गुरुवार, नवंबर 01, 2012

दीपावली

दीयों की जगमग से चौंधिया जाए जब आँगन मेरा
हंस कर बोले प्रतीक्षारत मैं कब से सूना
रंग रंगोली, दीप दीवाली
हर कोने की सुध बुध ले लो। 

एक दिया हो या हो लाखों  की हो  झिलमिल
राह तकती  घर की देहरी बोले मैं भी कब से यहीं
लीपी पुती सफेदी की चादर ओढ़े 
लक्ष्मी पाँव निहारूं एकटक। 

लड़ियों की माला पहने मुंडेर ने झाँक कर नीचे देखा
इतराती देहरी, मतवाले आँगन  से बोला
ऊपर भी मुझे निहारो
जगम ,मगन आज  सूनी माँग !

चारों दिशाओं में  फैले ज्योति, 
पथ  हो जाएँ आलोकित
हर घ ,हर ह्रदय  में हो ऐसा उजियारा
निराश आँखों में  चमक  
हताश सांसों में आशा
शुभ दीपावली  की अभिलाषा !      

सोमवार, अक्तूबर 22, 2012

पिकनिक

तितलियों  के पीछे पीछे
पेड़ों की छाँव के नीचे 
मखमली घास के गलीचे 
हम अपनी मस्ती से सींचे !

गुनगुनाते स्वरों की लहरी 
गदगद हो जाए   दोपहरी
मन में लहर उठे  गहरी 
यह   घड़ी बस रहे  ठहरी  !

शारदीय सुबह  की हौली ठंड
सब संगिनियों का हो संग 
तो मन करे बस एक पुकार 
आपसे  आने का  मनुहार !

गुरुवार, सितंबर 13, 2012

उम्मीद अभी कायम है

उम्मीद की एक किरण सूरज की रोशनी से भी ज्यादा प्रभावी हो सकती है। जीवन को दिशा देने में ,अँधेरे में रास्ता दिखाने में ,या फिर कोई मंजिल को उजागर करने में . नन्हे बच्चों का स्कूल है उम्मीद एक विद्या किरण। यह वो बच्चे हैं जिनके माता पिता की नौकरी हमारे घर में काम काज करना है।
स्कूल चलता है 1 से तीसरी कक्षा तक। यह तय हुआ की हब सब मिलकर हफ्ते में एक दिन कुछ ऐसा करें की इन बच्चों को भी एक बेहतर शिक्षा मिले .जो वह अपनी स्कूल के शिक्षकों से सीखते हैं उसके अलावा उन्हें कुछ  अधिक ज्ञान मिले। 
इसी सिलसिले की एक कड़ी के रूप में मैं भी पहुँची उम्मीद। सोचा क्या सिखाया  जाए। पूछा महाभारत के बारे में सुना   है तो जवाब न में मिला .ऐसा लगा बच्चों को ऐसी कहानी सुनायी जाये जो इन्हें अच्छी भी लगे और कुछ सन्देश भी मिले। अर्जुन और चिड़िया की आँख वाली कहानी याद आयी .सुनाना  शुरू किया। इस स्कूल में एक ख़ास बात है की कक्षा दो के सब बच्चे एक उम्र के हों ऐसा ज़रूरी  नहीं .कक्षा इस बात से तय होती है की  बच्चे ने कब पढाई शुरू की .मैंने दूसरी और तीसरी क्लास के विद्यार्थियों को लेकर यह दास्तानगोई का सिलसिला रखा था . पर उसमें कुछ बच्चे बहुत छोटे थे या फिर अच्छे स्कूलों के हिसाब से सही उम्र के,पर कुछ बच्चे बड़े भी थे। 
कहानी सुनाने में ख़ासा मज़ा आया .पर उससे ज्यादा मज़ा आया उस घटना का नाटय  रूपांतर  करने में।किसको अर्जुन बनाया जाये,किसको द्रोण ,किसको भीम और कौन पेड़ हो इसमें सबने अपना हाथ भी उठाया और किरदार के अनुरूप सुझाव भी दिए।भीम के लिए थोडा हट्टा - कट्टा बच्चा लिया गया तो  दुर्योधन के  लिए बच्चों ने अपने सबसे लड़ने वाले  साथी का नाम सुझाया .पांडवों और कौरवों की विशेषताओं से उनको थोड़ा परिचय हो गया था .एक बच्चा पेड़ भी बन गया .उनके अध्यापक एक छोटी मिट्टी की चिड़िया  भी ले आये .
पूरी कहानी का मंचन हुआ . आशा करती हूँ की इस लघु कथा से कुछ सीख मिली होगी ,जो अभी नहीं तो बड़े हो कर शायद काम आये .वैसे  सिर्फ सीख की ही बात नहीं है। कुछ किताबों के अलावा भी जानने को मिलता है तो हमेशा फायदा ही करता है। 

