गुरुवार, मार्च 15, 2007

खुमार

फूँक फूँक कर रख रहे थे कदम हम
हर कदम पर फ़िर यह तूफ़ान कैसा

कहते हैं वक़्त मिटा देता है ज़ख्म
हर ज़ख्म का अब तक यह निशान कैसा

बहुत संभाल कर रखा था दामन हमने
उसके हाथों में मेरा यह आंचल कैसा

बद रखा था पलकों को भींच कर हमने
फिर ख्वाबों का इनमें यह घुसपैठ कैसा

न पी है न पिलायी है कभी हमने
फिर छाया है अजब सा यह खुमार कैसा .

सोमवार, मार्च 12, 2007

कृष्ण अर्जुन

मैंने गीता पूरी कभी नहीं पढी .मुझे संस्कृत का इतना ज्ञान नहीं है कि उसका आनन्द ले पाऊँ.जो भी जानती हूँ वह बचपन में माता पिता के मुख से. खासकर "कर्मणयाधिकरस्ते....... . परिणाम के विषय में ज़्यादा सोचने या चिन्ता करने पर पापा यही दुहराते. पर गुडगाँव के एक प्रशिक्षिण कार्यक्रम के दौरान वहाँ एक प्रवक्ता ने श्लोक सुनाया.उनके द्वारा बताया गया यह श्लोक और असकी व्याख्या मुझे आज तक याद है.

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर् धृवा नीतिर्मतिर्मम ॥ 18:78 ॥


इसकी व्याख्या अनेकों तरह से हो सकती है.पर जो मुझे अच्छी लगी उसका सारांश यह है कि अर्जुन शारीरिक क्षमता के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण बुद्धि और नीति के.जहाँ बुद्धि और शारीरिक क्षमता एक्साथ होते हैं वहाँ ऐशवर्य, विजय अलौकिक शक्ति और नीति रहती है. श्रीकृष्ण के सार्थित्व करने का अर्थ है शरीर की क्षमता को बुद्धि द्वारा सही दिशा देना.सिर्फ बल ,धनुर्विद्या या पराक्रम से विजय नहीं मिल सकती. उसके लिये बुद्धि,ज्ञान, विवेक, नीति का होना आवश्यक है. उसी प्रकार बिना स्वस्थ शरीर के एवं बाहुबल के पूर्ण विजय मिलना मुश्किल है. यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं .

शुक्रवार, मार्च 09, 2007

अंतर्जाल

कल मैने एक किताब पढनी शुरू की, अर्नेस्ट हेमिंगवे की "फॉर हूम द बेल टोलस'.स्पेन के गृह युद्ध की पृष्ठ भूमि पर आधारित उनकी सर्वोत्तम कृति मानी जाती है.उसके आलेख के रूप में एक ब्रिटिश कवि ,जॉन डॉन ,की पंक्तियां लिखी हुई हैं , जो शीर्षक का आधार है. मुझे यह पंक्तियां बहुत पसंद हैं .लगा कि एसी बहुत सी पंक्तियां जो मुझे बार बार याद आती हैं और बहुत ज़्यादा अच्छी लगती हैं .सोचा कि क्यों न अपने फलसफे पर यह फलसफा भी डाल दूँ. सोचती हूँ एक श्रृंखला का रूप दे दूँ उन पंक्तियों को जिन्हें मैं संजो कर रखना चाह्ती हूँ.बहुत ही भिन्न स्रोतों से पर यह ऐसी पंक्तियां जो मेरे दिमाग में घूमती रहती हैं. पहली कडी में "जॉन डॉन" का यह चिन्तन . मैं जब भी इन्हें पडती हूँ , एक कंपन सी होती है.

"No man is an island,
Entireof itself.
Each is a piece of thecontinent,

A part of the main.
If a clod be washed away by the
sea,
Europe is the less.
As well as if apromontory were.
As well as if
a manor of thine own
Or of thine friend's were.
Each man's death
diminishes me,
For I am involved in mankind.
Therefore, send not to
know
For whomthe bell tolls,
It tolls for thee. "


इनको पढकर मुझे इस बात का एहसास होता है कि इस विश्व का हिस्सा हूँ सूक्ष्म ,नगण्य ही सही .पर कहीं कुछ भी हो रहा है तो वह मेरे अस्तित्व को भी प्रभावित करता है. ऐसा भाव और कई कवियों और लेखकों द्वारा दर्शाया गया है,पर यह पंक्तियां मुझे अन्दर तक छू जाती हैं. खासतौर पर उसकी अंतिम पंक्ति.

send not to know

For whom the bell tolls,

It tolls for thee. "

इस विशाल संसार में कहीं कुछ विनाश हो रहा हो तो हमारा भी एक अंश ध्वंस हो जाता है. हम भी थोडे छोटे हो जाते हैं .बडी सामायिक भी लगती है यह कविता.क्या बुश को या दुनिया के आतंकवादियों को पता है कि कहीं भी हिंसा होती है तो वह उनका भी नाश करेगी.सिर्फ किसी समाज विशेष की परस्परधीनता ही नहीं बल्कि विश्व्यापी निर्भरता के उदगार हैं यह. समाज का हर नैतिक पतन हममें से हर एक को प्रभावित करता है . कोई भी हममें से पूर्णता पृथक नहीं रह सकता है. इसकी व्याख्या बहुत बारीकी से कोई बुद्धिजीवी कर सकता है.