शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

अदिति तीन साल की हो गई..(वैसे वह अगले अप्रैल में नौ की होगी )

 एक बहुत पुरानी पोस्ट  थी जो ड्राफ्ट में दिखी.दिल किया उस याद को ताज़ा करने का.


निकि यानि अदिति की इस चिट्ठा पृष्ठ पर पुनरावृत्ति है.आज ( 5 अप्रैल 2006) वो तीन साल की हो गई.२००३ में नवरात्र की पंचमी के दिन हमने अपने संसार में उसका स्वागत किया था.मैं ,उसकी बुआ  ,अदिति के बचपन का एक अभिन्न हिस्सा रही हूँ.उसको बढता देख अपने आप में एक अदभुत एहसास है.मैंने पाया कि उसके लिये कोइ बात "क्योंकि बड़े  कह रहे हैं" इसलिये मान लेना नामुमकिन सा है.वो सीधे इस तरह से नही कहती है पर उसके तीन  प्रिय शब्द हैं...क्या,क्यों और क्यों नहीं.इसमें एक और शब्द कभी कभी जुड़  जाता है....कैसे.लेकिन अभी यह कम आता है.शुरुआत हुइ थी क्या से.जब उसने बोलना सीखा था और उसकी नन्ही सी पकड़  से कोइ शब्द बाहर होता , वह तब तक 'क्या'का साथ नही छोडती जब तक उसकी संतुष्टि नही हो जाती.यह अधिकतर प्रयोग होता है जब वह किसी शब्द का उच्चारण नहीं पकड पा रही हो मुझे याद है"हैर ड्रायर " कहने में उसे खासी मुश्किल आई,और वह अभी भी 'ड्र ' नहीं समझ पायी है.पर उसकी कोशिश ज़ारी है और वह हमेशा मुझे बाल धोने और सुखाने को कहती है जिससे वह उसको देख सके और सुन सके कि वह है क्या!पर अब तो उसके किसी भी वार्तालाप का सार होता है 'क्यों 'और 'क्यों नही'.अगर हम कुछ कर रहे हैं तो क्यों और नहीं कर रहे तो क्यों नही.सूरज रात में कहीं चला जाता है तो क्यों और दिन में चाँद नही दिखता  तो क्यों नहीं.और जब क्यों की बारात निकलती है तो उसका कोई अन्त नहीं.
उम्मीद करती हूँ कि वह हमेशा यूँ ही उत्सुक, बेहिचक सवाल पूछती रहे, जानने सीखने की ललक बनी रहे .


इन पांच वर्षों  में उसमें बहुत बदलाव आये हैं ,पर उसके कुछ सीखने की लगन कम नहीं हुई है.

गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

कुछ तो नया करो

नए साल में कुछ  नया करो
 ठंडी से एक आह भरो
 कोहरे भरे भोर  में   बाहर चलो
सांस निकालो,धुआं करो

रात अंधेरी सिहरते ओढो
 गली गली कुछ गाते घूमो
एक जलाओ अलाव कहीं
अलसाई  सी  कुछ राग छेड़ो

हसंते हुए कुछ याद करो
पुराने पल की  बात करो
पहले क्रश को बयान करो
कुछ खिसियाओ ,संकोच करो


कलेंडर को बदलते हुए
कुछ लम्हे संजो कर रखो
 क्या नया करना है सोचो
नए साल को सलाम करो  

मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

दो शहरों स बनी एक राजधानी बुडापेस्ट



कम्युनिस्ट साम्राज्य का पश्चिमी छोर और अब केपिटलिस्ट यूरोप का पूर्वी किनारा   कहा जाने वाला हंगरी दो अस्तित्वों के बीच अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद कर रहा है. हम  दुबई से वियना और वहां से टिरोल एरलाईन  के एक छोटे विमान से  ४५ मिनट में बुडापेस्ट पहुँच गए . बूडा और पेश्त नाम के दो शहरों से बनी हंगरी की राजधानी ,बाकी यूरोपीय शहरों से भिन्न लगी .वियना जैसा  कड़क  अनुशासन  यहाँ ज़रा लचीला हो गया और हवा भी यूरोपीय शीतलता से भिन्न ,थोड़ी एशियाई गर्मी का अंश लेने लगी.
डेन्यूब नदी के तट पर एक कतार में कई होटल बने हैं,उन्ही में एक इंटर कोंतिनेनेतल में ठहरने का इंतजाम था. पर ऐसा नहीं लगा  कि उड़ान के बाद ,अब थोडा सुस्ताया जाये. नयी जगह के माहौल को महसूस करने की आतुरता खींच ले गयी हमें आसपास की चहल पहल तक. डेन्यूब का किनारा तो कमरे की खिड़की से दिख रहा था,और नदी के उस पार का राजसी महल.भी. गजब की रोशनी थी और गजब का दृश्य !नदी पर नाव और तट पर बने अनेक रेस्त्रों से चहल पहल थी. आसपास काफी महंगा  सा बाज़ार था,लेकिन हर यूरोपीय शहर की तरह यहाँ भी छोट छोट केफे के बाहर कुर्सी मेज़ लगा कर सुन्दर खाने का इंतज़ाम. रात ग्यारह बारह बजे तक लोग सडकों पर दिखती हैं सो वहां उस समय घूमना भी सुरक्षित है और बहुत लुभावना  भी.
करीब ढाई दिन के समय में इस शहर के साथ इन्साफ करना नामुमकिन है .इतना कुछ देखने को है और इतना कुछ करने को. पहले दिन हम शहर का 'पेस्त' वाला हिस्सा घूमने निकले ,जो नया है,आधुनिक है . शहर घूमने का मज़ा पैदल में  ही  है.यातायात बहुत अधिक नहीं था,सो चलने में मज़ा भी आ रहा था. पैदल के लिए गाड़ियां रुक जाती और हम  कुचले जाने के डर से मुक्त थे. डेन्यूब के किनारे निकले और रुख किया इस्त्फान बासिलिका का.यह बुडापेस्ट का सबसे बड़ा  चर्च है. अन्दर से बेहद खूबसूरत,इस चर्च में सेंत स्टीफन के दाए हाथ को परिरक्षित रखा हुआ है.   यूरोप की  सबसे बड़ी  पार्लियामेंट बिल्डिंग  की भव्य इमारत को देखते हुए हम आगे अन्द्रसी एवेन्यू पर चले.यह सड़क दूर तक जाते है औए बुडापेस्ट के मुख्य सड़क कही जा सकती है.विश्व विरासत स्थल की सूचे में इसका नाम है और कई मशहूर दुकानों और इमारतों को दखने का मौक़ा मिला. यह रास्ता ख़तम होता है हीरोस स्क्वेयर पर जहां हंगरी के राजाओं की प्रतिमाएं हैं . साथ ही आसपास है म्यूजियम ,ओपेरा हाऊस और कम्युनिस्ट समय के अत्याचओं की कहानी कहता हाऊस ऑफ़ टेरर .  बुडापेस्ट की एक खासियत है यहाँ के गर्म पानी के स्रोत और स्पा जहां नहाने से बेहतरीन आराम मिलता है.इसी स्क्वेयर के पास है ज़ेचेन्यी बाथ. बुडापेस्ट   का भूमिगत रेल ,दुनिया का सबसे पुराना है, और इसके स्टेशन को पूर्ववत रखने की कोशिश की गयी है.
किसी शहर की सैर खरीदारी के बिना अधूरे है. सो हम पहुंचे यहाँ के वाची उत्चा ,जो हमारे होटल के पीछे ही एक सड़क है जिसके दोनों तरफ बहुत सुन्दर दुकानें और बाज़ार है. ग्लोबलिज़ेशन के ज़माने में हर शहर की दुकानों में एकरसता  सी आ गयी है. जो दिल्ली में दीखता है वही वियना में औए वही बुडापेस्ट में. सो इस बाज़ार को छोड़ हम पहुंचे ग्रेट मार्केट हॉल . यह एक तीन तलों में बना बाज़ार है,घुसते ही सब्जियों की अनेकों दुकानें और पहले ताल पर हंगरी  की प्रसिद्ध  कढाई और अन्य उपहार की चीज़ें दिखीं. मोल भाव तो हुआ ही पर सामान महँगा लगा. शायद इसलिए क्योंकि हम उससे एक दिन पहले,बुडापेस्ट के बाहर एक छोटे से गाँव ,सेंतेंद्रे घूम कर आये थे. यहाँ जेबकतरों से भी सावधान रहने की इदायत दी गयी थी सो आधा दिमाग तो अपना बटुआ और मोबाइल बचाने मैं ही लगा था.
रात होते होते हम वापस होटल पहुंचे और डेन्यूब  किनारे के अद्भुत समाँ का आनंद लिया. यहाँ पर हर शाम बेंच पर बैठीं  कुछ औरतें भी कढ़ाई के मेजपोश आदि बेचती हैं.बातें हुईं, खरीदारी हुई और पता चला कि  जो नहीं खरीदा वह असल में चीन  से आया था. भारत  की तरह वहां भी चीन सस्ते माल भेज रहा है.यही बात हमें वेनिस में भी दिखी  . मन में एक सवाल उठा कि जो हमने इया वह क्या वाकई उन औरतें के गाँव का है या फिर चीन का ?