अब अगली बार के लिए कुछ तैयारी  करनी है। 


सोमवार, अगस्त 20, 2012

गोल्फ

          आजकल एक नया जुनून  चढ़ा है ,गोल्फ सीखने का . गोल्फ कोर्स पर तरह तरह के बोर्ड लगे हैं।  सबसे पहला हमें सवाधान करने के लिए है. ' गोल्फ एक प्यार की तरह है ,अगर आप उसे तवज्जुह  न दें तो  मज़ा नहीं है  , और अगर बहुत संजीदगी से खेलें तो दिल तोड़ देता है '.  शायद यही गोल्फ की सच्चाई है।
         मैंने भी शुरू किया सीखना . हर रोज़ सवेरे पहुँच जाती कोर्स पर शुरुआती कक्षाओं के  लिए। हर दिन यह बोर्ड  पढ़ती और सोचती ऐसा क्या है इस गेम की जो एक बार इसे  पकड़ता है,वो दीवाना हो जाता है। कुछ दिन छोटी सी गेंद मारते मारते ,पता ही नहीं चला कि  कब दिल में ऐसी जगह बन गयी कि उस टुक टुक  कर गेंद को मारने भर के लिए सवेरे उठना  एक दिली विविशता बन गयी। साथ में एक ट्रेनर और कैडी  है। कैडी है या बेचारा मेरी बेतहाशा इधर उधर पड़ती  और मेरे खेल को देखने  का कैदी ! क्लब पकड़ने का  तरीका उसने सिखाया और फिर कैसे सिर्फ हाथ को  ले जायें शरीर  को नहीं ,ऐसी असंभव सी ताकीद दी। जब   रखा और क्लब घुमाया तो  सरसराते हुए क्लब तो घूमा ,पर गेंद वहीं की वहीं ! ट्रेनर ने ताकीद दी  आप गेंद को देखते रहें   नज़र मत उठाएं . नज़र नीचे ही रखी  तो फोलो थ्रू ठीक नहीं था  . तौबा ! एक अदद गेंद को सही तरीके से मारना इतना भी आसन   नहीं। पर विडम्बना थी कि अगले दिन फिर पहुँच गए सीखने .
         आइरन ,क्लब,चिप ,पट ,होल ,टी ऑफ़ ,इन सबसे तो परिचय हो गया . पर 18 होल के कोर्स  जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही  हूँ .कहते हैं,गोल्फ का खेल तो आसन है,पर उसे खेलना मुश्किल .  

शनिवार, अगस्त 18, 2012

गुलज़ार ..... जन्म दिन की बधाईयाँ

हवा में तैरते किसी कण किसी क्षण  को आपने देखा 
बस उस देख भर से,
एक कविता,एक गीत ,एक कहानी निकल पड़ी. 
हर शब्द आपके स्पर्श का मोहताज ,
हर ज़र्रा इंतज़ार में है
कब आप उधर जाएँ
और अपनी हर  अनदेखी हरकत से 
वह भी वाकिफ हो जाए 

