शुक्रवार, मई 24, 2013

कुछ तुम सीखो ,कुछ हम सीखें

कुछ दिन पहले एक मौक़ा मिला . इलाहाबाद के एक प्रतिष्ठित स्कूल में भौतिक विज्ञान के शिक्षक पद के लिए इंटरव्यू  था. एक पद कक्षा दस के लिए और एक पद ,कक्षा ११ और 1२ के लए खाली था. साक्षात्कार   के लिए ४ -४  अभ्यर्थी .सभी भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर थे. अनेक सवाल पूछे गये. शुरुआत हुई ,१५ तक किसी मनचाहे विषय परपढ़ाने  का एक छोटा डेमोंस्त्रेशन से. पढ़ाने  का कोई भी तरीका वह अपना सकते थे , हर तरह की मदद स्कूल उपलब्ध करा देता . पर अफसोस , ४ में से किसी ने भी ऐसे तरीका नहीं अपनाया जिससे विषय रूचिकर हो जाए .एक उम्मीदवार ,जो कक्षा बारह को पढ़ाते  भी हैं ,ने वही पुराने तरीके से , अपनी प्रदर्शन शुरू किया. उनका विषय था न्यूटन के  तीन नियम . उन्होंने ने घिसे पिटे तरीके से बिना ब्लेक्बोर्ड से सर उठाये पढ़ाना शुरू कर दिया . हम ऊंघने लग गए . बच्चों को, जिनके लिए सब बिलकुल नया  होगा , क्या समझ में  आता होगा . बड़ा खेद हुआ कि  विज्ञान की पढ़ाई क्या बिना उदाहरण दिए , सिर्फ समीकरण लिखकर हो सकती है ?
एक निवेदक से पूछा गया की आप बाहर देखें और कोई भी एक ऐसी चीज़ ,क्रिया बताएं जिसमें भौतिकी का कोई भी नियम लग रहा है. उनका जवाब था ,उनको ऐसा कुछ नहीं दिख रहा  . हाथ उठाने से लेकर दरवाज़ा खोलने,सूरज के प्रकाश की गति से लेकर ,कण कण के ब्रॊनियन मोशन ,कुछ भी कहा जा सकता था . यह क्या विज्ञान पढाएंगे ? और जो पढाएंगे तो उसमें कितने विद्यार्थियों में रुचि उत्पन्न होगी और कितनों  को मूल नियमों की महत्ता समझ आयेगी .उनका ज्ञान सिर्फ रट कर,इम्तिहान  पास करने भर तक सिमट जाएगा ?कोई बच्चा सवेरे शीशे में अपना प्रतिबिम्ब देखेगा और उत्साह से बोलेगा कि  आज यही तो हमें पढ़ाया गया था ? रात आसमान में तारे देखकर कोई विद्यार्थी सवेरे आकर  पूछे की तारों का रहस्य क्या है? इस  अनंत आकाश की सीमाएं क्या हैं? और अगर पूछेगा तो क्या कोई शिक्षक उसे उत्तर देंगे , कौतूहल को बढ़ावा देंगे? क्या समझाने की बजाए उससे बोलेंगे ,आओ हम एक साथ मिलकर इसका पता लगायें .एक रात सब बाहर आसमान के नीचे बैठें और ऊपर चलते हुए तारों के साथ दोस्ती करें ?
  एक और  मोहतर्मा से हाल  में रूस में हुए उल्का पात की जानकारी चाही ,तो वह इस घटना से अनभिज्ञ  थीं . पर यह सिर्फ विज्ञान के अध्यापकों  की समस्या नहीं है।अन्य विषयों के लिए आये पदाभिलाषी भी इसी तरह से अपने विषय वस्तु  को सामन्य जनजीवन से जोड़ने में असमर्थ दिखे. सिर्फ किताब से देखते हुए पढ़ाना , ब्लेक्बोर्ड एक दो महत्त्वपूर्ण तथ्य लिख देना भर पढ़ाना नहीं होता .
अगर शिक्षक अपने काम के प्रति इमानदार है तो वह कोशिश  करेगा की उसके कक्षा का कम से कम एक विद्यार्थी बाद में कह सके की फलां अध्यापक की वजह से उसमें  इस विषय को आगे पढ़ने की लालसा जागी ,या उसकी अरूचि रुचि में बदल गयी .   