किनारे बनी छोटे  लडके की एक मूर्ती के पास बैठकर,यह सब भूल गए और मज़ा  लिया ,नदी पर तैरती नौकाओं का, उस पार जगमगाते महल का, तोकाजी का और हर इमारत,हर कदम के पीछे छुपी एक कथा का.


रविवार, नवंबर 06, 2011

के बी सी बनाम बिग बॉस

श्योर    हैं  फ़ाइनल जवाब ...लॉक    कर दिया जाए ...मुस्कान और फिर सही जवाब का एक स्वर जिसमें उतना ही  आनंद भरा होता है जितना स्वयं प्रतिभागी के ह्रदय में. यह  सब के बी सी की पहचान  कराने वाली कुछ झांकियां हैं. 
चैनल  बदलिए....खुसपुस खुसपुस...तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे ऐसे बात करने की...यू ***....वह तो ऐसी है... अरे वह तो उसके सामने ऐसे बात करते हैं और हम लोगों से कुछ और बोलते हैं....!लगता है सब कुछ काला, मनहूसियत की छाया लिए .बिग बॉस का घर.

सीरियल से हटकर दो प्रोग्राम  जिनका प्रचार जोरशोर से हुआ और अब कई  सीसन कर चुके हैं. जब भी शाम को मैं टीवी देखती हूँ तो अनायास ही यह ख़याल आता है. एक ओर बिग बी का ठिकाना  ..जीवंत,हंसी ,जोश, उत्साह से भरपूर के बी सी का प्रोग्राम. सपरिवार एक साथ बैठ कर ज्ञान ,मनोरंजन और सबसे बड़ी बात पूरी तल्लीनता से मज़ा उठाने का  .अमिताभ बच्चन के गरिमामयी व्यक्तित्व   ,संयमित व्यवहार,सुन्दर स्वच्छ  भाषा ,से यह खेल इतना दर्शनीय है ,कि क्या कहने .बच्चे बड़े  सभी इसमें पूरी तरह से शामिल महसूस करते हैं.हाँ इस बार पंचकोती  महामणि कौन बनेगा करोडपति लगता है कुछ अधिक परोपकार की राह पर चल निकला है,पर दर्शकों की सहभागिता बनी रहती है. देखते हुए एक सकारात्मकता ,एक प्रसन्नता का अनुभव होता है.

कुछ आधे घन्टे बाद रात के अँधेरे में चलें बिग बॉस के घर दस्तक दें. क्या कुहराम है,क्या अस्त व्यस्त सा समां है. सब कोइ किसी साज़िश में लगा है. अगर कोइ सकारात्मकता दिखती भी है तो क्षणिक . उसे भी लगता है दबा दिया जाता है.क्या घर परिवार ऐसे ही होते हैं,चीखते चिल्लाते, एक दुसरे के विरुद्ध कुमंत्रण करते. ऐसे संसार के बारे में सोचना और फिर उसे रात दर रात पर्दे पर दखना कितना नकारात्मकता से भर देता है व्याकुलता होती है उसे देख कर.सामने कुछ पीछे कुछ और .काम करने से दूर भागते लोग,दिनचर्या बिग बौस के इशारे पर निर्धारित ,बिना किसी प्रयोजन के दिन काटते प्रतिभागी....खाली दिमाग शैतान का घर. तभी षड़यंत्र के साए उस बेहद धनी घर में छाये रहते हैं. देख कर एक विमुखता सी हो जाती है. न सहजता न सौम्यता ,न सकारात्मक  ऊर्जा का एहसास. 

अपनी टीवी तो १० बजे बंद हो जाता है !

गुरुवार, अक्तूबर 20, 2011

जिन्जा में देखा नाईल का उदगम

     तब अफ्रीका की प्राकृतिक सम्पदा एक रहस्य थी और यहाँ के नदी,तालाब,पहाड़ों के बारे में दुनिया अनभिज्ञ . ऐसे में कई अंग्रेज खोजी उस अनजान दुनिया के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा लिए ,घने जंगलों ,जानवरों ,रोगों से झूझते ,कभी गुम हो जाते,कभी  मौत से  लड़ते  ,पहुँच जाते  नयी दुनिया की   खोज करने . ऐसे ही  एक   थे  जोन स्पीक . निकले थे नाईल का उदगम ढूँढने और जब विक्टोरिया झील से उस नदी को निकलते हुए देखा तो हक्का बक्का से  खड़े रह गए दो घंटे तक . आखिर इतनी मुश्किलों से उनकी यात्रा सफल हुई थी . आज  जिन्जा  शहर में  उसी   स्मारक   के तौर पर एक ओबेलिस्क बनाया गया है  .
     युगांडा के मर्चीसन  फोल्स के बाद अगले दिन हम वापस रवाना हुए कम्पाला के लिए. लेकिन हमारी मंजिल कम्पाला नहीं बल्कि यही शहर था जहां से निकलती है विश्व की सबसे लम्बी नदी . युगांडा का दूसरा सबसे बड़ा शहर और यहाँ का औद्योगिक केंद्र है जिन्जा.कम्पाला की भीड़ भरे यातायात से निकलकर गाँव ,खेत   हुए खलिहान से  पहुंचे इस  छोटे से शहर में.  रास्ते में मिली मेहता इंडस्ट्रीस और  गन्ने के खेत. चीनी  उत्पादन यहाँ का  एक प्रमुख उद्योग है. वैसे कम्पाला का यातायात बहुत बदनाम है  पर खुशकिस्मती से हम इस में फंसने से बच गए और पहुंचे जीन्जा  के मादा होटल जहां ठहरने का .
पहुंचकर लगा एक अलग ही दुनिया में आ गए .फिर उसी विशाल नाईल नदी का किनारा, केकट्स के बड़े बड़े वृक्ष के नाप के  पौधे  ,जीरो वाट बल्ब की रोशनी से रहस्यमयी लगते कमरे   और हर जगह वही  युगांडा में सर्वव्यापी हरियाली. पहले दिन तो शाम हो गयी थी सो कहीं बाहर जाना नहीं हुआ ,पर अँधेरे में नदी किनारे बैठकर , दूर तक फ़ैली निस्तब्धता में लीन हो जाना ,उसकी लहरों को महसूस करना , अँधेरे के फैलाव को समेटना ,यह सब महसूस करते हुए एक सिहरन सी होती थी .दूसरे  दिन सवेरे  निकल पड़े  उस  जगह, उस ख़ास झील को देखने . 'सोर्स ऑफ़ द नाईल'  के पास  लिए पहुंचे तो एक चिर परिचित नज़ारा देखने को मिला.५००० शिलिंग ,अच्छा २००० में ले लीजिये....हाँ वही भारत की तरह वहां भी सड़क किनारे लगी स्थानीय हस्तशिल्प के  नमूने  .पीछ करते वहां के स्थानीय निवासी और मोलभाव का वही अंदाज़ .पर उनके साथ ज्यादा समय न बिताकर हम आगे बढे  तो दिखी गांधीजी की प्रतिमा. जीन्जा के संपन्न परिवारों में बहुत भारतीय परिवार हैं, खासतौर से माधवानी परिवार ,जिसकी एक बहू हैं हमारी प्यारी नटखट अभिनेत्री  मुमताज़ .    
             नीचे उतरकर नाव पर बैठे और चले नदी की धारा के उलटे . युगांडा हो   ,या फिर अफ्रीका पशु पक्षियोंकी जितनी जातियां यहाँ देखने को मिलाती हैं शायद और कहीं नहीं . नदी में चलते के जहरीले सांप को देखा ,तो तट पर पड़े हुए सांपनुमा  एक लम्बे चौड़े गिरगिट  को भी .आसमान की तरफ देखा तो पेड़ पर पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड नज़र आये. लहरों  के साथ खेलती नौका आगे बढ़ी और कुछ देर बाद दूर क्षितिज पर दिखनी  लगा किनारा .लगा जैसे नदी एक जगह जा कर फ़ैली और ठहर गयी. पर हम तो नदी की धारा के विपरीत जा रहे थे,सो यह तो संभव नहीं.हाँ,यह संभव था की वह जो नदी का विस्तार अचानक और विशाल हो गया वह तो वास्तव में एक झील थी और यही था इस प्रसिद्द नदी का स्रोत याने लेक विक्टोरिया .झील के मुंह पर एक छोटा द्वीप था ,जहां एक कुटिया और उस में कुछ हस्तशिल्प का सामान .हम टापू पर उतरे,फोटो वगैरह खींची और फिर बढ़ चले झील की  ओर. दरअसल यही झील हमें कम्पाला में भी मिली थी और एन्तेबी हवाई अड्डे पर भी . यह विश्वास करना मुश्किल होता है की इतनी लम्बी नदी एक ताल से निकलती है!
http://googlesightseeing.com/2009/09/the-source-of-the-nile/
       पर स्पीक ने जो दृश्य देखा था वह यह नहीं है.उस समय यहाँ पर एक झरना था जिसका नाम उन्होंने रखा रिपोन फोल्स. पर अब उस जगह एक बिजलीघर के लिए बाँध बना दिया गया है ,ओवेन डैम और रिपोन फोल्स डूब गया उस बाँध के नीचे. आदमी की ज़रूरतों के लिए प्रकृति को यदा कदा झुकना ही  पड़ जाता है. बहुत देर तक झील में चक्कर लगाने के बाद हम वापस लौट अपने निवास की ओर.पर यात्रा थी अविस्मरीनीय .  यह सोचकर रोमांचक लगा की अगर हम इसी नदी से आगे बढ़ते तो पिछली पोस्ट में जिस मर्चिसन फोल्स का ज़िक्र किया था वहां पहुँच जाते . लेकिन दरियाई घोड़ों और  मगरमच्छ वहां तक पहुँचने की इजाज़त देते तब .