यह सिलसिला  बना रहे हमेशा ,
बहुत बेजान गुलज़ार होने हैं.
जन्म दिन की बधाईयाँ 

शुक्रवार, मार्च 30, 2012

सिम्बा

आज सिम्बा बहुत  नाराज़ है.घर में मेहमान आये हैं और उसे हमने बाहर छत  पर भगा दिया है. वह जाली के दरवाज़े से सबको देख तो रहा है पर चाह कर भी अन्दर नहीं आ पा रहा है. उसे सबके साथ बैठना बहुत पसंद है. सबको हेलो कर वह अपने एक किनारे बैठ जाता है. पर कुछ लोग हैं जो उसके बड़े शरीर को देख डर  जाते हैं.उसके अन्दर  के कोमल दिल को नहीं देख पाते हैं. अमूमन ,उसकी डीलडौल  से उसके नाज़ुक गर्मजोश   दिल को पहचान पाना ज़रा मुश्किल होता है. पहली नज़र में कोई भी सहम जाता है. सिम्बा के समझ से यह बात परे है.वह तो गले मिलकर सबका अभिवादन करता है ,और सबसे थोड़ी जानपहचान हो जाने पर , अकेले ही बैठना पसंद करता है. पर अभी वह इसी बात से दुखी है और गुस्सा भी.आखिर उसे क्यों सबसे मिलने नहीं दिया जा रहा ? उसे कौन समझाए की घर आया महमान उसके साथ मेलजोल बढ़ने में हिचक रहा है .
मुझे पता है क्या होने वाला है.मेहमान तो चले  जायेंगे और सिम्बा मुंह फुलाकर नाराज़ हो जाएगा.फिर लाख मनाने पर भी वह अन्दर नहीं आने वाला. मैं उसे बुलाने जाउंगी तो मुंह फेर  लेगा . अन्दर आएगा पर अपने हिसाब से. वह एस ही करता है अगर उसकी कोई भी ख्वाहिश पूरे करने में ज़रा देर हो जाए. सवेरे उठाकर उसे घूमने जाना पसंद है.घड़ी में ठीक छह बजाते ही वह हमारे आसपास चहलकदमी करने लग जाता है. जब तक हम कपडे बदले ,जूते पहने तब तक तो ठीक पर अगर कुछ भी और काम करने लगे तो सिम्बा जी नाराज़.फिर बहुत मनाना पड़ता है उन्हें बाहर चलने के  लिए. ऐसा ही करता है जब उसे सवेरे की दूध रोटी समय से नहीं मिलती .जैसे ही घूम  कर वापस आया  तो सीधे अपने  खाने की प्लेट के पास पहुँच जाता है. मैं  कहती हूँ  की थोड़ा तो समय लगेगा घर के अन्दर आकर तुम्हारी दूध रोटी डालने में पर वह बेसब्र है .कुह्ह देर रसोई  के सामने खड़ा रहेगा और फिर अगर मैंने नहीं दिया  तो मुंह फुलाकर वहीं ज़मीन पर लेट जाएगा. और फिर जब उसका मन करेगा तब सुबह का नाशता करेगा .
 वैसे उसे घूमना पसंद है.हम उसे घुमक्कड़  कहते हैं. घुमक्कड़ और खोजी .जब तक सूंघ सूंघ कर किसी चीज़ की पूरी जानकारी नहीं ले  लेता उसे चैन नहीं . उसके साथ घूमने का मतलब है हर एक कदम पर रुकना.वह उस जगह को सूंघेगा और कभी कभी तो मुझे लगता है किसी गड़े खजाने की महक लग जाती है उसे.सूंघेगा ,एक पैर से ज़रा ज़मीन खोदेगा ,फिर सूंघेगा और आगे बढ़ने को राजी नहीं. जब उसे तसल्ली हो जाती है की उस जगह की हर खुशबू-बदबू से वह वाकिफ हो गया है तभी आगे बढ़ता है. यह घड़ी घड़ी रुक रुक कर सैर करने में सिर्फ उसे ही मज़ा आ सकता है. उसे कार में बाहर जाना भी पसंद है. अगर हम कार से कहीं जा रहे हों ,ख़ास तौर से दूसरे शहर तो हम कोशिश करते हैं की ऐसी जगह रहे जहां कुत्ते को भी साथ रखने  की इजाज़त हो. वह कार में पीछे बैठकर पूरे सफ़र का मज़ा लेता है. कभी खड़ा हो जाता है,कभी सीट पर बैठकर , खिड़की से मुंह चिपकाकर बाहर देखता रहता है. रास्ते  भर हम लोगों के आकर्षण का केंद्र रहते हैं. आने जाने वाला ट्रेफिक,गाडी में इतने बड़े कुत्ते को देख कौतुक होता है. यात्रा के बाद घर वापस आने पर हम सब थके हो सकते हैं पर सिम्बा नहीं.उसे गाडी से उतरने में कोइ दिलचस्पी नहीं रहती है.बल्कि उतर कर अपना थोड़ा इधर उधर घूम कर वह फिर गाडी के पास खड़ा हो जाता है !हमें लगता है कि पीछे छोटी जगह में वह बड़ा बंधा सा महसूस कर रहा होगा और लम्बे सफ़र में थक गया होगा.पर सिम्बा तो उतरने को राजी नहीं.
वैसे अगर हम ऐसी जगह जा रहे होते हैं जहां सिम्बा को ले जाना संभव नहीं तो उसे घर पर छोड़ना ,अपने बच्चे को छोड़ने के बराबर होता है. जैसे ही हम सूटकेस वगैरह बाँध रहे होते हैं ,या जूते पहने कि सिम्बा को आभास हो जाता है कि हम कहीं निकलने वाले हैं.वह भी पूंछ हिलाता आसपास मंडराने लगता है. पर अगर उसका सामान न रखा गया तो उसे पता है कि वह तो साथ नहीं जा रहा . हम तो भावुक रहते ही हैं ,सिम्बा भी मायूस हो कर पूंछ नीचे चिपका कर रोनी सूरत लिए बैठ जता है.
कसौली में सिम्बा 

