मंगलवार, दिसंबर 31, 2013

नया साल

बीते साल को मुड़कर देखा , हँसते देखा ,रोते देखा
मौला के रहम को देखा ,इंसानों  के करम  को  देखा।

आपस के मसलों को लेकर  बंटती सांझी ज़मीन को देखा
पैसे की लालच  के पीछे  लुटती हुई   ज़मीर को देखा

हिम्मत  बांधे एक हुजूम को सडकों पर उतरते देखा
सत्ता के बंद गलियारों में नयी हवा को घुसते देखा।

काले सूतों  से बुने संतों के भगवा  कपड़ों को देखा
भोग विलास के पायदानों पर लुढ़कती हुई गरिमा को देखा।

 मानव के अतिक्रमण पर  पर्वतों के प्रतिशोध को देखा
 प्रकृति के बेपरवाह  हनन  पर मानव के भी  विरोध को देखा।

धरती पर  अमंगल के बढ़ते हुए  कदमों को देखा
दूर गगन में  मंगल खोजते देश के काबिल हाथों को  देखा


देखे हुए कई सपनों को टूट टूट कर  बिखरते देखा
बिखरे  हुए टुकड़ों को फिर से ख्वाबों में बुनते देखा।

बीते साल के कई  क्षणों  में  इतिहास बन जाते  देखा
इतिहास बने कई लोगों को सुपुर्दे-खाक होते हुए  देखा।


देखें यह एक  नया साल अब क्या क्या रंग दिखाता है
कितनी आशाओं ,कितनी उम्मीदों को परवान चढ़ाता है।




सोमवार, दिसंबर 16, 2013

'sabaaeedee '..... नमस्कार लाओ में आपका स्वागत है

थाईलेंड  ,कम्बोडिया ,वियतनाम और  चीन से घिरे इस देश में शायद सैलानी के तौर पर जाने की बात हमारे ज़हन में न आये ,पर आफिस के काम से मुझे वहां जाने का मौका मिला. दिल्ली से बेंगकोक और फिर वहां से लाओ एरलाईन से पाक्से . बंगकोक से एक छोटे एटीआर जहाज से हम पहुंचे पाक्से .हवाई अड्डा क्या था बस एक रनवे और दो कमरों की इमारत. दक्षिणी लाओ के चम्पासक प्रदेश की राजधानी है यह छोटा सा शहर . हमारे बस एक दिन का समय था सो घूमना तो ज्यादा नहीं हो पाया ..हाँ कुछ चित्र ज़रूर उतारे.

पाक्से का हवाई अड्डा जहाँ उड़ानें सिर्फ बंगकोक और लाओ की राजधानी वियांतियाँ तक जाती हैं  .



होटल के कमरे से दिखती मेकोंग नदी.यह शहर दो नदियों सी दोन औए मेकोंग के संगम पर स्तिथ है.चीन से आती हुयी मेकोंग चौड़ी है और बहुत ही सुन्दर .

सूर्यास्त .यह पुल जापानी सहायता से बनाया गया  है .सवेरे इस पुल पर टहलना और नीचे शांत बहती नदी को देखना .

मंगलवार, सितंबर 03, 2013

और किसके नाम हो सकता था यह 100वा चिट्ठा !