यहाँ की बंजी जम्पिंग , दुनिया के बेहतरीन बंजी जम्पिंग स्थलों में से एक है ,पर अफ़सोस समयाभाव के कारण ,इसका आनंद नहीं ले पाए .





मंगलवार, सितंबर 27, 2011

हम, आप और अन्ना

अन्ना हजारे का उपवास जारी था.हम  सवेरे आफिस के लिए निकले और दिल्ली से गुरगांव वाले रास्ते पर यही सब मनन चिंतन करते हुए चले जा रहे थे. क्राउन  प्लाज़ा पर  एक्सप्रेसवे से बाहर निकलना था. सामने देखा कुछ जेम सा नज़र आया .शायद आगे की बत्ती लाल हो. उस बाहर जाने वाले रास्ते से पहले एक अन्दर आने का रास्ता है. देखा लोगों ने गाडी मोड़ दी और उस अन्दर के रास्ते  से बाहर की ओर जाने लग गए.एक और जेम शुरू हो गया .क्या नियमों का उल्लंघन करना ठीक था ? 

कल हमारे  घर में काम करने वाला बड़ा खुश दिखा .दिन भर कहीं गायब था. मैंने पूछा ,क्या हो गया ? बोला आज कार चलाने का लाईसेंस बनवा लिया! मैंने पूछा ,"किसका?" अपना  ! अरे कार साफ़ करने के अलावा तो तुमने कार आज तक छुई नहीं है. एक हज़ार रुपये दिए और मुझे लाईसेंस मिल गया. दो हज़ार बोल रहा था पर मैंने भी एक हज़ार पर जिद्द पकड़ ली थी. कार क्या उसने आजतक साइकिल छोड़ कर स्कूटर तक को हाथ नहीं लगाया है. 

मेमसाहब आपके आफिस में कोई जगह नहीं निकलती,मेरे भाई को लगवा दीजिये.पर वो तो घूमता रहता है.आठवीं के बाद पढ़ा ही नहीं है. और नौकरी के लिए कम से कम इंटर तो होना चाहिए. अरे मेमसाहब , सर्टिफिकेट तो मैंने बनवा लिया है .
पी ऍफ़ से एक लाख रुपये निकालने हैं.क्या हो गया. बच्चे की शादी हो रही है क्या? नहीं ,सरकारी दफ्तर में नौकरी के लिए देने हैं. पर उसकी तनखाह कितनी होगी . १५००० महीने  शायद .तब तो १ लाख कितने साल में वापस आयेगा. अरे नौकरी लगने के बाद बहुत से कमाई के रास्ते खुल जायेंगे.

बिजली का बिल सालों से मीटर न लगे होने की वजह से भरा नहीं गया है.अब सरकार ने मुहिम छेड़ी है ,बकाया पैसे वसूलने की. कैसे भरेंगे इतने रुपये.फ़िक्र मत करो, चलो दफ्तर चलते हैं. सौदा तय हुआ,बिल कम हो गया . सरकारी खजाना किसी और का हो गया . 

यह सब वास्तविक ज़िंदगी के उदाहरण हैं. अन्ना हजारे के अनशन से यह सब प्रश्न  भी सामने आते हैं.क्या हम नैतिक तौर से भ्रष्टाचार हटाने  के लिए तैयार हैं. क्या हम भारतीयों के चरित्र मैं ही कोई त्रुटी है कि  हम नियमों का उल्लंघन   करने , किसी काम के लिए मेहनत न कर शोर्ट -कट लेने , देश की संपत्ति का आदर न करने ,इन सब में  माहिर हैं .क्या भ्रष्टाचार ऐसे ही आचरण से दूर हो पायेगा.? जन लोकपाल बिल तो ठीक है पर इन सबका इलाज तो हमारे अपने पास ही है.हर नागरिक वैयक्तिक स्तर  पर ज़िम्मेदार है हमारे देश के इस हाल के लिए.

 

शुक्रवार, अगस्त 26, 2011

देहली से दिल्ली तक...दिल्ली दरबार के सौ साल


              
 "
ख़ामोशी में निहाँ खूँगश्तः लाखों आरजुएँ हैं,
चिराग़े-मुर्दः हूँ मैं बेज़बाँ गोरे गरीबाँ का ।"