कैमरे के लिए पोज़ 
गजब का जज्बाती है . कहीं से बहुत दिनों के बाद आने पर वह ऐसे मिलता है जैसे न मिलने की आशा पर दुबारा मिल जाएँ.बेतहाशा चिपक  कर,गले लग कर वह आपके वहां होने का  एहसास    अपने में समेटता है. लाड प्यार जता कर ,तसल्ली कर कि वाकई आप हैं,फिर वह चुपचाप एक कोने में बैठ जायेगा. पर रह रह कर वह आकर प्यार करता है कि इस बीच आप चले तो नहीं गए.
अभी तो उसे बुखार है  सर्दी खांसी,गला खराब. छोटे बच्चे की तरह वह गोद में बैठा  रहा . गले में खराशहै  ,खाना भी नहीं खा रहा है.जिद है कि मैं अपने हाथ से उसे खिलाऊँ. सहलाती रहूँ ,उसके बालों में हाथ फेरती रहूँ.मेरे  पीछे पीछे घूम रहा है. जल्दी से ठीक हो जाए तो चैन आये . डोक्टर के पास ले गयी.कल उसे सुई लगी तो कुछ नहीं बोला .पर आज दुबारा जब ले गयी तो उसे दर्द याद आया और थोडा छिटकने लगा.
सिम्बा सेंत बर्नार्ड है .बड़ी कदकाठी का ,बेहद ही कोमल मिजाज़ का  ,भावुक ,स्नेहपूर्ण नस्ल का प्राणी है.अब हमें तलाश है उसकी हमसफ़र की .







सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

कुदरत का जादू उतरता ही नहीं

 सोचती हूँ  कि शहर में रह कर भी ऐसी जगह रहना जहाँ  हर सवेरे नंगे पाँव ओसमयी घास पर चलने का आनंद मिले और हर शाम, छोटी छोटी क्यारियों के बीच बैठकर चाय का लुत्फ़ उठाया जाए,यह खुशकिस्मत होने  की इन्तिहा होती  है। बचपन से युवावस्था तक घर शहर में होकर भी ऐसी कालोनी में था जहां पेड़ों के पत्तियों  से झांकते मकान दिखाई देते और शाम को मोर भी कभी कभी मेहमान हमारे होते।  कुदरत से यह नजदीकियां, बचपन के दिनों की सबसे सशक्त यादें  है। सावन के अंधे को सब हरा ही दीखता है। मुझे ऐसा लगता है की  वही सावन का अंधापन मेरी आँख में बस गया है। आज उस घर को छोड़े करीब बीस साल होने को हैं पर जब भी अपने शहर की याद आती है,  तो वही हरियाली सामने रहती है। बड़ा ही सलोना सा  किचन गार्डन  था। न बहुत बड़ा न बहुत छोटा। इतना बड़ा की कई तरह के पेड़ उसमें लगाए गए थे पर इतना छोटा  की अपनापन लगे।  दो दशहरी  आम के  पेड़ थे ,जो हमसे पहले उस घर के निवासियों ने  लगाए थे और  फल हमने खाए।  मज़े  की बात यह थी की वह  हमारे घर की चहारदीवारी के पास ही लगे थे। तो लाजिमी था की रास्ते चलते लोगों की नज़र उन पर लटके बड़े बड़े आमों पर पड़ ही जाती। गर्मी की दोपहरी में माँ उसकी रखवाली करतीं। और अगर कोई बच्चा उन आम को तोड़ने की हिमाकत करता तो उसपर बरस पड़तीं।  रसोई घर का  एक दरवाज़ा इन खेतों में खुलता।  मुझे अभी भी याद है,धनिया की चटनी बननी है तो तुरंत धनिया तोड़ी जाती।  उसका स्वाद कुछ अलग ही होता। या फिर नलके के पास से पुदीना हाथों हाथ मिल जाता।
केले का वह झुरमुट,जो इस तरह से बना था कि  बीच में थोड़ी सी खाली जगह थी।  मैंने अपने दसवीं और बारहवीं के इम्तिहान इसी झुरमुट के बीच पढ़कर दिए। पापा आफिस से आते तो जितने भी थके हों खुरपी उठाकर कुछ गुड़ाई कर लेते तो थकान दूर हो जाती।  कोई घर में नाराज़ है तो उसको यहीं कहीं किसी कोने में ढूँढा जाता।वह  या तो  कोने में जामुन के पेड़ के नीचे बैठा होगा या फिर किसी अमरूद के पास। अमरूद के भी चार  पेड़ थे। 

हम लोगों ने तो इस प्रकृति को अपने मन में बैठा ही लिया था पर  कुदरत के साथ  पच्चीस सालों का जो सबसे यादगार पल थे वह मिले  जब अगली  पीढी  आयी। बहन का बेटा, मानस , दो या तीन साल का रहा होगा।  वह घर आता तो उन्हीं खेत की पगडंडियों पर सारा समय गुजारता।  पापा के साथ पौधों में पानी डालना उसका  प्रिय काम था।  पानी नहीं भी पड़ना है तो भी वह आकर  कहता ,"नाना,पेड़  सूख  रहे  हैं,पानी डाल दीजिये  !' नाना बोलते ,"अरे  अभी तो सींच  दिया  है। "  जवाब में ,"पर कुछ जगह आपने छोड़ दी है, लाइए मैं ठीक से सींच देता हूँ।  आप  थक   गए होंगे। "  
चित्र  में वह नाना की मदद करते हुए , उनसे पाईप छीनकर  खुद  सिंचाई करने  की कोशिश  कर रहा है.

ऐसे  ही याद है जब उसे अमरूद पेड़ पर लटके दिखते। संयोग  से कुछ अमरूद की डालें इतनी झुकी थीं की उसकी छोटी सी पकड़  के पास थीं। उसका अमरूद खाने का अंदाज़ निराया था।  तस्वीर उसी अंदाज़ को बयान  करती है। 


शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

कहीं समान्तर

दिल का  एक कोना था बिलकुल सन्नाटे में, शांत। किसी को खबर नहीं, कभी कभी उसे भी नहीं.
 पढाई पूरी कर, पहली नौकरी   लगी थी। उत्साह था लगता  खजाना मिल गया।  पर अब तक घर के रुई के फाहों के बीच सिमटी दुनिया छोड़  दिल्ली पहंची तो वह  "मिडल टाउन  गर्ल"  बड़े शहर में गुमसुम सी हो गयी। लोगों के बात करने का तरीका अलहदा ,शहर की तेज़ी उसके छोटे शहर के नर्म भावों से कोसों दूर।  वह भी  अपनी हकबक छुपाते हुए , स्मार्ट दिखने की कोशिश में लगी थी।  अभी तो ट्रेनिंग का समय था।  वहां तो ठीक,काम से काम रख हर बात का संक्षिप्त जवाब दे लेक्चर पर ही तो ध्यान देना था।  तमाम जगह से सहकर्मी थे। थे तो सब उसी के हमउम्र,पर सब के मिज़ाज अलग।  देख कर पता चल जाता कौन कैसा है।  उसकी तरह और भी शांत थे,शायद छोटी जगह तो नहीं पर हाँ घर से पहली बार निकले हुए।  कुछ ने पहले भी कहीं नौकरी की थी,उनके लहजे में उसकी ठसक थी.
चाय का ब्रेक हुआ।  अब तो लाउंज में मिलना जुलना ही पडेगा।  हाय हेलो करते,मुसकराते,  फिर  आदतन   भीड़- भाड़ और स्माल टॉक की दुनिया में वह असहाय सी अकेले पड़ गयी। शुरुआती अभिवादन तक तो ठीक था पर उसके बाद  कुरेदती अपने आप को,अब कहें तो क्या कहें।  पहली बार मिल रहे लोगों को स्कूल,कालेज,पढाई के बाद क्या बताएँ।  हमेशा यही तो होता आया है अभी तक।   न जाने कहाँ से लोग करते  हैं इतनी बातें।  किस बारे में अपनी राय जग जाहिर करते हैं।  क्या पूछे दूसरों से ; लगता जैसे पूछताछ कर रही हो। 
चाय का कप,एक अदद  बिस्किट और इस भरे कमरे में वह खामोश, सोचती बाकी क्या सोच रहे होंगे  उसके बारे में। कोई नज़दीक आता तो एक मुस्कान से हैलो  और फिर अकेले। 
इधर उधर,सबको वह अपनी नज़र से परखने की कोशिश कर रही थी। " हैलो ,एक हाथ बढ़ा। एक मुस्कान दिखी. "मैं....हूँ .".सकपका कर उसने देखा। लम्बे गोरे चेहरे पर वही खोया हुआ भाव ,जो शायद उसके अपने चेहरे की शिकन में दिख रहा था। वह भी मुस्कराई। परिचय दिया, और फिर दोनों हमफितरत की तरह  चुप. "नाईस टू मीट यू", और आगे बढ़ गया। 
आफिस के ही  किसी दफ्तर में वह भी था ,पर दूर किसी शहर में. पोस्टिंग, काम,दोस्त सब बने ,पर उसका वह कोना कोइ नहीं देख पाया। न वह फिर मिली उससे। कभी किसी कागज़ पर नाम देखती तो सहम जाती। लगता कोई उसकी चोरी न पकड़ ले।  उसको तो याद भी नहीं होगा की वह उससे  कभी मिला भी था। वह भी तो कैसे निपट गंवार की तरह सिर्फ मुसकरा भर दी थी। 
१५ साल में प्यार किया,शादी,बच्चे ,ज़िंदगी का अपना चक्र चल रहा था.... १ साल हुए  तबादला  हेड आफिस हो गया।  मीटिंग है। उसी कान्फरेन्स रूम में चाय के कप और एक ग्रुप के साथ कुछ कामकाज की बातें।  और फिर पुरानी आदत से मजबूर।  " हेलो अब कैसी हैं आप ! " उसे  अपनी 40  साल की सारी परिपक्वता की मदद लेते हुए, चेहरा लाल होने से रोका.. ओह तो वही कोना वहाँ  भी !


सोमवार, जनवरी 23, 2012

गुमनाम गलियों में भी मिलते हैं मील के पत्थर कई !

दिल्ली क्या देखी अगर सिर्फ कुतुबमीनार ,लाल किला या हुमायूँ का मकबरा भर देखा.इस शहर में देखने को इतना कुछ है ,बहुत ऐसा जिसके  बारे में आमतौर से हम जानते ही नहीं. देहली से दिल्ली तक  में दिल्ली दरबार के सौ साल पर राजधानी की सात पीढ़ियों के बारे में जानने का मौका मिला. क़ुतुब मीनार बनवाने वाले क़ुतुब-उद-दीन ऐबक ने महरौली में राजधानी बनायी और यहाँ बनी बस्ती. पर क़ुतुब मीनार की मशहूर छाया में इसके आसपास की बस्ती नज़रंदाज़ होती गयी. इसके बारे में पता चला २००१-०२ में जाकर  .