मंगलवार, मई 14, 2013

चिकित्सा के नए आयाम

कल एक पत्रिका में पढ़ रही थी कि  दुनिया में तीन देशों को छोड़ बाकी जगह पोलियो मुक्त हो गए हैं  .  य़ह तीन देश हैं अफगानिस्तान ,पाकिस्तान  और नाइजीरिया . अपने स्कूल के दिनों की याद आई .हमारे साथ थी तस्नीम थी जिसका पैर  पोलियो ग्रस्त  होने के कारण बंधा रहता था. पहले काफी बच्चों को देखा जो पोलियो का शिकार हो गए थे।यह जानकार खुशी हुई  की इस बीमारी से दुनिया को निदान मिल गया है.वैसे ही जैसे चेचक से. यह भी चिकित्सा विज्ञान का कमाल है ,नहीं तो कितने बच्चे इसकी चपेट में आ जाते  थे .
इसी तरह चिकित्सा का हर क्षेत्र आधुनिक दवाइयों ,तरीकों,शोध और  टेक्नोलोजी  से अधिक सक्षम,अधिक प्रभावशाली हो गया है.
          आधुनिक चिकित्सा वाकई में वरदान है. टेक्नोलोजी के ज़माने में आधुनिक चिकित्सा  प्रणाली इसका भरपूर उपयोग करती है. बिना आपरेशन के दिल के मरीजों को ठीक करना हो,या जटिल प्रसव  के दौरान माँ -बच्चे दोनों की जीवन की रक्षा .सब कुछ आज संभव है. यहाँ तक की कई निराश दम्पतियों को बच्चों का सुख अगर मिला है तो वह भी आधुनिक चिकित्सा के प्रयासों द्वारा. सरोगेट गर्भ की प्रणाली एक वरदान है.
              आज कल जो बहुत विलक्षण तकनीक मेडिकल विज्ञानं में है वह है स्टेम सेल या मूल कोशिका की . स्टेम सेल ,ने मेडिकल जगत में एक रोमांच पैदा किया है. कई  बीमारियाँ जिनका  इलाज संभव नहीं था ,वह अब साध्य हैं . कैंसर और रक्त -संबन्धित कई बीमारियाँ का इलाज हो सकता है .स्टेम सेल्स,शरीर की वह कोशिकाएं हैं ,जो विभाजित हो कर बढ़ती जाती हैं .यह शरीर के टिशू की पूर्ती कर सकते हैं  और अंगों की मरम्मत करने की  क्षमता रखते हैं। कुछ बीमारियों के इलाज के लिए ,यह रोगी के अपने शरीर से लिए जा सकते हैं,और कुछ के लिए दूसरे व्यक्ति के भी इस्तेमाल कर सकते हैं । अब तो स्टेम सेल बैंक भी हैं  और बच्चे के पैदा होने के  बाद ,उसके नाभि रज्जु यानी अम्बिलिकल कोर्ड से यह कोशिकाएं निकाल कर रख ली जाती हैं .थैलेसिमिया ,लुकेमिया  और यहाँ तक की कुछ आनुवंशिक विकारों का भी इलाज हो सकता है .
           जब तक हमें स्वयम कष्ट से न गुज़रना पड़े हम इन तरीकों और तकनीकों पर उतना ध्यान नहीं देते  ,पर मुझे  http://www.indiblogger.in/topic.php?topic=77 के "How Modern Healthcare touches life "  वाली कड़ी ने इसके बारे में सोचने पर विवश कर दिया और  इसके बारे में अधिक जानकारी , http://www.apollohospitals.com/cutting-edge.php. पर मिली . अपोलो हास्पिटल भारत में अन्तराष्ट्रीय स्तर की चिकित्सा सेवाएं और  नवीन प्रक्रियाएं लाने के अगवा हैं .
           सेहत खुदा की सबसे बड़ी नियामत है . अगर वह नहीं तो दुनिया के बाकी सुख धूल  बराबर हो जाते हैं . ऐसे में अपना  ख्याल रखना और स्वस्थ रहना ज़रूरी है. सेहतमंद व्यक्ति से खुशाल समाज बनता  है .देश के बच्चे स्वस्थ हों , महिलाएं निरोग रहे ,पुरूष निरोग रहे ,यह हमारी चिकित्सा बिरादरी का ध्येय होना चाहिए और इसके लियी आधुनिक चिकित्सा   प्रणालियाँ अपनाने और खोजने के सतत  प्रयास होने चाहिये. न सिर्फ हम निरोग दीर्घायु होंगे ,हमारी उत्पादकता बढ़ेगी और अन्तत: देश खुशहाल ,समृद्ध होगा .