"
जिस प्रकार परदेसियों और पथिकों की क़ब्रों के बुझे हुए दीपक उनकी लाखों कामनाओं को अपने कलेजे में छिपाए होते हैं वैसे ही मेरे मौन में भी रक्तरंजित लाखों कामनाएँ निहित है !"
  क्या सोचा होगा गालिब ने  कि उनका यह शेर कभी उनकी दिल्ली की ही दास्तान  बयान   करेगा.दिल्ली का नाम  लेते  ही ,पर्यायवाची की सूची की तरह  लाल किला,क़ुतुब मीनार, इण्डिया गेट   तुरंत ज़हन में आ जाते हैं. पर क्या दिलवालों की दिल्ली का  वजूद बस इन्हीं   में सिमटा  हुआ  है.? यहाँ की सडकों पर चलते  हुए यह एहसास सबको ज़रूर हुआ होगा जैसे  इतिहास के पन्ने भी हम अपने वर्तमान के साथ साथ पलटते जा रहे हैं.  तारीख के  कितने ही  मुकाम इस शहर पर  अपने  निशान छोड़ चुके हैंहर  मोड़  पर  दिखते  खँडहर   से झांकती है कितने ही   सुल्तानों, राजाओं, बादशाहों की रूहें. 
            सात शहरों के इतिहास को अपने दामन में समेटे आज की दिल्ली ज़माने के साथ बदलती भी है और  पुराने जामे को पहने भी रहती है. कैसे बसी दिल्ली, कहाँ से आईं  इसकी तहें दर तहें ?  तुगलकाबाद, सिरी,शाहजहानाबाद ,   इनसे गुज़र कर दिल्ली यहाँ तक पहुँची कैसे?  
            वैसे तो दिल्ली के आसपास  बस्ती  बहुत  पहले  से थी  लेकिन तोमर वंश के राजपूत राजा अनंगपाल ने लाल कोट नाम का किला बनवाया , और इसी किले का विस्तार पृथ्वीराज चौहान ने किया  राय किला पिथौरा के रूप में किया. यहीं से शुरुआत हुई दिल्ली की. किला राय  पिथौरा को माना जाता है पहला शहर .
      वैसे दिल्ली का  नाम कैसे पड़ा इसकी भी एक रोचक दास्तान  है .  तोमर राजा अनंगपाल अपने पोते के जन्म का जश्न मनाना चाहते थे . एक महात्मा से पूछा तो उन्होंने उसी वक्त को सबसे शुभ माना और यह भी कहा कि अगर अभी किया तो आपका राज बहुत मज़बूत होगा और ज़मीन के नीचे बैठे शेषनाग तक इसकी जडें जायेंगी.राजा ने अविश्वास प्रकट किया तो संत  ने एक खम्बा ज़मीन में गाड़ा और निकाल लिया.निकालने  पर खम्बा सांप के खून से लथपथ निकला. तोमर राज्य के लिए भविष्यवाणी हो गयी कि राजा के टाल मटोल करने के कारण उनका राज्य भी इसी खम्बे की तरह ढीला होगा.  "किल्ली तो ढिल्ली भाई, तोमर भया मतिहीन". इसी से इस जगह का नाम दिल्ली पड़ा. वैसे तो इस लोहे के खम्बे को कई लोग उसी खम्बे से जोड़ते हैं जो सबने क़ुतुब मीनार के पास देखा होगा ! तो फिर देखिये क़ुतुब मीनार के पास पहली दिल्ली की यह निशानी  ,
   क़ुतुब मीनार को बनवाने वाले कुतुबदीन ऐबक  ने ही चौहान वंश को मात देकर भारत में    गुलाम वंश की स्थापना की. महरौली की आसपास घूमते हुए  मिलेगी बलबन की कब्र ,जमाली कमाली की कब्रें और वहां की  मशहूर फूलों की मंडी . इसी जगह पर बसी थी दूसरी  दिल्ली , महरौली की .
          आगे  हौज़ ख़ास की ओर बढ़ते हुए आप पहुंचेगे तीसरी दिल्ली के पास.  खिलजी सुलतान अला-उ-द्दीन खिलजी ने मंगोल  आक्रमण  से  बचने के  लिए     एक शानदार किला और महल बनवाया .कहते  हैं  इसकी  डेढ़  किमी  लम्बी  दीवार  में दस  हज़ार  मंगोल   सैनिकों  के  सिर  काट  कर  दफ़न  किये  गए  हैं .इसके  कारण  इसको नाम दिया सिरी . अब  आप  खेल  गाँव   और  सिरी  फोर्ट  इलाके  से  गुज़रें  तो    इतिहास  के  इस  खूनी   पन्ने पर  भी  गौर  करें . पर  इन्हीं राजा  ने  अपनी प्रजा का ख्याल रखते हुए , निवासियों  के  लिए  पानी  का इंतज़ाम किया और बंवाया   हौज़ ख़ास .   
   
खिलजी  वंश  के  बाद  सत्ता  पहुँची  तुगलकों   के  हाथ   में और  गियासुद्दीन      तुगलक   ने   बसाई  चौथी  दिल्ली . आज  के  महरौली  बदरपुर   मार्ग   पर तुगलकाबाद  किले  के  अवशेष हैं . बहुत     ही  ऊंची किले  की  दीवारों    के  अन्दर  एक  पूरा  शहर  बसा   था  . पर  दिल्ली  के  प्रमुख    रास्तों    से   थोडा    अलग    होने के  कारण  यहाँ   देखने वाले  कम     आते हैं. तुगलाकाबाद में पानी की समस्या थी ,सो फिरोज़शाह तुगलक ने यमुना के पास अपने लिये एक शहर बसाया फिरोज़ाबाद. आज के आइ टी ओ और बहादरशाह ज़फर मार्ग के पास बसा यह था पांचवी दिल्ली,जिसका विस्तार पहले के शहरों से ज़्यादा था.क्रिकेट  प्रेमी तो फिरोज़ शाह कोटला  के नाम से परिचित होंगे.यह इन्हीं तुगलक की विरासत है.शानदार  किले के अब खंडहर  के नाम पर बचे हैं जामी  मस्जिद,एक बाओली,और अशोक स्तम्भ जो फिरोज़शाह अम्बाला से ले आये थे .
भारत के सबसे लम्बे समय तक राज करने वाले मुगल कैसे पीछे रह सकते थे . हुमायुँ ने बनायी अपनी रजधानी और नाम दिया दीनपनाह .  शेरशाह सूरी ने सभी भवनों को नष्ट करके  इसी जगह पर बनवाया था शेरगढ. आज के  पुराना किला के इर्द गिर्द बसा यह शहर छठी दिल्ली था.पुराना किला तो आते जाते दिख जाता है ,पर अब यहाँ से गुज़रते  हुए सोचियेगा कि इतिहास के किस मुकाम के आप रूबरू हैं .

       अकबर  ने दिल्ली में नया शहर न बनवाकार राजधानी ही आगरा पहुंचा दी ! पर शाहजहाँ वापस दिल्ली आये और इसको दिया इसका सातवाँ अवतार ,शाह्जाहाँबाद के रूप में . लाल किला ,जामा मस्जिद ,चांदनी चौक सब इस इमारतों के शौकीन बादशाह की देन हैं.

आज की दिल्ली अपनी इन पुरानी पीढीयों की विरासत तो है ही पर नयी दिल्ली के रूप में हम जिसे जानते हैं वह देन है अंग्रेज़ों की. लुटयेंस दिल्ली के नाम से जाने जाना   वाला  चौडी सडकों, भव्य कोठियों , कनाट प्लेस के अनोखे अन्दाज़ वाला यह आधुनिक शहर  भारत का दिल है . आगे का रूप कैसा होग यह कह पाना मुश्किल है,पर इतना ज़रूर है कि दिल्ली है बडी निराली.

शुक्रवार, जुलाई 22, 2011

अगर कुछ अच्छा दिखे तो उसे ज़रूर बयान करना चाहिए (Ugandan proverb )