2006  से इस ब्लॉग की शुरुआत हुई थी।हिन्दी ब्लॉग जगत में हरकत होनी तब शुरू ई हुई थी।  कुछ चंद लोग थे ,एक परिवार सा लगता था. नारद मुनि का साथ था अब तो महासागर है, कुछ पुराने अभी भी चले आ रहे है ,बहुत रास्ते में रुक गए , कुछ बेतहाशा दौड़ते जा रहे हैं। मेरा भी यह प्रयास  कभी तेज़ कभी बिलकुल ही अनमना  सा    चलता जा  रहा  है। रुक जाता है ,ठहरता है ,पर पूर्णविराम अभी तक नहीं लगा । स्थिति वैसे पूर्ण विराम जैसी ही है।   अब तक सिर्फ 99 चिट्ठे लिखे,वह भी बेतरतीब। कभी कुछ अच्छा लगा तो लिख दिया,कभी कुछ संजो कर रखने का दिल करा तो यहाँ सुरक्षित रख दिया. गाहे बगाहे कुछ याद आया तो यहाँ डाल  दिया। अर्धशतक ही पूरा हुआ काफी देर में। इसे यहाँ देखें  http://poonammisra.blogspot.in/2008/02/blog-post_27.html
 सोचा था सौंवीं पोस्ट एक ख़ास मौके पर लिखूँगी। पिछ्ले साल अपने मम्मी पापा की शादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर।  आयी चली गयी। नए साल के इरादों की तरह ,इरादा  तो पुख्ता था  ,बस यहाँ चिट्ठे में तब्दील नहीं हो पाया।
इस बार अपने जन्मदिन पर कुछ दिन माँ पापा के साथ बिताये.लम्बे अरसे के बाद ४-५ दिन साथ रहने का मौक़ा मिला. गर्मी के बाद बरसात होने पर जैसे फूलों में आयी चमक, हरियाली और हरी, सूखे गले से गट गट नीचे उतरता पानी ,उपवास  के बाद नमक का स्वाद , दिनों से अपने आप को संभालता  नदी से टूटता बाँध।
दोपहर में मम्मी के रुपहले हो चले बालों को सहलाते , उनसे बातें करते।  पापा को टीवी के सामने छोड़ ,गर्ल्स टॉक !चाय की चुस्की और हर चुस्की से ताज़ा होती उनकी बेहिसाब चाय पीने की पुरानी  आदत। अब सुनने में  कठिनाई होती है ,तो एक डायरी साथ में। जो उनको पकड़ में नहीं आता वो उसमें लिखना। जाने से पहले उसके पन्ने पलटे।  बचपन में उस समय पत्थर की फिसलती फर्श पर लेट कर हम दो बहनों को अ ,आ और a ,b c की शुरुआत  कराने से लेकर उनकी नवीनतम ख्वाहिश। चाहती हूँ तुम्हें टीवी पर देखना ! गुनगुनाते रहती हैं  लोकगीत।  राम विवाह के  स्नेहास्क्त किस्से बहुत ही तन्मयता से गाती तो नहीं पर बड़े भाव से उन्हें बाचती हैं।  जैसे वह सामने ही हों।  बहुत प्यारे हैं उन्हें लोकगीत खासतौर से जनक की राम की खातिरदारी।  आवाज़ में वो दम नहीं , शब्द भी भूल चुकीं हैं ,पर फिर भी रिकोर्ड कर लिया उनका गाना……निहुरे निहुरे परसें जनकजी,धोतिया मईल हो जाई की हाँ जी ;धोतिया  तो हमरे धोबी कर धीन्हो , ऐसे सजन कहाँ पाएं की हाँ जी। कभी फिर ऐसा मौक़ा मिला तो उनसे सारे गीत गवाऊंगी । टेप कर लूंगी। उनका अंदाज़ अलग है। बचपन में क्लब जाने से ,ब्रिज और बैडमिन्टन के शौक को छोड़कर एक बड़े परिवार को संभालना ,रसोई में न जाने वाली भाई की दुलारी  बहन ,शादी  के बाद सास की भी प्यारी हो गयी।  