बुधवार, मई 08, 2013

मायावी सफ़र

इस बार एक हफ्ते  में जो सफ़र किया वह  दिलचस्प था।  पांच दिन में ग्वालियार-आगरा -दिल्ली  जाना था और फिर वापस इलाहाबद। पर कुछ छोटी छोटी घटनाएं ऐसी हुईं  जो दिल को छू गईं। पिछले  चिट्ठे में मेट्रो के सुखद अनुभव का ज़िक्र था। एक और दिलचस्प मुलाक़ात हुई आगरा से दिल्ली जाते हुए।
आगरा से सवेरे ट्रेन पकड़ी जबलपुर एक्सप्रेस।  अपने फर्स्ट क्लास वाले कूपे में पहुंचे तो देखा एक अधेड़ उम्र की महिला को एक युवक बड़े आदर से बैठा रहा था औए निकलते  हुए 'टेक केर' बोल कर उतर गया । सामान  वगैरह रखकर,अपनी सीट  पर बैठे  तो एक नीली आँखों वाली,गोरी ,करीब साठ के आसपास की एक चुस्तदुरुस्त  महिला से नज़र मिली।  एक हल्की सी मुस्कान से मैंने उनको हेलो किया और अपना सामान लगाने में व्यस्त हो गयी।  पहले पड़े बिस्तरे को उठाने जब रेलवे  का कर्मचारी आया,तो हमने उससे दो साफ़  बिस्तर  की सिफारिश की।
"भैया,दो बिस्तर दे देजीये।  "
"दो नहीं तीन !"पीछे से आवाज़ आयी।
 तीन कहने के लहजे ने हमें पीछे मुड़कर देखने पर मजबूर कर दिया।  हिन्दी तो थी पर भारत की नहीं।   हिन्दी में विदेशी ज़बान का स्वाद  था।  बैठकर फिर ध्यान से देखा।  हो सकता है पंजाब की हों और बाहर रह रहीं हों।   थोड़ा और गौर किया तो  नाक नक्श  विदेशी ही लगे,हाँ हिन्दुस्तान की गर्मी में तपे  हुए।
        इतने में उन्हीं ने कौतूहल से पूछा,आप क्या भारतीय हैं या विदेशी। मैं तो सकपका गई। आजतक  मेरे भारतीय होने पर किसी ने शक नहीं किया था। आश्चर्य  से उन्हें देखा तो उन्होंने सफाई देते हुए कहा,आप की हेयर स्टील से लगा आप भारतीय नहीं है।  खैर इस वाक्य से बातचीन के दरवाज़े खुल गये।  मैंने उनसे यही सवाल किया कि आप देखने में तो विदेशी मूल की हैं,पर हिन्दी साफ़ सुथरी बोलती हैं। पता चला,वह फिनलेंड की रहने वाली हैं पर पिछले कोई सत्तरह साल से आगरा में रहती हैं। वहां माया नाम का होटल चलाती हैं। भारत आना कैसे हुआ,तो बताया की उन्हें चूहों से बहुत डर  लगता था। फिनलेंड की हैं पर शायद नौ या दस साल की उम्र से जर्मनी में रहती थीं। वहीं किसी ने किताब दी जिसमें बीकानेर के करनी माता मंदिर का ज़िक्र था जहां चूहों को  पूजा जाता है। वह बताती हैं की वह जर्मनी से यहाँ आयीं और उनका चूहों का फोबिया ख़तम हो गया। तब से  वह नियमित भारत  आतीं हैं और ताजमहल से तो इतनी प्रभावित थीं कि हर दौरे में वह एक बार आगरा ज़रूर जातीं।  यहीं ताजमहल के पास उनकी दोस्ती एक परिवार से हुई जो एक असफल गेस्ट हाउस चलाते थे।वैसे तो यह महिला एक नर्स थीं पर भ्रमण वगैरह से मिली जानकारी से इन्होने उनके साथ मिलकर,वहां पर एक अच्छा  होटल बनाने की कल्पना की !वह बड़े फख्र के साथ बताती हैं कि अब उन लोगों ने एक दूसरा होटल भी खोल लिया है,"रे ऑफ़ माया", जो डीलक्स श्रेणी में आता है।
          बड़ा दिलचस्प लगा उनकी बातें सुनकर। एक  विदेशी महिला,जो उत्सुकता पूर्वक भारत आयीं अपनी बीमारी की  हद तक के भय  का इलाज ढूँढतेऔर यहीं की होकर रह गईं। पिछले करीब चौदह साल से वह यहाँ पर हैं। उनसे बातचीन करते हुए लगा उनको हमारे देश और समाज की अच्छी पकड़ हो गयी है। कहती हैं उन्होंने हिन्दी सीखी,पर उनकी शिक्षिका ने इतनी शुद्ध हिन्दी सिखाई कि वह जब बोलती थीं तो लोग हंस पड़ते।  वैसे भी उन्हें आगरा की बोली बिलकुल नापसंद है।  बताती हैं लोग बिना गाली दिए बात ही नहीं करते।
          वह कभी ओरछा घूमने गयी थीं और वहां एक गाँव में बच्चों की भुखमरी  की हालत देखी तो वहां एक स्कूल खोल दिय।  स्कूल भी वह और लोगों के साथ मिलकर चलाती हैं। .आज वह बेहद परेशान थीं स्कूल के उनके साथी,उनके होटल के मुनाफे पर  नज़र गडाए थे और पुलिस में उन पर धोखेबाजी  की शिकायत   करना चाहते हैं।  दुखी थीं और इतनी मुश्किलों को देख उन्होंने स्कूल बंद करने का निश्चय कर लिया था।
         बातचीन का सिलसिला दिल्ली तक चलता रहा। नाम तो पूछा नहीं पर पता चला की इलाज के लिए बेटे के पास जर्मनी जा रहीं थीं।  इस रोचक  नेकदिल साहसी महिला को सलाम और हाँ उनसे बातचीत करना प्रेरणादायी ज़रूर लगा !

