूप कहीं ज़्यादा मीठा है.

"होरी खेलें रघूबीरा अवध में, होरी खेले रघुबीरा..
कैके हाथ कनक पिचकारी कैके हाथ अबीरा
अवध में होरी खेले रघुबीरा...
राम के हाथ कनक पिचकारी ,लछमन हाथ अबीरा
अवध में होरी खेले रघुबीरा.."
माँ कहती है अवध की होली और ब्रज की होली में अंतर है.अवध की होली मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह सीमाओं में बँधी ,उसके लोकगीत भी उसी तरह ....स्नेहमयी,मर्यादित.ब्रज की होली नटखट ,गोपियों और कृष्ण की रासलीला से सराबोर .उसका भी एक गीत उन्होंने सुनाया:
"मत मारो ललन पिचकारी ,
घरे जाबे मारी
पहिला पीक मोरी चुनरी पे पडिगा
मोरी चुनरी के दाग छुडावो ,घरे जाबे मारी"  

लेकिन मेरी यादों की होली इन दोनों के बीच की है .एक सीमा में रहकर भी हल्ला,हुडदंग ,नाचना गाना। होली की तैयारियाँ तो पहले से शुरू हो जाती थीं.घर की सफाई से लेकर माँ की आँख बचाकर ताज़ा बनी गुझियों की सफाई। घर ताज़ा आलू के पापड़  और सेव की महक से भर जाता  हम सब इस बात पर होड़  लगाते कि कौन कितना पतला पापड़ बेल सकता था। धूप में सुखाना,समेटना,फिर तुरन्त उनको तल कर खाने की ज़िद करना।  माँ कहती होली के पहले नहीं...होलिका दहन हो जाने दो। पर सबसे मज़ा आता गुझिया बनाने में। मुझे याद है साल का यह इकलौता मौका होता जब पापा भी रसोइ के किसी काम में हाथ बँटाते।
कालोनी होने के कारण बच्चों के लिए हर घर के दरवाज़े हमेशा खुले रहते। और हर घर में उतना ही खयाल जैसे अपने घर में। होली की शुरुआत भी बच्चा पार्टी करती। हम लड़कियों को कुछ ज़्यादा तैयारी करनी पडती। सिर पर तेल ,मुँह पर एक पर्त वैसलीन और नाखून पर नेल पालिश ताकि उन पर रंग न लग जाए! सारी टोलियां अलग अलग निकलतीं ...बच्चे,मम्मीयां,पापा लोग । छोटे बच्चे पानी लाने और रंग की सप्लाई का काम करते। वहाँ का यह एक अलिखित नियम था कि पेंट इत्यादि का इस्तमाल वर्जित होगा। 
होली की शुरुआत बडे ही शालीन तरीके से होती।  बच्चे सब बडों का पैर छूकर प्रणाम करते,गुलाल लगाते और आशीर्वाद लेते। पर दिन चड़ता,रंग का असर दिखता और तब निकाले जाते पानी के रंग। किचन गार्डेन के पाइप,टब और गीली मिट्टी जब रंग का भंडार समाप्त हो जाता। जो लोग घरों से नहीं निकलते...उनकी तादाद न के  बराबर थी। पर उनको निकाल्ने का जिम्मा हम लड़कियों का होता। रो कर,बहला फुसलाकर ,चाणक्य नीति से उनको भी जश्न में शामिल कर लेते। यह अलग अलग टोलियाँ अंततः एक पार्क में मिलतीं और अब दूसरा चरण आरम्भ होता...कुछ फ्लर्टिंग,कुछ छेडखानी ,कुछ कलाइयाँ पकड़ी जातीं,कुछ भाभी-देवरों की तकरार। गाना बजाना,नाचना ,गुझिया खाना,थोडी ठंडाई। धूप चड़  गयी है। दिन के दो बज गए। सूखे रंग चेहरे पर चिडचिडाने लग गए। भूख भी लग रही है।  सब अपने घर वापस जाने को उत्सुक। शाम के होली मिलन की तैयारी भी करनी है। लेकिन वहाँ पर रंग छुडाने का कार्यक्रम भी सामूहिक होता। एक ट्यूबवेल था जहाँ हम एकत्र होते और तेज़ धार पानी में काफी रंग उतर जाते। य़ा फिर किसी के भी घर के पीछे किचन गार्डेन में...सीचने वाला पाइप लगाकर। जब तक की मम्मियों की डाँट न पड़ती।  थके कदम घर की ओर रुख करते,नहाने के लिये ,गर्मा गर्म पूडियाँ खाने के लिये। 
अब न वो कालोनी का वातावरण रहा ,न वो अल्ह्ड़पन,न वो बेफिक्री। गुझिया बाज़ार से आती है ,पिचकारियां चीन से और रंग कच्चे। 

