मंगलवार, अगस्त 26, 2008

चिट्ठी पर चिटठा !

आज बहुत दिनों बाद ऐसा मौका हुआ की कुछ जन्मदिन के कार्ड डाक से भेजने थे। एक अदद पत्र पेटिका ढूंढते ढूंढते कई सडकों के चक्कर लगाए । आख़िर काफ़ी देर बाद एक छोटे से पोस्ट आफिस के सामने लेटर बॉक्स मिला। शहर में रहनेवालों के लिए अब चिट्ठी ,स्टैंप,डाकघर मानों लुप्तप्राय से हो रहे हैं। अब ज़माना है कुरियर का,ईमेल का, मोबाइल से बात करने का। यह चिट्ठी - पत्री तो किसी गुज़रे ज़माने की बात हो गयी। यह सब सुविधाजनक तो है पर चिठ्ठी का रोमांस इन में कहाँ।

मुझे याद है जब मैं पहली बार घर छोड़कर दिल्ली नौकरी करने गई थी.हर चीज़ को देखकर अपने घरवालों से बांटने का इतना मन करता की चिट्ठी कम पोथी ज़्यादा घरवालों को मिलती। जवाब में भी एक पोथी ही मिलती.हर बात का ज़िक्र ,हर घटना का बड़ी तसल्ली से वर्णन .मेरी चिट्ठियों के तो हाशिये पर भी कुछ कुछ लिखा होता और अगर शब्दों से काम न चलता तो ग्राफिक्स भी बनाए जाते.फोन आता पर कम हफ्ते में एक बार और इसलिए उसका भी बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता। हम भी अपने प्रशिक्षण केन्द्र से बाहर किसी "पी सी ओ" पर लाइन लगाते घर फोन मिलाने के लिए। और अब सोते जागते ,जब मन चाहे फोन लगा दिया जाता है,मोबाईल की सहूलियत है.पर इंतज़ार की वह बेकरारी नहीं।

इनबाक्स खोलिए तो बहुत सी ईमेल आपके पास आई होंगी पर हाथ से लिखी चिट्ठी की आत्मीयता शायद उनमें न मिले। संपर्क तो तुंरत स्थापित हो जाता है पर चिट्ठी की तरह हर बात बताने की तड़प उनमें नहीं झलकती।

घर बैठे कुरियर वाला आपकी डाक ले जायेगा पर डाकिये की साइकिल ,खाकी युनिफोर्म और घर परिवार की खुशी में वह नहीं सम्मलित होता.मुझे याद है अपोइन्ट्मेन्ट लेटर मिलते ही हमारा डाकिया जिद पकड़ लिया की यह तो तभी मिलेगा जब मेरी बख्शीश और मिठाई का डिब्बा बदले में दिया जायेगा.आख़िर बेबी की नौकरी लगी है ! बचपन से वह देखता आ रहा था हमें । काली कोने वाली चिठ्ठी भी उसी ने हमें दी जब दादाजी नहीं रहे और हमारी शादी का कार्ड भी उसी ने बांटा ।

पोस्टकार्ड की भी याद आती है.दूरदर्शन से प्रसारित सुरभि में पूछे प्रशनों के जवाब लिख कर भेजने के लिए पोस्टकार्ड आए। हमारे एक भाई को अपने हॉस्टल से चिट्ठी लिखने में आलस आती थी सो उन्हें पते लिखे पोस्टकार्ड थमा दिए गए की भैया इस पर अच्छा हूँ लिख कर डाल दिया करो !
प्रगति की नाम पर हमारी जिंदगी में आराम के साधन बहुत हैं पर वह रूमानियत नहीं।

रविवार, अगस्त 17, 2008

बाबू समझो इशारे हार्न पुकारे पम पम पम

कुछ दिन पहले यूँ ही न जाने कैसे गाडी का हार्न ख़राब हो गया.वैसे बाद में याद आया .बगल में बैठी बेटी ने सीट बेल्ट नहीं लगाई थी पर पुलिस वाले ने जब किनारे रोकने का इशारा किया तो हमारी बुद्धि जगी और उसने तुंरत बेल्ट लगा ली..पुलिसवाला भी समझदार था.हमें अपनी ग़लती का एहसास हो गया सो उसने भी चालान नहीं किया .पर शायद इसका सदमा था की उसी वक्त से हार्न बजाना बंद हो गया!पहले लगा की हे भगवान अब गाडी कैसे चलाएंगे. चलो एक मेकानिक ढूँढो .आखिर हम लोगों की आदत है बिना हार्न बजाये गाडी दो कदम नहीं बढती .आप सड़क पर निकल जाइए .बेवज़ह पों पों सुनाई पड़ ही जाता है. अरे पीछे ट्रक है उसको रास्ता चाहिए.ट्रक वाला तो बड़े ही सुरीले अंदाज़ में हार्न बजाएगा. क्या उसको दिखाई पड़ रहा है की मेरे बायें और भी साइकिल सवारों और दो पहिया वालों की कतार है .उसको रास्ता दूँ तो कैसे? पर जनाब का पों पों बंद ही नहीं होता.सिर्फ़ तर्क चालक ही क्यूँ.कभी टाटा सूमो या क्वालिस के ड्राईवर आपके पीछे पड़ जाएँ तो देखिये आर्केस्ट्रा बजता है. जी करता है उतर कर उनका हार्न निकाल लूँ.यह कुछ नवयुवक हैं जो अपनी मोटरसाइकिल दौडा रहे हैं और साथ में लगातार हार्न बजाते जाते हैं.अरे भाई पहले तो यह ज़िग ज़ैग गाडी चलाना ही ठीक नहीं और ऊपर से यह हार्न की थाप के साथ .सबसे सुंदर नज़ारा है रेड लाइट पर या फ़िर बंद रेलवे फाटक पर.जैसी ही बत्ती हरी हुई की लाइन में बारहवें नंबर पर खडे कारचालक ने अपनी पों पों शुरू कर दी.अरे बाबू क्या तुम्हारी पों पों सुनकर तुम्हारी गाडी पहले नंबर पर पहुँच जाएगी या फ़िर हरी बत्ती होते ही बाकी गाड़ियों की रफ़्तार प्रकाश की तेजी ले लेंगी .सब्र करो तुम्हारा भी नम्बर आएगा इस बार नहीं तो अगली बार!
ऐसा नहीं की गुनाहगार हम नहीं.ख़ुद भी कई बार बेवज़ह हार्न का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते .आराम से ट्रैफिक चल रही है की दिल में आया ज़रा यूं ही बस यूँ ही थोडा शोरगुल हो जाए और शुरू कर दिया राग यमन में पों पों. पर सच तो यह है की हार्न ख़राब होने के बाद एहसास हुआ की बिना उसका ईस्तेमाल किए भी गाडी चलाई जा सकती है . दो दिन तक मेकानिक के पास जाने का मौका नहीं लगा.पर क्या शान्ति से गाडी चलाई.हाँ ज़रूरत महसूस हुई किसी मोड़ , पर खासकर अंधे मोड़ पर या फ़िर तब जब कोई हमारी कार के सामने आकर जान देने को तत्पर हो जाता था.हाँ कभी थोड़ी धीमे गति से चलानी पडी या फ़िर थोडा दूरंदेशी से ।पर चलाने में असुविधा उतनी नहीं थी जितना की हम सोच रहे थे। असुविधा थी बस मानसिक कि हार्न के बिना गाडी चला रहे हैं.दो दिन बाद ठीक भी करा लिया। पर फ़िर यह संकल्प किया कि इसका इस्तेमाल कम से कम करेंगे और तभी जब अति आवश्यक हो।