ऐसी रसोई की अब तक कोई और खाने का स्वाद हम लोगों पर नहीं चढ़ा। ऐसा घर कि  कोई दुविधा होने पर आँख बंद कर बस माँ का ध्यान करो ,उनका घर रखने का सलीका याद करना भर रास्ता सुझा देता है । याद दिलाया कैसे उन्होंने बचपन में फ्रोकें सिलीं थीं। सबका नाम परियों  वाली फ़्रोक ,रोस (गुलाब) वाली फ्रोक , बुनाई की सिलाइयों में जाड़े के धूप की गर्मी को बाँध कर रखना। बातें क्या ख़तम होंगी? न यादें न बातें !अब जब सब बच्चों का घर बस गया है ,सब के अपने किस्से,अपनी जिम्मेदारियाँ ,मिलना जुलना कम ,सुनायी देना कम ,तो यह सब बात करके ही पिछले दिनों से अविच्छेदता  बनी रहती है। एक निरंतरता का एहसास होता है. उन्हें भी  मुझे भी। पापा का उनके लिए समर्पित गीत, 'कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ,बहुत खूबसूरत ,मगर सांवली सी ……'
   पापा भी आ गए।" मम्मी बिटिया की बातें चलती ही जा रही हैं !अरे उसको कुछ आराम कर लेने दो। घर आयी है ,सोने दो , काम मत करवाना , पैर दबवाओगी  ज़रूर।"  "अरे यह खुद ही दबा रही है ,मैंने नहीं कहा ", मम्मी कहती हैं। माँ  के पैर दबाने में ही मेरे जीवन की सार्थकता है और दबवाने में उनकी। सुख का चरमोत्कर्ष !  पापा मितव्ययी ,अंतर्मुखी। सो हम  सब के लिए प्यार भी अन्दर की गहराई तक।  हमेशा अभिव्यक्त करने वालों से कम नहीं , शायद और भी भावुक और भी पैशनेट। पर शब्दों में नहीं बाँधा। शब्दों की असमर्थता है। उतनी गहराई जो सिर्फ वही महसूस कर सकते हों या उस प्यार को  पाने वाले । एक छवि है उनकी। …दफ़्तर से आकर ,चाय पीकर सीधे किचन गार्डन  में चले जाना। या फिर सवेरे एक घंटे तक अखबार पढ़ना। नेशनल पैनासोनिक पर  बेगम अख्तर को "ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे  रोना आया" का टेप चलता ही जाता ,या फिर एक ही टीवी जिस पर दूरदर्शन के शास्त्रीय संगीत के सारे नृत्य सारे संगीत के प्रोग्राम देखते। टीवी पर उनका एकाधिकार। पर हम साथ देखते क्रिकेट,चित्रहार और विम्बलडन। बनारस की मिट्टी है तो शास्त्रीय संगीत से प्यार है।खिलाड़ी हैं तो वोलीबॉल था, कुश्ती थी।   होली में मम्मी की भाभी के साथ उनकी होली ख़ास होती थी। याद है मामी अलग से इंतज़ार करतीं अपने इस सबसे छोटे और उम्र में बहुत छोटे बेटे जैसे नंदोई का. वह भी अलग अलग तरीकों से उन्हें चुपके  से रंग लगाने की तैयारी  करते। अनुशासन कड़ा  था ,पर जोर से आवाज़ नहीं उठती।
      फिर भी  बात करते करते  भावुक हो गए। बोले तुम लोगों को बड़े ही नहीं होना चाहिए था।चारों का बचपन कितना अच्छा था ! लैब में माइक्रोस्कोप से देखते हुए उनकी एक फोटो है , बहुत प्यारा ।  लम्बे ,गोरे ,हैंडसम। कैप पहन जब वह मुझे यूनिवर्सिटी छोड़ने जाते तो साथ की लडकियां  क्या अपने उम्र के लड़कों को छोड़ पापा को देखतीं।  प्यार का प्रदर्शन उन्हें पसंद नहीं। पर प्यार प्रदर्शन और शब्दों का मोहताज नहीं।