अफ्रीका  के जंगलों, वहां के रहन सहन, वहां की दुनिया के बारे में उत्सुकता और कौतूहल हमेशा से था और जब युगांडा जाने का अवसर मिला तो जैसे कोई बड़ी मुराद पूरी हो गयी ऐसा महसूस हुआ  .अफ्रीका के लगभग मध्य में स्थित यह देश उसका भौगोलिक   दिल कहा जा सकता है .
           दुबई से करीब 7 घंटे के हवाई सफ़र के बाद एन्टेबी हवाई अड्डे पहुंचे .पहली नज़र में सब तरफ हरा हरा दिखा . हवाई जहाज से नीचे झाँकने पर  विक्टोरिया लेक का बहुत सुन्दर दर्शन पहले ही हो चुका था.दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मीठे पानी की यह झील युगांडा के दक्षिण छोर पर है.  एन्टेबी हवाई अड्डा इतिहास के पन्नों में जाना जाता है ,इजरायली कमांडो की  एक बहुत जांबाज़ कार्यवाही के लिए.१९७६ में इजराईल के कमांडो दस्ते ने अपहरण किये हुए हवाई जहाज को मुक्त करवाया था.
          सड़क के रास्ते निकल पड़े फिर कम्पाला ,जहाँ पर ठहरने का इंतज़ाम था. यह भी कम्पाला के बाहर मुन्योंनयो   नाम की जगह पर सुन्दर सा सैरगाह था स्पेक रेसोर्ट. उसी विक्टोरिया झील के तट पर बना यह होटल मन को भा गया. मुसकराते लोगों ने कमरे  तक सामान पहुंचाया .सामान  तो पहुँच गया पर खुद मैं पहुँची  उसके काफी बाद. कारण था रिसेप्शन से कमरे तक का रास्ता भरा हुआ था सुन्दर ,कभी न देखे हुए फूलों और पौधों से. रुक रुक कर चल रही थी,कि याद आया ,यहाँ तो दो दिन का पड़ाव है,सो तसल्ली से इसका आनंद उठाया  जा सकता है. 
पांच सितारा की भौतिक सुख सुविधाएं और प्रकृति की सात सितारा विलासिता के संगम में रहना प्रफुल्लित , आनंदित कर रहा था. शाम को तो सैर की ही, सवेरे भोर में उठ गए और पहुंचे झील किनारे. देखा पक्षी का एक झुण्ड वहां पडी मेज कुर्सियों पर अपने सवेरे का सफ़र कर रहा है और साफ़ सफाई का काम भी . पूरब की तरफ सूरज चढ़ रहा था, और उसकी किरणें झील के पानी से मिलतीं, कण कण में  चमकतीं,  झिलमिल करतीं.तभी देखा एक नाव चली आ रही है,सूरज की उन किरणों की और , उनके बीच से गुज़रते कैमरे में कैद कर लिया .
लेक विक्टोरिया पर सुबह
मंत्रमुग्ध होकर  मैं वहां फूलों और वनस्पति की विविधता देखती,छोटे बच्चे की तरह हर तरफ दौडती और आँखें फटी की फटी.  .
यहाँ के नजारों के बाद चले कम्पाला की दिल्ली हाट नुमा जगह,नॅशनल थियेटर में बना  क्राफ्ट्स विलेज . गजब के सुन्दर हस्तशिल्प के नमूने,दिखे.एक दूकान से दूसरी ,मोलभाव करते,टोपी,लकड़ी के मुखौटे,चप्पलें, कुछ बातें कीं ,कुछ हंसी मज़ाक ,कुछ ना नुकुर, थोड़ा  लुट जाने की शिकायत और फिर सौदा तय कर हाथ जोड़ नमस्कार कर अगली अनोखी वस्तु की ओर.कम्पाला तो राजधानी है, हर बड़े शाहर की तरह सड़क पर जाम ,  सुन्दर घर  ,माल ,डिस्को सब कुछ देखने को था.
पर मुझे तो इंतज़ार था उस घड़ी का जब हम अफ्रीका के जाने माने जंगलों को देखेंगे. दूसरे दिन हमारी मंजिल थी मर्चीसन फाल्स और इसी नाम का नॅशनल पार्क.कम्पाला से करीब ३०५ किमी की दूरे पर स्थित यह युगांडा का सबसे बड़ा वन विहार है. रास्ते में मासिन्दी के १९२३ में बने युगांडा के सबसे पुराने , मासिन्दी होटल में भोजन  कर  हम शाम ५ बजे पहुंचे "परा" सफारी लाज .नाईल नदी  को पार कर "परा"  पहुँचने का आनन्द , आने वाले अनुभवों की एक  झलक   था  .दरियाई  घोड़े का पहला दर्शन हुआ .अच्छा हुआ क्योंकि परा का मतलब है दरियाई घोड़ा ! नाईल नदी के किनारे बना यह विश्राम गृह, अफ्रीका के जंगल में घूमते,खोजी जांबाजों के रोमांच को सजीव करता है. सबकुछ उसी तर्ज़ पर . लेकिन  सफ़र का सुनहरा क्षण था,सवेरे उठकर  बस में उस नॅशनल पार्क  में घूमना.अन्दर घुसते ही अफ्रीकी हाथी के परिवार ने सड़क के बीचों बीच खड़े होकर स्वागत किया  ,पर हमने भी कहा कि दूर से ही दुआ सलाम हो जाए तो ठीक है ."आप  सड़क पार कर लें ,हमें जल्दी नहीं है !"
आगे बढे तो हिरन की प्रजाति के  युगांडा  कोब  , हार्तबीस्त और वाटरबक दिखे. 'लायन  किंग' की याद सबको आयी जब  एक वोर्टहोग को देख अनायास ही पुम्बा का नाम निकल गया. हम बारबार बस रुकवा रहे थे और हमारे साथ के रेंजर और वाहन चालक चेतावनी देते जा रहे थे की यहाँ रुकने से हम सफारी की सबसे बड़ी विशेषता से वंचित रह सकते हैं. पर दिल कहाँ मानने वाला. एक जिराफ दिखा तो लगा फोटो खींचो. और जिराफ के झुण्ड दिखे तो बस क्यों आगे बढे. वो भी तो बेफिक्री से फोटो खींचने की मुद्रा में खड़े हो रहे थे. और फिर दुबारा ऐसे सुडौल,आसमान से बातें करते, पेड़ों के ऊपर से ताकझांक करते पशु को देखना इतनी जल्दी तो होने वाला नहीं था. पर हमें यह अनुमान नहीं था की यहाँ जितनी देर हम करते जा रहे थे ,जंगल के राजा को देखने की संभावना उतनी धूमिल होती जा रही थी. आगे बढे तो सूरज ऊपर चढ़  आया था और शेर अपना सवेरे का नाश्ता कर किसी झाडी में विश्राम करने चले गए थे.अब उनको ढूँढना  काफी मुश्किल हो गया था. बावजूद इसके और थोडा नियमों का उल्लंघन करते हुए ,हमारे बस चालक और गाईड ने रास्ता छोड़,घास में गाडी  घुमा दी . अफ्रीका के सवान्ना घास भूमि में घने जंगल नहीं दिखते,बस झाड़ियाँ और मध्यम आकार के पेड और दूर तक सपाट पीली पीली से घास. क्षितिज पर नज़र दौडाने पर एक पतली रेखानुमा नदी दिखाई पड़ने का एहसास होता है .
लेक एल्बर्ट
यहाँ कहीं छुपा था वनराज
हर झाडी के अन्दर झांक झांक कर देखते देखते हमें निराशा ही हाथ लग रही थे और हम मायूस वापस जाने की तैयारी  कर रहे थे की एक लौटती बस ने हमें उस झाड़ी का पता ठिकाना बताया जहाँ शेर आराम फरमा रहा था. फिर क्या ,मुस्कराहटें, आहें और इंतज़ार में रुकी सांसें . सही पता बताया था उन लोगों,अन्दर झाडी में  उस रोबदार  , शाही सिंह को बस के अन्दर से खिड़की से कोण बदल बदल कर देखने लगे. कुछ जोश में जोर से बातें भी होने लगी की रेंजर ने हमें सावधान किया की हम उस राजा के आराम में खलल  डाल रहे है सो शांत रहने में ही बेहतरी है ! .कुछ देर बाद हम आगे बढे, अगली सैलानियों  की बस को " रिंगसाईड वियू " देने के लिये. पर हमारी किस्मत के ताले तो खुल चुके थे.कुछ दूर आगे ,एक शेरनी के ठिकाना का आभास हुआ. यहाँ तो सचमुच  कमाल था. शेर तो पत्तों की झुरमुट में बहुत अन्दर था और उसके दर्शन थोड़े मुश्किल से हुए. पर यहाँ तो शेरनी अपने शयनागार के दरवाज़े पर ही बैठी थी. शरनी ने हमें राजोचित उपेक्षा दिखाते हुए अपना विश्राम जारी रखा , और हम उसे विस्मय से देखते रहे. सफारी के शिष्टाचार नियमों का पालन करते हुए हम अगले ग्रुप को देखने का मौक़ा देने के लिए आगे बढे. 
ताल मिले नदी के जल से ,नदी मिले सागर में. लेकिन आगे चलकर देखा कि  यहाँ तो  नदी  एक ताल  में मिल रही थी .विक्टोरिया   नाईल , लेक एलबर्ट में मिलती है और यहाँ से बनकर निकलती है एलबर्ट नाईल .यहाँ आखिरकार हमें बस से उतरने तो दिया गया पर हिदायत   के साथ कि बहुत दूर नहीं जाना है. मगरमच्छ का खतरा है . ताल में दिखे फिर बहुत से दरियाई घोड़े  ,गर्मी से बचते,नहाते,डुबकी लगाते , खेलते,आह क्या डाह से जल गए हम . 
मर्चीसन फाल्स 
       वापस लौटना भी ज़रूरी था क्योंकि योजनानुसार  दोपहर के बाद हम एक और विस्मयकारी यात्रा करने वाले थे. नाईल पर नौका सैर और साथ ही दुनिया के सुन्दरतम जलप्रपात में से एक  का दर्शन  . "अफ्रीका क्वीन" पर एक घंटे की नौका सैर  से देखने को मिले हाथी के झुण्ड,हिप्पो ,मगरमच्छ और जंगलों  में सबसे खतरनाक माने जाने वाले जंगली भैंस. नदी  के किनारे पानी पीने आये जानवरों का  भी एक वर्गीक्रम होता है.जब हाथी पानी पीने की इच्छा ज़ाहिर करता है तो अन्य जानवर पीछे हट जाते हैं. पर जब जंगली भैंस  आती हा तो हाथी भी इस हठी,तुनकमिजाज जानवर से नहीं जूझता . यहाँ  नदी के किनारों पर पेड़ कुछ अधिक थे ,और सब जानवर अपने अपने झुण्ड में दिखाई पड़े. पक्षी दल भी नज़र आये,ख़ास तौर से युगांडा का राष्ट्रीय पक्षी गोल्डेन क्रेस्टेड क्रेन.पक्षी प्रेमियों के लिए तो यह सुनहरा सफ़र था. हमारी यात्रा की मजिल थी एक ऐसी जगह जहां  नाईल नदी की विस्तारता को ६ मीटर की तंग दरार  ने सीमित किया तो वह ४३ मीटर की ऊँचाई से नीचे गिरी और बनाया   शक्तिशाली , जलप्रपात ,मर्चिसन फाल्स ! हमारी नाव हमें उसके बेस तक ही पहुंचा पायी पर वहां से भी दृश्य  इतना सुन्दर था कि उस झरने को पास से देखने की उतावली  होने लगी. . चारों और जंगल और उनके बीच में ऊंची पहाड़ से गिरता पानी ,बहते बहते ही वह एक शांत नदी का रूप ले लेता है .अवर्णनीय ! 