रविवार, फ़रवरी 26, 2006

बसंतनामा

हल्की बयार चल रही है. ठॅड की तीव्रता चली गयी.उसकी जगह ले ली एक हौले से सिहरन देने वाली हवा ने.बसंत आते ही सब कुछ बदला बदला सा लगने लगता है. और ये जो बदलाव है वो ऐसा जो दिल को छूए.ठिठुरन की जगह आ गई एक मीठी सी सिहरन.कुछ ऊनी पहनने का मन नहीं करता पर बदलते मौसम में ठॅड लगने का डर .चारों ओर फूलों की छटा और दूसरी ओर पतझड का नज़ारा . मुझे याद आता है वो घर जहाँ मैँने अपना बचपन गुज़ारा था. लखनऊ की इक्षुपुरी कालोनी ..."गार्डेन ओफ इडन" से किसी तरह कम नहीं थी ..... कालोनी के गेट से दिखाई पड जाता था हमारा घर .आम के पेडो से झाँकता हुआ.वैसे तो वह ह्रर मौसम में प्यारा लगता था पर न जाने क्यो बसॅत में वो कुछ ज़्यादा याद आता है!
शायद इसलिये कि प्रकृति का सौन्दर्य इस ऋतु मे अपने परवान पर होता है. उसके आसपास फैले खेतनुमा 'किचन गार्डन'.इस समय तक जाडे की सारी सब्ज़ियाँ खत्म हो जाती थी.कई खेत उजाड होते .लेकिन आबाद लहलहाता सरसों का खेत. पीली सरसों के बगल मे मुझे याद है आलू लगी थी.होली पर पापड और सेव के लिये वही से ताज़ा आलू खोदी जाती.आलू की बेडियो के ऊपर झूमती सरसों .और उसी आलू के खेत के एक कोने मे था एक अकेला जामुन का पेड......गर्मी में उसमे बेतहाशा जामुन होती . फरवरी में उसमे छोटे किल्ले निकल आते.सब आने जाने वालो की नज़र उस जामुन पर रह्ती.कब यह पके और तोडा जाए.वो पेड था भी सड्क के नज़दीक.
पर बसॅत के आने की खबर देती थी वहाँ की कोयल.शायद मैं उस कोयल को कभी भुला नहीं पाऊँगी. मतवाली थी वो और दूसरो को भी मतवाला कर देती थी. वो कुहू कुहू करती ....और टीस हमारे दिल मे उठती .उस एह्सास के लिये एक ही शब्द है बौराना ! बौरा जाता था मन.जैसे जैसे दिन चढता कोयल की कूक मे विरह की वेदना बढती जाती.हमारे किशोर मन को भी कुछ नई भावनाओ से रूबरू उसी कोयल की कूक ने कराया.