सौंवाँ  चिट्ठा  अपने माता पिता के  लिए , जिनके त्याग ,परिश्रम ,प्यार ,हुनर ,शख्सियत  ,शौक , मूल्य सबकुछ  मेरे लिए प्रेरणा स्रोत ,मेरे जीवन का सहारा हैं।


शुक्रवार, मई 24, 2013

कुछ तुम सीखो ,कुछ हम सीखें

कुछ दिन पहले एक मौक़ा मिला . इलाहाबाद के एक प्रतिष्ठित स्कूल में भौतिक विज्ञान के शिक्षक पद के लिए इंटरव्यू  था. एक पद कक्षा दस के लिए और एक पद ,कक्षा ११ और 1२ के लए खाली था. साक्षात्कार   के लिए ४ -४  अभ्यर्थी .सभी भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर थे. अनेक सवाल पूछे गये. शुरुआत हुई ,१५ तक किसी मनचाहे विषय परपढ़ाने  का एक छोटा डेमोंस्त्रेशन से. पढ़ाने  का कोई भी तरीका वह अपना सकते थे , हर तरह की मदद स्कूल उपलब्ध करा देता . पर अफसोस , ४ में से किसी ने भी ऐसे तरीका नहीं अपनाया जिससे विषय रूचिकर हो जाए .एक उम्मीदवार ,जो कक्षा बारह को पढ़ाते  भी हैं ,ने वही पुराने तरीके से , अपनी प्रदर्शन शुरू किया. उनका विषय था न्यूटन के  तीन नियम . उन्होंने ने घिसे पिटे तरीके से बिना ब्लेक्बोर्ड से सर उठाये पढ़ाना शुरू कर दिया . हम ऊंघने लग गए . बच्चों को, जिनके लिए सब बिलकुल नया  होगा , क्या समझ में  आता होगा . बड़ा खेद हुआ कि  विज्ञान की पढ़ाई क्या बिना उदाहरण दिए , सिर्फ समीकरण लिखकर हो सकती है ?
एक निवेदक से पूछा गया की आप बाहर देखें और कोई भी एक ऐसी चीज़ ,क्रिया बताएं जिसमें भौतिकी का कोई भी नियम लग रहा है. उनका जवाब था ,उनको ऐसा कुछ नहीं दिख रहा  . हाथ उठाने से लेकर दरवाज़ा खोलने,सूरज के प्रकाश की गति से लेकर ,कण कण के ब्रॊनियन मोशन ,कुछ भी कहा जा सकता था . यह क्या विज्ञान पढाएंगे ? और जो पढाएंगे तो उसमें कितने विद्यार्थियों में रुचि उत्पन्न होगी और कितनों  को मूल नियमों की महत्ता समझ आयेगी .उनका ज्ञान सिर्फ रट कर,इम्तिहान  पास करने भर तक सिमट जाएगा ?कोई बच्चा सवेरे शीशे में अपना प्रतिबिम्ब देखेगा और उत्साह से बोलेगा कि  आज यही तो हमें पढ़ाया गया था ? रात आसमान में तारे देखकर कोई विद्यार्थी सवेरे आकर  पूछे की तारों का रहस्य क्या है? इस  अनंत आकाश की सीमाएं क्या हैं? और अगर पूछेगा तो क्या कोई शिक्षक उसे उत्तर देंगे , कौतूहल को बढ़ावा देंगे? क्या समझाने की बजाए उससे बोलेंगे ,आओ हम एक साथ मिलकर इसका पता लगायें .एक रात सब बाहर आसमान के नीचे बैठें और ऊपर चलते हुए तारों के साथ दोस्ती करें ?
  एक और  मोहतर्मा से हाल  में रूस में हुए उल्का पात की जानकारी चाही ,तो वह इस घटना से अनभिज्ञ  थीं . पर यह सिर्फ विज्ञान के अध्यापकों  की समस्या नहीं है।अन्य विषयों के लिए आये पदाभिलाषी भी इसी तरह से अपने विषय वस्तु  को सामन्य जनजीवन से जोड़ने में असमर्थ दिखे. सिर्फ किताब से देखते हुए पढ़ाना , ब्लेक्बोर्ड एक दो महत्त्वपूर्ण तथ्य लिख देना भर पढ़ाना नहीं होता .
अगर शिक्षक अपने काम के प्रति इमानदार है तो वह कोशिश  करेगा की उसके कक्षा का कम से कम एक विद्यार्थी बाद में कह सके की फलां अध्यापक की वजह से उसमें  इस विषय को आगे पढ़ने की लालसा जागी ,या उसकी अरूचि रुचि में बदल गयी .   