कुली खान की कब्र से कुतुबमीनार 




  एक अनूठा मौक़ा मिला ,उन सबको देखने का ,वह भी एक जानकार के साथ. दिल्ली को जानने समझने का यह एक बढ़िया तरीका है. कनिका सिंह "डेल्ही हेरिटेज  वाल्क्स " नाम से दिल्ली के इस छुपे इतिहास से हमें रूबरू करवाती हैं. दो साल पहले मुझे इनके बारे में पता चला ,और तबसे हर सप्ताहांत सोचती रही इनके इस अभियान से जुड़ने के लिए. इस रविवार यह मौक़ा आया. प्रोग्राम था कुतुबमीनार से अलग महरौली घूमने का . सुबह ९.३० बजे इकट्ठा हुए अनुव्रत मार्ग में इसके प्रवेश द्वार पर. वैसे वहां कोई दरवाज़ा नहीं है,सिर्फ मेन रोड से एक कच्चा,पथरीला   रास्ता अन्दर जाता  है  . हमेशा की तरह मैं रास्ते से  आगे निकल गयी,घूम कर छतरपुर मेट्रो स्टेशन  के सामने से यू टर्न लिया ,और पहुंचे वहां जहां और लोग इंतज़ार कर रहे थे. फिर शुरू हुआ एक प्रबुद्ध दौरा उन खंडहरों का. 
खान शहीद की कब्र 
पहला पड़ाव था,बलबन के मकबरे का दरवाज़ा. पता चला इसके बाद जो साफ़ की हुई जगह दिख रही थी ,उसकी खुदाई एक साल पहले ही हुई थी. उससे पहले वह करीब चार पांच फुट मिट्टी के नीचे  नीचे दबा था. यह पार  कर पहुंचे बलबन के मकबरे .कब्र तो दिखी नहीं ,पर उसके वास्तु के बारे में पता चला की इमारतों में पहली बार True arch  मेहराब का प्रयोग यहाँ हुआ था. और साथ ही यह ही भारत के शिल्प का  पहला गुम्बद .गुम्बद तो रहा नहीं पर कैसे बना इसका अनुमान,वहां के पत्थरों से  लगाया जा सकता है. मामलुक  वंश के सबसे काबिल सुलतान बलबन , की मृत्यु जंग में नहीं हुई.वो टूट गए अपने प्यारे  बेटे खान शहीद की मौत से. खान शहीद की कब्र उनके मकबरे के बगल के कमरे में बनी  है और अभी तक सही सलामत मौजूद  है. अभी हाल ही के दिनों में ,आसपास के गाँव वालों ने इस पर अगरबत्ती जलाना  शुरू कर दिया है . शायद कुछ चमत्कार हुआ होगा ,या कोई मन्नत पूरी हुई होगी जिसने यह आस्था जगा दी ,  दीवार पर कुछ नीली टाईल के टुकड़े इस इमारत की खोयी  हुई सुन्दरता की  कहानी कहने की कोशिश कर रहे  थे.
जमाली कमाली की मस्जिद 
छत पर चित्रकारी 
वहां से निकल कर हम कुछ सीढियां चढ़ ऊपर पहुंचे जो शायद रहने की जगह थी. टूटी दीवारों से कमरे होने का एहसास हो रहा था .यहाँ से आगे  पहुंचे उस पुरातत्व उद्यान के सबसे मशहूर अवशेष जलाली कमाली के मस्जिद पर. चहारदीवारी के अन्दर पांच मेहराबों वाली मस्जिद ,जहां वज़ू  के लिए एक हौज़ बना था . मस्जिद के उत्तरी  तरफ तीन चार  सीढियां चढ़  , एक दरवाज़े से अन्दर जा पहुंचे जमाली कमाली के कब्र के आसपास के पाक अहाते में. सामने ही था उनका मकबरा .  सिकन्दर लोदी से हुमायूँ के समकालीन ,शेख फजलुल्लाह उर्फ़  जमाली सूफी फ़कीर और कवि थे.उनका मकबरा ख़ासा सुन्दर था. छत पर बढ़िया रंगों से और दीवारों पर रंगीन टाईल्स से चित्रकारी की हुई थी. ऊपर,चारोँ ओर, जमाली की रची कुछ पंक्तियाँ भी तराशी गयी थीं .  