रविवार, सितंबर 21, 2014

कल आज और कल

         जीवन का एक अध्याय दूसरे  से कितना भिन्न हो सकता है ,यह कल्पना से भी परे  की बात है। कल जो जीने का तरीका था आज सिर्फ एक स्मृति बन कर रह जाता है। कल आफिस और घर  की व्यस्तता सवेरे की चाय हरी होती ट्रेफिक लाइट पर आगे निकलने की होड़ में भागती हुई गाड़ियों की तरह पीना पड़ता था। अब चाय की  हर चुस्की हलक से नीचे गुज़रते हुए ,चाय की ताज़गी के इश्तिहार में नाचते हुए दाने की तरह लगती   है।आज ही कुछ हमउम्र दोस्तों के साथ बैठकर संस्कारों और महिलाओं पर राह चलते गिद्धनज़र डालते  मनचलों की बात हो रही थी। लगा कि शायद यह छेड़छाड़ अब कम हो गयी है। तभी  किसी  ने अपने सफ़ेद हो गए बालों पर हाथ फेरा,अपने  बेकाबू  होते वजन पर ध्यान दिया और समझ में आया की इस हाल  में कौन छेड़ेगा भला। पर हाँ अपने युवावस्था के दिन का भी ख्याल तुरंत आ गया। याद आ गया,कि राह चलते, ट्रेन में जाते,कालेज जाते हम सबने कितने फिकरे,कितनी  छेड़छाड़ और कितनी ही भद्दी नज़रों का सामना किया है। फिर भी मुस्कुराते हुए अपनी पढ़ाई,अपनी नौकरी, अपनी ज़िंदगी जी। याद करते हुए यह भी एक आह निकली कि हाय यह आंटी का सम्बोधन कितना तकलीफदेह होता है।कोई  बीस से तीस साल के उम्र के दरमियान,दीदी से आंटी बन जाना भी जीवन का एक दुखद किन्तु अनिवार्य दस्तूर है। एक बड़ा झटका लगता है जब पहली  बार कोई आंटी कहकर सम्बोधित करता है!और अब उम्र के इस मोड़ पर शायद अस्तित्व इस आँटी के सम्बोधन में लिपट कर रह गया है।
         इसी कमबख्त बढ़ती कमर ने एक और पहले  की खुशनुमा स्मृति ताज़ा कर दी।वह दिन जब खाने के ऊपर कोई पाबंदी न थी।जब हर कौर के साथ कैलरी नहीं जुडी थीं। जब छरहरी काया पर बेइख़्तियार बढ़ते  वज़न का  मनहूस साया न था।वो समय था जब ठेले पर लगी चाट,आलू टिक्की और पानी के बताशे पर ज़बान फिसल जाती थी,समोसे पर मन मचल जाता और मीठे की मक्खी बनने पर कोई रोक नहीं। अब उबली सब्ज़ियाँ और सूप,संतुलित आहार और अगर कुछ मीठा खा लिया तो उससे बनी चर्बी को कम करने के तरीके ढूंढता  यह  परेशान मन !अब हर निवाला चर्बी का सवाल लेकर ही मुंह में जाता है।
        बढ़ती उम्र में कहीं खो गया वह पहले प्यार की लाली देने वाला मीठा एहसास।जब  उसका हाथ छू भर जाए के बस ख़याल से ही साँसों में एक महक आ जाती,जब कोई संगीत अपने आप बजने लगता और लगता गालों पर फैलती लाली का राज कोई न जाने। जब मिल्स एंड बून के टॉल,डार्क,हैंडसम नायक को आँखें ढूँढतीं।अब टूटे रिश्तों, पेचीदा नातों,दफ़न हुए एहसासों,मर्यादों की रखवाली और हकीकत  की सीमाओं  से हुए मोहभंग का अंजाम  है कि  उस तरुणाई की अंगड़ाई की जगह ले ली  एक परिपक्व प्यार ने जहां ठहराव है ,जहां ज़िम्मेदारियाँ हैं  पर सपनों में अनुभव की  सीलन है। युवा आत्मविश्वास का दर्प, आगे बहुत सा समय  होने का आभास और "प्यार सिर्फ प्यार" की सरलता पर विशवास ,यह तो अब सिर्फ आँखें मूँद कर पीछे देखने पर ही  दिखता है।
     तब जीवन में आगे कदम  रखने की अधीरता थी,अब हर आगे रखे कदम पर दस बार पीछे मुड़कर देखने की जैसे बेबस  बाध्यता हो गयी है !बदलना दस्तूर है,बदलाव के साथ अभ्यस्त होना समझदारी  पर बदलते दौर पर आहें भरना एक जायज़ अधिकार !

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