P.S. :आजकल अंतरजाल के होने से कुछ भी छुपा नहीं है।   गूगल किया और उनका नाम पता चल गया।  नाम है इवा माया  स्चुल्त !
http://www.artconsulting.net/en/art_for_life/blog/2010-02-25/india-orchha-maya-school-project

गुरुवार, मई 02, 2013

मेट्रो का तजुर्बा

         अभी कुछ दिन पहले दिल्ली जाना हुआ . राजधानी से पुराना नाता है. नौकरी की शुरुआत वहीं से हुई और कोई १५  साल वहां बिताए हैं .इस बार कई जगह जाना था ,सो मेट्रो का सहारा लिया गया. कितना सरल, कितना आरामदेह साधन है. बाहर भी कुछ देशों में घूमने का मौक़ा मिला है और वहां की मेट्रो या सबवे  से मैं खासा प्रभावित हूँ . शहर के किसी कोने से कहीं भी जाना हो, झट टिकट लो,साफ़ सुथरी ट्रेन में बैठो और मंजिल पहुँचते देर नहीं लगती . यहाँ से उतरो,वहां से चढो ।न कार का झंझट,न पार्किंग का तनाव.
इस बार दिल्ली पहुंचकर,तय हुआ की कार छोड़ ,इस बार मेट्रो से ही सारे सफर तय किये जायेंगे .वैसे भी शनिवार  -इतवार थे .कार बुलाकर,ड्राइवर की छुट्टी क्यों बर्बाद की जाये ,यह भी सोच थी .