वो केले का झुरमुट साक्षी है हमारे ICSE औ इन्टर की परीक्षा की तैयारियो का.यह परीक्षा भी मार्च मे शुरु होती और बसन्त की स्मृतियो में उस पढाई की भी कई यादे शुमार हैं. उनही पेडो की छाँव में मैं कुर्सी लगाकर पढती थी. मुझे याद है उस ज़माने में फ़रवरी में इतनी गर्मी नहीं होती थी.हवा में हल्की सी ठँड रहती और पेडो के बीच से छनकर आती धूप में पढना नही भूलता !
भूख लगने पर हाज़िर थे अमरूद के पेड.तोडिये और नोश फ़रमाइये !या फिर सीधे पेड से जैसे मानस खाता था.
हर खेत और हर पेड के साथ हमारा रिश्ता था.सुनहरी गेहूँ की बालियाँ, करौंदे के काँटे , गह्ररे हरी पत्तियों के बीच झंकते पीले नीबू,वो नल के पास छोटा पुदीना ,मस्त छ्टा बिखेरती सरसों ,अमिया की ताज़गी ....सब मेरे बचपन और यौवन के बसंत के साथी हैं.और इन सबको छूकर आती हवा अभी भी बसी है मेरे तन में,मेरे मन में.

रविवार, फ़रवरी 19, 2006

नाम के वास्ते

शेक्सपियर के कथानुसार "What's in a name.A rose by any other name would smell as sweet"आज मेरे मेलबौक्स मे एक astrology की site का मेल था जिसमे मेरे नाम की numerology के हिसाब से विवेचना की गई . मुझे अपने नाम से बहुत शिकयाते है. मैँ हमेशा अपने माता पिता से इस बात पर नाराज़ रह्ती हूँ कि उन्होँने मेरा नाम रखते वक्त ज़रा भी मेहनत नहीँ की और जो पहला नाम मिला वो रख दिया.हम दो बहनेँ हैँ जिनमेँ ढेड साल का अन्तर है. सो हमारे नाम हैँ ...सही पह्चाना ...पूनम -नीलम ! मेरे पिता वैज्ञानिक हैँ और मुझे डर है कि अगर वो सोचने बैठते तो हमारे नाम कुछ इस तरह के होते ....स्मटाइटिस, अथवा रेडोटिस्टिस !!मेरे एक जाननेवाले हैँ जिन्होँने अपनी तीसरी बेटी का नाम रखा 'टर्शिया'! यही मेरे पिता का कहना है .वो कह्ते हैँ कि अपनी मम्मी का शुक्रिया अदा करो कि तुम्हे यह नाम मिल गये. मैँ तो एल्फा ,बीटा, गामा रखने वाला था !
नाम क्या है...हर व्यक्ति की पहचान का माध्यम ,उसका पहला तारूफ .मैँ इस बात से दुखी कि मेरे नाम मेँ एसा कुछ नहीँ है कि कोइ पहली नज़र मैँ इससे प्रभावित हो जाए.पर कहते हैँ कि 'every dog has his day'.और इस नाम कि भी सार्थकता मुझे उस दिन महसूस हुइ जब एक दोस्त ने कहा "Your name has a very feminine feel about it " !उस दिन मेरा नाम मुझे और अज़ीज़ हो गया.
नाम को लेकर कई लोग बडे possessive होते हैँ.
मेरा ११ साल का भान्जा है मानस. उसको बचपन से ही अपने नाम से न सिर्फ लगाव था बल्कि उसके उच्चारण को लेकर बहुत fierce भी. दो साल की उम से ही वो अपने नाम का कोइ अपभ्रॅश स्वीकार नहीॅ करता था. यदि हम प्यार से उसए मनी पुकारते तो वह या तो जवाब नहीॅ देता या फिर आकर बडा ज़ोर देकर हमेँ बताता "मेरा नाम मानस है मनी नहीँ" !हम पहले उसे राँबिन पुकारते थे पर उसे मानस ही ज़्यादा पसँद आया.हमारे घर पर काम करने वाली बाई उसे राँबिन ही पुकारती थी और वह भी इस लह्ज़े मेँ...रबीईन !और तब शुरु होता था मानस और उसका वाक्युद्ध्.मानस अपनी तोतली भाषा मेँ समझाता "मेला नाम मानस है ." और बाई कह्ती "इ नाम हमका नीक नाही लागत.हम तो रबीईन ही बुलाई" .और छोटा मानस उसके बाल नोचता या घर भर मेँ उसका पीछा करते हुए उससे एक ही बात कह्ता "मेला नाम मानस है ".
एसा ही एक कार्यक्रम इस समय भी हमारे यहाँ चालू है...नामकरण का.निकि के छोटे भाई का नाम रखना है और हम सबने इस ज़िम्मेदारी से यह कहकर हाथ झाड लिये कि ये तो माता पिता का prerogative है !और तब तक जब तक उनको कोइ नाम नही भाता ,बच्चा अनेको नामोँ का मालिक ...apple,छोटू,निकि से मेल खाता टिकि,बाबा का बँटी...और न जाने हर दिन मेँ कितने और.

