सोमवार, मार्च 12, 2007

कृष्ण अर्जुन

मैंने गीता पूरी कभी नहीं पढी .मुझे संस्कृत का इतना ज्ञान नहीं है कि उसका आनन्द ले पाऊँ.जो भी जानती हूँ वह बचपन में माता पिता के मुख से. खासकर "कर्मणयाधिकरस्ते....... . परिणाम के विषय में ज़्यादा सोचने या चिन्ता करने पर पापा यही दुहराते. पर गुडगाँव के एक प्रशिक्षिण कार्यक्रम के दौरान वहाँ एक प्रवक्ता ने श्लोक सुनाया.उनके द्वारा बताया गया यह श्लोक और असकी व्याख्या मुझे आज तक याद है.

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर् धृवा नीतिर्मतिर्मम ॥ 18:78 ॥


इसकी व्याख्या अनेकों तरह से हो सकती है.पर जो मुझे अच्छी लगी उसका सारांश यह है कि अर्जुन शारीरिक क्षमता के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण बुद्धि और नीति के.जहाँ बुद्धि और शारीरिक क्षमता एक्साथ होते हैं वहाँ ऐशवर्य, विजय अलौकिक शक्ति और नीति रहती है. श्रीकृष्ण के सार्थित्व करने का अर्थ है शरीर की क्षमता को बुद्धि द्वारा सही दिशा देना.सिर्फ बल ,धनुर्विद्या या पराक्रम से विजय नहीं मिल सकती. उसके लिये बुद्धि,ज्ञान, विवेक, नीति का होना आवश्यक है. उसी प्रकार बिना स्वस्थ शरीर के एवं बाहुबल के पूर्ण विजय मिलना मुश्किल है. यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं .

2 टिप्‍पणियां:

अनुनाद सिंह ने कहा…

गीता के इस अन्तिम श्लोक की यह व्याख्या मुझे बहुत ही सार्थक लगी; इस अर्थ ने इस श्लोक को मेरे लिये अत्यन्त मार्मिक मार्मिक बना दिया। इसे उद्धृत करने पर सुनने वालों को भी खूब आनन्द आयेगा।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

रोचक है. पर झगड़ा यह है कि पार्थ के साथ ही योगेश्वर क्यों हैं? शारीरिक क्षमता में तो कर्ण भी कमतर नहीं है.
रोचक होगा इसका उत्तर पाना भी!