      मेरा यह संभवतः ,मेट्रो में सफ़र का पहला या दूसरा अनुभव था। इससे पहले मैं एक बार कनात  प्लेस से चांदनी चौक तक जा चुकी हूँ . इस बार केन्द्रीय सचिवालय से मयूर विहार ,वह भी आराम से राजीव चौक पर ट्रेन बदल कर और फिर मयूर विहार से गुड़गांव  का सुखद अनुभव मिला . सप्ताहांत था,पर ट्रेन में बैठने की जगह इतनी  आसानी से फिर भी नहीं मिली . कुछ स्टेशन तो खड़े होकर जाना ही पड़ा .स्टेशन साफ़ सुथरे थे ,टिकट खिड़की पर भी कतारें जल्दी जल्दी आगे बढ़ रही थीं .मेट्रो के संचालकोँ  ने इसे   अन्तराष्ट्रीय स्तर  देने में कोई कसर  नहीं छोड़ी .अच्छा लगता था ,ट्रेनें ४ मिनट के अंतराल पर समय पर आ रही  थीं और जो रास्ता    तय करने पर पसीने निकल जाते  थे   वो अब बड़े आराम से तय    हो रहे थे . न पेट्रोल का खर्च ,न ट्रेफिक जेम में फंसे ,न यातायात सिग्नल पर .
       पर इस सफ़र में दो बड़े सुखद अनुभव् हुए. ट्रेन पर बैठने पर दिखा एक साफ़ सुथरा सा डिब्बा .सामने की सीट पर एक परिवार था,पति-पत्नी और दो ७-८ साल की बेटियाँ .बेटियाँ अल्लो चिप्स खा रही थॆन.वैसे तो यह भी नियम के खिलाफ था. पर खाने के बाद उन्होंने पेकेट वहीं नीचे फेंक दिया. अमूमन हम में में से कोई भी टोकता नहीं है,पर मेरे सामने खड़े एक युवक ने तुरंत उनसे निवेदन किया की डिब्बा इतना साफ़ है ,वह पेकेट उठा लें . महिला का कहना था की बच्चे हैं ,फेंक दिया ,क्या करें। युवक को हम सबसे समर्थन मिला और उस महिला को समझाया गया की बच्चे तो छोटे हैं पर वो और उनके पति तो नहीं .पेकेट उठाकर वह अपने बेग में रख सकती हैं और उतर कर किसी कूड़ेदान में फेंक सकती हें . बात उनकी समझ में आ गयी और उन्होंने फेंका हुआ कूदा उठाकर अपने साथ लाये बेग में रख लिया. आशा करती हूँ कि उतारकर उन्हने उसे सड़क पर नहीं बल्कि किसी कूड़ेदान में डाला होगा .युवक के विनम्र अनुरोध और देश की संपत्ति के प्रति जागरूकता पर हर्ष हुआ .

            उसके तुरंत बाद  ऐसी ही दिल को खुश करने वाली एक और  घटना हुई . हम लोग मयूर विहार फेस -१ से चढ़े  थे. बैठने की जगह तुरंत तो नहीं मिली,हाँ तीन स्टेशन बाद मुझे मिल गयी .मियांजी अभी भी खड़े हुए थे .एक स्टेशन पर दो व्यक्ति उतरे तो खड़े लोग बैठने को मुड़े . इसमें ,पतिदेव भी थे.पर उनसे पहले एक लड़का सीट पर पहुँच गया .मैं उन्हें  ,बैड  लक वाली नज़र दे ही रही थी ,कि  वह युवक उठा और उसने अमित को उस सीट पर बैठने का आग्रह किया. देखकर दिल खुश हो गया .

इन दोनों युवकों को आभार और उम्मीद है कि हमारी युवा पीढी यह जागरूकता दिखायेगी और हम सबको सिखाएगी भी . हो सकता है हमारे देश का भविष्य उज्जवल ही हो .