रविवार, फ़रवरी 12, 2006

निकि के स्कूल जाने पर

आज निकि के स्कूल का पहला दिन है.उत्साहित है वह .उसकी ललक है पीठ पर बैग टाँग़ने की.जब भाई ने कहा कि उसके लिये नया बैग लाना है तो निकि का तुरन्त जवाब था "मै उसे पीठ पर टागूॅगी".उसकी प्यारी वाटर बौटल भी उसके कन्धे पर लटकी है.ज़ब उसकी मम्मी उसका दाखिला करा आई तब दोनो बहुत खुश थे वह बोली, "मुझे बडा अच्छा लग रहा है यह सोचकर कि निकि स्कूल जाएगी".और मुझे निकि की बुआ को.....एक डर सा मह्सूस हुआ.घर के स्नेह्पूर्ण वातावरण से निकल कर उसका दुनिया का सामना करने का पेहला कदम .य़हॉ घर पर दादी बाबा,बुआ,मम्मी पापा,नाना नानी सबको वह अपनी नन्ही उन्गलियो पर नचाती है.हम सब उसकी मासूमियत ,उसकी बातो मे व्यस्त रह्ते. एक नन्ही जान मे हम सब की जान बसी है.पर अब उसकी दुनिया का विस्तार होगा.दोस्त बनेगे.रूई के फाहो मे रखी इस कोमल कली की पहली पॅखुडी खुलने का वक्त आ गया है.मुझे लगता है मैँ उसे अपनी बाहो मे समेटे रहू.
पर यह तो प्रकृति का नियम है.सॅसार का चक्र कलियोँ के फूल बनने से ही चलता है.स्कूल तो उसे जाना ही है.विद्यालय भी और सान्सारिक स्कूल भी.मेरी इच्छा थी कि जब वो पहले दिन स्कूल जाए तब मै उसके साथ रहू.पर यह एकाधिकार तो माता पिता क होता है.इसलिये शायद विधाता ने मुझे औफिस के काम से दिल्ली भेज दिया.कैसा लगा होगा रन्जना आशू को उसे स्कूल ले जाते हुए?कैसा लग होगा मेरे माता पिता को जब उन्होने मुझे पहली बार स्कूल छोडा होगा?मैँ अपने भाई बहनो मै सबसे बडी हूँ.शायद एक भय मिश्रित उत्साह. प्रकृति के कुछ नियम और भावनाएँ हैँ जो पीढी दर पीढी एक समान रहते हैँ. चाहे हम कितने आधुनिक हो जाएँ.यह भी उन्हीँ शाश्वत भावनाओँ मेँ से एक है.
निकि यानि अदिति का यह सफर खुशियो से भरा रहे ,उसका व्यकत्तिव निखरे,वो एक सम्पूर्ण, सशक्त,विवेकपूर्ण नारी बने,सही गल्त की पहचान कर सके,एसी मँगलकामना करते हुए उसके इस नव निर्माण का मै स्वागत करती हूँ.