रात होने वाली थी,जंगल  में निशाचर हैं,खतरनाक पशु हैं ,सो वापस मुड़ना  ही था.पर इस अफ़सोस के साथ कि इस भव्य जलप्रपात को पास से देखने का संयोग नहीं बन पाया .शायद इस अधूरे  काम को पूरा करने के लिए फिर युगांडा घूमने का मौका लगे. इंशाल्लाह !

 
   

गुरुवार, फ़रवरी 10, 2011

अंडमान - हरे सांप और जैव विविधता से मुलाकात

नोर्थ बे और रोस आईलेंड    की यात्रा के बाद लगा कि अंडमान के जंगलों को भी देखना चाहिए.यहाँ पर हर तरफ पेड़ ही पेड़ दिखते हैं  . फिर दो दिन लगातार यह छोटी समुद्री यात्राएं करने के बाद थोडा ज़मीन पर चलने का मन भी कर रहा था. पोर्ट ब्लेर में बहुत कुछ देखने को है. चैथम  सौ मिल ,बड़ी पुरानी लकड़ी की मिल है.पर अफसोस उस दिन बंद थी. पर उसको छोड़ हम आगे बढे अंडमान,निकोबार द्वीपों  की दूसरी सबसे  ऊंची पहाडी चोटी माउन्ट हेरियट की ओर . वैसे तो यह पोर्ट ब्लेर से ५५ किमी दूर है ,लेकिन नाव से जाने में सिर्फ २० मिनट में वहां पहुंचा जा सकता है. चैथम घाट से दूसरी पार , बैम्बू फ्लेट तक हम नाव से गए. हम ही नहीं हमारी गाडी भी साथ में उसी नाव में हो ली. यह फेरी वहां के निवासियों के लिए  बस सेवा की तरह है . सब अपनी कार,स्कूटर,मोटरसाइकल उसी पर चढ़ाकर  इधर  से उधर जा रहे थे .                                                                           
बम्बू फ्लेट भी एक छोटा कस्बा सा है जहां से हम चले   माउन्ट हेरियट की ओर. रास्ते में पार किया एक प्राइमरी स्कूल .










आगे जाकर ड्राइवर ने गाडी रोक एक किनारे लगा दी और नारियल के बीच समुद्र,दूर दिखते  दो टापू और एक लाइटहाउस की तरफ इशारा किया. बोला फोटो खींचिए और फिर देखिये क्या पहचानी सी लग रही है. हम ने खींच ली और ध्यान से देखा. खैर सिर खुजाते रहे ,पर कुछ पहचान नहीं आया . उसी ने बताया कि बीस रुपये के नोट पर यही दृश्य छापा जाता  है! अद्भुत !आगे बढे तो माउन्ट हेरियट का चेक पोस्ट था.नाम पता लिखवाया गया,कुछ प्रवेश शुल्क अदा किया और फिर चले अन्दर . वैसे यहाँ पर गाडी रोक कर आगे तक ट्रेकिंग की जा सकती है. पर हम गाडी  और पहुँच गए माउंट हेरियट  . यहीं  पर  एक तरफ बैठने के लिए मचान सी बनी थी. हम लोग तो आगे बढ़ गए पर परिवार के बुज़ुर्ग वहीं बैठकर आसपास के प्राकृतिक  सौन्दर्य  का मज़ा लेते रहे.मचान से नीचे उतर कर हमने ट्रेक शुरू की. यहाँ ट्रेकिंग की दो मंजिलें हैं. छोटी करीब डेढ़ किमी वाली कालापत्थर तक और लम्बी ,  मधुबन और समुद्र तट तक . हम पगडंडी से  अन्दर घुस गए. पूरा रास्ता सिर्फ पेड़,जंगल, तरह तरह के  पौधे. ऊपर पेड़ों की  चलनी से छन छन कर आती धूप ,नीचे धूप छाँव से बनते छायाचित्र  .करीब आधे घंटे बाद लगा वापस चलें . लौटने के लिए मुड़े  तो देखा एक लड़का बड़े ध्यान से ज़मीन में लताओं को देख रहा है. पूछा तो उसने इशारा किया ,एक हरा सांप वहां लेटा था.
हम भी रुक गए. उसने सिर उठाया ,फन फैलाया  ,इधर उधर देखा और आगे बढ़ गया. यह भी अच्छा रहा . वनस्पति की इतनी विविधता दिखाई पडी. कोई पेड़ किसी और का सहारा ले आसमान छूना  चाहता है, कहीं जड़ ही आकाश की तरफ उठ गयी .वापस आकर कुछ देर उसी मचान पर बैठकर आराम से चारों के दृश्य देखते रहे. हरियाली को आँखों में बसा लेने का प्रयास. अब तक भूख  लगने लगी थी और वापस चैथम की फेरी पकड़नी थी.





गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

अंडमान - नार्थ बे में की पहली बार स्नोर्कलिंग

दूसरे दिन सवेरे सवेरे हम निकल पड़े अंडमान के एक और नज़दीकी टापू 'नोर्थ बे आईलेंड '.यह भी पोर्ट ब्लेर से साफ़ नज़र आता है. एबेर्दीन जेट्टी से खड़े हो कर देखने पर सीधे रोस आईलेंड है और बाईं तरफ थोड़ी और दूर पर नोर्थ बे. यहाँ पहुँचने में कोई २० मिनट लगा .नाव पर ही हमें कहा गया कि अगर स्नोर्केलिंग करनी है तो  ५०० रुपये प्रति व्यक्ति जमा करा दें. अंडमान के समुद्र के कोरल के बारे में बहुत सुन रखा था . सो तुरंत  पैसे दे दिए गए. यह भी पता चला कि समुद्र में जाने में डर लगता है तो ख़ास शीशे के तले वाली पारदर्शी नाव भी है जिसमें बैठ कर  कोरल का आनंद लिया जा सकता है.
नज़दीक आता नोर्थ बे टापू
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नोर्थ बे पहुंचे तो एक पतला समुद्र तट और बाकी सिर्फ जंगल दिखे. इस तट पर लोगों के लिए कामचलाऊ इन्तेज़ामात किये गए हैं,.टाट से ढके एक छोटा सा कमरा जिसमें लोग समुद्र में जाने से पहले कपडे बदल सकते हैं ,कुछ दुकानें चाय,ढाब ,वगरह के लिए. अगर कोई एक जोड़ी कपडे नहीं लाया है तो तीस रुपये में कपडे भी मिल रहे थे. समुद्र के खारे पानी से निकल कर १० रुपये बाल्टी में साफ़ पानी आपके ऊपर डालने का भी प्रबंध था . इन सबके बारे में बाद में चर्चा करेंगे लेकिन पहले लिया कोरल देखने का मज़ा .स्नोर्केलिंग गियर और लाइफ जैकेट पहनकर  हम चार लोग ने एक दूसरे का हाथ थाम लिए और एक का हाथ गाइड ने पकड़ लिया . फिर वह हमें ले गया समुद्र में. सिर पानी के  नीचे किया और दिखाई पड़े पहले तो भूरे मूँगों की बस्ती. जैसे जैसे आगे बढे कुछ रंगीन भी दिखने लगे. कोरल जीवित सूक्ष्म प्राणी होते हैं जो पानी से केल्शियम की एक सतह बना लेते हैं और बहुत ही सुन्दर लगते हैं. यह तट के नज़दीक ही पाए जाते हैं. इनकी बस्ती को कहते हैं रीफ. यह बहुत नाज़ुक होते हैं और इनकी सतह पर ज़रा सी खरोंच लगने पर इन्हें संक्रमण लग जाता है. पर अफ़सोस मैंने पाया कि हमारे गाइड और अन्य तैराक भी इन पर रख रहे थे. शायद तट के पास के मूंगे मर चुके होंगे.थोडा  आगे जाने पर रंगीन मछलियाँ भी दिखीं. तरह तरह के कोरल,कोई पत्थर की शकल लिए,कोई मशरूम, कोई फूलगोभी. पर मैं तो तैराक नहीं हूँ,सो मुझे थकान भी लगने लगी और हाँ,स्नोर्कलिंग करने में भी मुंह से सांस लेनी पड़ती है जो कि आसान नहीं. वापस तट पर आकर आराम से समुद्र में ही मौज मस्ती होने लगी. निकल कर वही १० रुपये बाल्टी के पानी से खारापन हटाया गया और फिर टाट की कुटिया में किसी तरह गीले कपडे बदले गए. बालू के बीच में ही एक कतार से छोटी छोटी दुकानें थीं.जब तक वापस ले जाने वाली नाव नहीं आयी तब तक वहीं बैठकर आराम से समुद्र का मज़ा लिया गया.तस्वीरों से दिखता है वह कामचलाऊ सैलानी स्थल.पीछे अंडमान वन विभाग की ज़मीन थी जहां सुपारी,आम की अदरक, वेनीला  के पेड़ थे.यहाँ जाना मना था. पर वहां तख्ती लगी थी इन सबके दाम की, सो उत्सुकता वश अन्दर पहुंचे.एक छोटी सी दुकान या फिर आफिस कह लीजिये .वेनीला की कुछ डंडियाँ,और अदरक खरीदी. वहां बैठे शख्स ने बताया इसे सवेरे खाली पेट खाने से गठिया  का इलाज हो जाता है. मज़े की बात तो यह कि आबादी से दूर बैठकर भी उसने हमें एमवे की दवाई खरीदने  की सलाह दे डाली !
अच्छा लग रहा था,समुद्र की मस्ती के बाद वहां बैठना ,पर आसपास देखकर बहुत दुःख हुआ.अंडमान सरकार ने यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा बचाने के नाम पर ,सैलानोयों के लिए कोई भी सुविधा नहीं दी है. कम से कम कपडे बदलने के लिए दो तीन पोर्ट केबिन ही लगाए जा सकते थे. कपड़ों से छाये कमरे में असुविधा हुई और मज़ा आधा हो जाता है. यही हाल अन्य जगह का भी था चाहे वह ह्वालौक टापू हो या फिर बहुत ही सुंदर  ' जौली  बॉय '. सैलानियों से आखिर कमाई सरकार को भी और वहां के लोगों को भी होती है तो फिर कुछ बुनियादी सहूलियतें तो मुहैय्या कराने उनका फ़र्ज़ है. यह भी इस तरह से कि कुदरत को नुकसान भी न हो और सबका काम चल जाए.
अंडमान यात्रा में वहां के अन्य  समुद्र तटों को देख कर महसूस हुए कि नार्थ बे जाना व्यर्थ ही था और काफी महंगा भी .इससे अच्छा  हेवालोक  और जौली बॉय देखिये और इसे अपने दौरे में न शामिल किया जाए तो भी ठीक है.






मंगलवार, जनवरी 25, 2011

अंडमान यात्रा ..काला पानी जहाँ आज़ादी के सिपाही को मिला धरती पर नर्क

५७२ द्वीपों में सिर्फ ३८ ही आबाद हों. बाकी सब जगह सिर्फ जंगल ही जंगल. अंडमान -निकोबार द्वीप समूह ऐसा ही है जहां प्रकृति  की छटा हर तरफ बड़ी ही उदारता  से दिखाई देती है. बड़ी ही नरमी से बात करने वाले लोग, आराम से चलती ज़िंदगी ,समुद्र का साथ ,पेड़ों से दोस्ती ,इस जगह को नायाब बना गयी है. पहले दिन रोस टापू का दौरा किया और शाम को सेल्युलर  जेल यानी भयावह काला पानी . दिन में इसे हमने अगले दिन देखा. ह्रदय में इतना तूफ़ान ,इतनी तड़प  इसे देखते समय महसूस हुई कि बयान करना मुश्किल  है  . भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने यहाँ ऐसा जेल बनाया जिससे बाहर निकलना नामुमकिन था. समुद्र के किनारे ,जंगलों के बीच मुख्य भारत से दूर ,उन्होंने स्वंत्रता संग्राम के सेनानियों  को यहाँ अपने घर परिवार से दूर निर्वासित किया. १८९६ में इस जेल का निर्माण शुरू हुआ और इसमें काम करने वाले वही बहादुर सिपाही  और आसपास के टापू पर बने जेलों के बंदी थे  ,जिन्हें आजीवन कारावास की सजा के तौर पर यहाँ भेजा गया था. १९०६ में यह बनकर तैयार हुआ . इसका नक्शा इस तरह का था कि एक  मध्य बुर्ज को केंद्र मानकर सात खंड बाहों जैसे बाहर निकलते  हैं. एक खंड का पिछवाडा दूसरे खंड के सामने है जिससे कैदीयों की  आपस में कोई भी बातचीत न हो  सकें. अब तो सिर्फ तीन खंड ही बचे हैं. इसके दो खंड पहले अंग्रेजों ने गिरवा दिए और दो बाद में भारतीय सरकार ने. पर अब इसे राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया गया  है . कारागार बनाने वालों का मानना था कि
"prison regime must be punitive and humiliating even more dreadful than hangman`s noose" so as to employ deterrence through fear both against those subjected to it and for the `potential dangers`
इसके अन्दर पहुँचने पर दोनों तरफ कमरा है जिसमें वहां जिन वीरों ने समय बिताया था और उस जेल के विषय में  प्रदर्शनी है. वहां पर दिए गए कष्टों को हम रात के शो में देख चुके थे.उनकी तसवीरें देखकर दिल दहल गया . पैरों में पड़ने वाली बेड़ियाँ,सजा के तौर पर पहनाई जाने वाले  बोरे के कपडे आदि. वहां से निकल कर अन्दर पहुंचे कारावास के प्रांगण  में. नज़र पडी कोड़े मारने वाली जगह पर. यहाँ पर कैदियों को बांधकर कोड़े मारे जाते. बीच में बना था एक कोल्हू. बैल की जगह  यहाँ के  बंदी   उसमें बांधे जाते और तेल निकालते . सामने एक ऊंची कुर्सी पर दरोगा बैठ कर उनको  चौकसी रखता . कई लोग इस में घायल हो जाते.  आखिर स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने वालों को इतना अपमान असह्य हो जाता . यही तो अँग्रेज  चाहते थे. बौद्धिक और शारीरिक स्तर पर स्वतंत्रता  के वीरों  को तोड़ देना.राजनीतिक कैदियों,हाथ में कलम से लड़ाई  करने वालों,  युवा अवस्था में पदार्पण कर रहे साहसी क्रांतिकारियों  के साथ अमानवीय ,अविश्वसनीय क्रूर व्यवाहार होता था.