जमाली की कब्र बीच में थी और उनके एक ओर एक और कब्र . अनजान व्यक्ति की इस कब्र को कहा  गया है,उनके दोस्त की है और उन्हें  नाम दिया गया कमाली.वैसे अभी तक यह पता नहीं चल पाया है की जनाब कमाली की शख्सियत   क्या थी. आसपास की  तमाम जगह पर कई कब्रें दिखीं. यहाँ तक एक के ऊपर  तो छतरी भी बनी है.शायद किसी  ख़ास शख्स की होगी.
जमाली कमाली की कब्रें 
कुली खान का मकबरा 
मेटकाल्फ फोली 
बोट हाऊज़ से सूखी दरिया 
वहां से निकले तो पहुंचे  मुगलों के दरबार में ब्रिटिश रेसिडेंट थोमस मेटकाफ के घर . मेटकाफ ने मुगलों से महरौली का यह इलाका खरीद लिया था. इस में शामिल थे  यहाँ के  मकबरे ,मस्जिद,एक नहर सब कुछ . फिर उन्होंने इस में तब्दीलियाँ करनी शुरू कीं. टीले बनवाये  ,नदिया का रास्ता मोड़ एक केरिजवे बनवाया,लोदी काल की एक ईमारत  में फेर बदल कर  बोट हाउस बनवाया, बाग़ -बगीचे बनाए और नाम दिया दिलखुश ! यहाँ वह  वर्षा ऋतू का आनन्द लेने आते थे . कनिका कहती हैं यह दिल्ली का पहला फार्म हाउज़ था! अब तो महरौली के आसपास गाँवों की जगह फार्म हाउजों  ने ले ली है.  जमाली कमाली के पास में ही एक टीले पर है उनके द्वारा बनवाई गयी बारादारीनुमा मेटकाफ'स फ़ॉली  ' .यहाँ से नीचे उतरकर चले उस रास्ते जहां मेटकाफ    ने एक छोटी सी नदी की धार ही बदल दी और उसका बांधकर एक तालाब बनवाया . यहाँ से पहुंचे मेटकाफ के घर . पर यह घर वास्तव में कुली खान का मकबरा था. कुली खान ,अकबर ,की दाई माँ माहम  अंगा के बेटे आधम खान के भाई थे. आधम खान के मकबरे का गुम्बद दिखा,महरौली गाँव के घरों के बीच से,पर वहां जाना हमारी  इस सैर में शामिल नहीं था. कुली खान की कब्र वहां से हटा दी गयी और यह मकबरा बना मेटकाफ का घर .यहाँ से कुतुबमीनार भी पास दिखता   है .
राजों की बाओली 
अब था इस सैर का आख़िरी पड़ाव .इन सब से अलग एक बाओली .राजों की बाओली और उसके आगे गंधक की बाओली .हमने देखी सिर्फ राजगीर यानी मिस्त्रियों के लिए बनी राजों की बाओली . तीन  मंजिली ,नीचे तक पहुँचती सीढियां ,चारों ओर बैठने के लिए बने गलियारे  ,यह बाओली वाकई शानदार थी. कुछ देर सीढ़ियों पर बैठकर  उसकी कहानी सुनी  और फिर घूम कर ऊपर पहुंचे जहां बने थे एक १२ खम्बे की इमारत में एक कब्र और साथ एक  मस्जिद .इस मकबरे में साफ़ पता चल रहा था की नीचे एक चौकोर   चबूतरा  ऊपर पहुँचते पहुँचते कैसे गोलाकार हो जाता है और उसके ऊपर गुम्बद बनाना संभव होता है !निर्माण कला का एक पाठ मिला!
यह था एक सफ़र दिल्ली के कम लोकप्रिय पर उतने ही रोचक और ऐतिहासिक महरौली की बस्ती का. यहाँ दिल्ली पर राज करने वाले गुलाम वंश के बलबन से लेकर ,लोदी,मुग़ल वंश से होकर  ब्रिटिश काल की इमारतें और खंडहर माजूद हैं. सचमुच पन्ने दर पन्ने खुलता  इतिहास  !