तीन मंजिला जेल ,कालकोठरी की एकाकी सजा के लिए बना था.
बुर्ज से चारों ओर पहरा आसानी से दिया जाता था .एक भाग केदूसरे मंजिल पर वह कमरा भी देखा जिसमें वीर  सावरकर को रखा गया था. इस कमरे से सीधे वह जगह दिखती थी जहाँ मृत कैदियों का अंतिम संस्कार होता था. शायद वीर सावरकर को मानसिक यंत्रणा देने के लिए ही उन्हें इस कक्ष में रखा गया. नीचे आकर फिर देखा वह स्थान जहाँ फांसी दी जाती थी . उसे देखकर खौफ सा लग गया . न जाने क्यों उस की फोटो खींचने में हाथ कांपने लगे. काला पानी  के कारावास को देखकर एहसास हुए कि जिन्होंने अपनी जवानी ,अपनी ज़िंदगी आज़ादी के लिए कुर्बान कर दी , उनकी दी गयी विरासत को हम कितनी लापरवाही से रख रहे हैं. एक दिन पहले आपस में यह बहस छिड़ी थी कि क्यों ब्रिटिश काल के नामों को बदल कर हम हिन्दुस्तानी नाम दे रहे हैं. एक बार को मुझे भी लगा कि नाम नहीं बदलने चाहिए,वह भी हमारा इतिहास है ,अच्छा  या बुरा. पर फिर काला पानी के उस स्मारक को देख कर लगा कि जिन्होंने इतनी असह्य  तकलीफें हमारे देशवासियों को दीं ,उनके नाम पर अपने   देश में क्यों कोइ जगह,कोइ सड़क,कोइ शहर ,कोइ स्टेशन रहे.



      

मंगलवार, जनवरी 18, 2011

अंडमान की यात्रा ..जहाँ अभी भी नैसर्गिक सौन्दर्य रिझाता है.

इस वर्ष तय हुआ कि साल की शुरुआत कहीं सैर सपाटे करते हुए,घर से दूर करेंगे.सो पहुँच गए ठण्ड से निजात पाने पोर्ट ब्लेर , भारत का एक खूबसूरत शहर .वैसे तो इंडियन एरलाईन के कारण शुरुआत काफी  रोमांचक हुई ,यहाँ तक  की ऐसा लग रहा था कि हमें   घर वापस जाना होगा. हवाई अड्डे पहुँचने पर बताया गया कि जिस प्लेन में हमारा टिकट है वह तो भर चुकी  है और हमें बैठाया नहीं जाएगा. लेकिन उस में भी एक मोड़ था.हमारे ६ सदस्य के परिवार दल के तीन सदस्यों को उन्होंने बोर्डिंग कार्ड दे दिया था . तो आधा परिवार चेन्नई में और आधा दिल्ली में.खैर कुछ बहसबाजी कर हम बाकी तीन भी चेन्नई पहुँच गए , रात के बारह बजे.
पर सवेरे  पोर्ट ब्लेर का जहाज समय पर चला और हम ८ बजे के करीब एक सुन्दर हरे  भरे शहर में पहुंचे.सर्किट हॉउस में ठहराने का प्रबंध था .फिर शुरू हुआ प्राकृतिक सौन्दर्य और इतिहास के संगम का सफ़र . दोपहर बाद हम गए पोर्ट ब्लेर से कुछ  किमी दूर   रॉस टापू. एबरडीन जेटी  से ही यह ऐतिहासिक द्वीप दिखाई पड़ता है. वहां के लिए जहाज जाते हैं और उसी दिन वापस भी आना पड़ता है.आख़िरी जहाज ४.३० बजे हमें वापस ले आया. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में ५७२ द्वीप हैं जिनमें सिर्फ ३८ ही आबाद हैं. बाकी जंगल ही जंगल.
रॉस टापू पर पहुँचते ही लगा कि हम इतिहास के पन्ने पलट रहे हैं. जहाज से उतारते ही एक जापानी युद्ध काल का  बन्कर दिखा.
रॉस आईलैंड का इतिहास रोचक है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने  स्वतंत्रता सेनानियों और बंदियों को अंडमान भेजने का निर्णय किया . रॉस आइलैंड को संचालन केंद्र बनाया गया और यहाँ चीफ कमिशनर का दफ्तर बना . आज रॉस टापू एक दम वीराना है. भारत की नौसेना का यहाँ एक अड्डा है और उस ने यहाँ एक छोटा म्युसियम बना है. पर एक ज़माना   था जब यहाँ  चहल पहल थी  और चीफ कमिश्नर का खूबसूरत   बंगले में  बॉलरूम  था ,एक सुन्दर चर्च ,वाटर ट्रीटमेंट प्लांट , अस्पताल,छापाखाना ,बाज़ार,बेकरी आदि सब थे. अब सिर्फ इनके खँडहर दिखाई पड़ते हैं. लेकिन खंडहर बताते हैं इमारत की बुलंदियों की कहानी . शानदार चर्च  अब टूट फूट गया है. इमारतों के खँडहर में वहां पाए जाने  वाले वृक्ष की जड़ों ने जकड लिया . जैसे कि बीते ह्युए कल से बदला ले रहे  हों  , भारतीयों  पर किये गेये ज़ुल्मों का.
 एक कब्रिस्तान भी दिखा .अंग्रेजों के ज़माने में पूर्व का पेरिस कहा जाता था यह टापू. १९४२ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों ने अन्य अंडमान के द्वीपों की तरह  यहाँ भी कब्जा कर लिया और १९४५ में यह वापस अंग्रेजों के पास आया. जापानी आवास के समय नेताजी भी यहाँ पधारे थे और यहाँ के मुख्यालय पर भारतीय झंडा लहराया था . लेकिन १९४५ के बाद अंग्रेजों ने इसे त्याग ही दिया और पोर्ट ब्लेर में अपना मुख्यालय  स्थापित किया.




वहां पहुंचकर , नौसेना सबसे एक रजिस्टर में नाम दर्ज करवाती है और २० रुपये प्रवेश शुल्क है. घूमते रहे और देखते रहे इतिहास को. पेड़ों की भरमार तो है ही,लगता ही नहीं यहाँ कोई रहता है. हिरन के झुण्ड घूमते नज़र आयेंगे और अगर आप हाथ बढ़ाकर बिस्किट दें तो कभी अपनी झिझक छोड़ कर  आपके नज़दीक भी आ जाते हैं..
चर्च की पीछे की तरफ है एक छुपा   हुआ समुद्र तट  'फेरार बीच' .कम लोग वहां तक जाते हैं इसलिए बड़ा अच्छा लगा वहां बैठना .समुद्र में लटकती पेड़ की एक शाखा पर हम डगमगाते, डरते जा बैठे. पेड़ों के बीच पगडंडियों  पर,खंडहरों के इर्द गिर्द  घूमते वापस जाने का समय हो गया . सोच कर लगा कि कैसे एक भरा पूरा कस्बा अब सिर्फ सैलानी आँखों  की कौतुहल का विषय रह गया है .