मंगलवार, मई 14, 2013

चिकित्सा के नए आयाम

कल एक पत्रिका में पढ़ रही थी कि  दुनिया में तीन देशों को छोड़ बाकी जगह पोलियो मुक्त हो गए हैं  .  य़ह तीन देश हैं अफगानिस्तान ,पाकिस्तान  और नाइजीरिया . अपने स्कूल के दिनों की याद आई .हमारे साथ थी तस्नीम थी जिसका पैर  पोलियो ग्रस्त  होने के कारण बंधा रहता था. पहले काफी बच्चों को देखा जो पोलियो का शिकार हो गए थे।यह जानकार खुशी हुई  की इस बीमारी से दुनिया को निदान मिल गया है.वैसे ही जैसे चेचक से. यह भी चिकित्सा विज्ञान का कमाल है ,नहीं तो कितने बच्चे इसकी चपेट में आ जाते  थे .
इसी तरह चिकित्सा का हर क्षेत्र आधुनिक दवाइयों ,तरीकों,शोध और  टेक्नोलोजी  से अधिक सक्षम,अधिक प्रभावशाली हो गया है.
          आधुनिक चिकित्सा वाकई में वरदान है. टेक्नोलोजी के ज़माने में आधुनिक चिकित्सा  प्रणाली इसका भरपूर उपयोग करती है. बिना आपरेशन के दिल के मरीजों को ठीक करना हो,या जटिल प्रसव  के दौरान माँ -बच्चे दोनों की जीवन की रक्षा .सब कुछ आज संभव है. यहाँ तक की कई निराश दम्पतियों को बच्चों का सुख अगर मिला है तो वह भी आधुनिक चिकित्सा के प्रयासों द्वारा. सरोगेट गर्भ की प्रणाली एक वरदान है.
              आज कल जो बहुत विलक्षण तकनीक मेडिकल विज्ञानं में है वह है स्टेम सेल या मूल कोशिका की . स्टेम सेल ,ने मेडिकल जगत में एक रोमांच पैदा किया है. कई  बीमारियाँ जिनका  इलाज संभव नहीं था ,वह अब साध्य हैं . कैंसर और रक्त -संबन्धित कई बीमारियाँ का इलाज हो सकता है .स्टेम सेल्स,शरीर की वह कोशिकाएं हैं ,जो विभाजित हो कर बढ़ती जाती हैं .यह शरीर के टिशू की पूर्ती कर सकते हैं  और अंगों की मरम्मत करने की  क्षमता रखते हैं। कुछ बीमारियों के इलाज के लिए ,यह रोगी के अपने शरीर से लिए जा सकते हैं,और कुछ के लिए दूसरे व्यक्ति के भी इस्तेमाल कर सकते हैं । अब तो स्टेम सेल बैंक भी हैं  और बच्चे के पैदा होने के  बाद ,उसके नाभि रज्जु यानी अम्बिलिकल कोर्ड से यह कोशिकाएं निकाल कर रख ली जाती हैं .थैलेसिमिया ,लुकेमिया  और यहाँ तक की कुछ आनुवंशिक विकारों का भी इलाज हो सकता है .
           जब तक हमें स्वयम कष्ट से न गुज़रना पड़े हम इन तरीकों और तकनीकों पर उतना ध्यान नहीं देते  ,पर मुझे  http://www.indiblogger.in/topic.php?topic=77 के "How Modern Healthcare touches life "  वाली कड़ी ने इसके बारे में सोचने पर विवश कर दिया और  इसके बारे में अधिक जानकारी , http://www.apollohospitals.com/cutting-edge.php. पर मिली . अपोलो हास्पिटल भारत में अन्तराष्ट्रीय स्तर की चिकित्सा सेवाएं और  नवीन प्रक्रियाएं लाने के अगवा हैं .
           सेहत खुदा की सबसे बड़ी नियामत है . अगर वह नहीं तो दुनिया के बाकी सुख धूल  बराबर हो जाते हैं . ऐसे में अपना  ख्याल रखना और स्वस्थ रहना ज़रूरी है. सेहतमंद व्यक्ति से खुशाल समाज बनता  है .देश के बच्चे स्वस्थ हों , महिलाएं निरोग रहे ,पुरूष निरोग रहे ,यह हमारी चिकित्सा बिरादरी का ध्येय होना चाहिए और इसके लियी आधुनिक चिकित्सा   प्रणालियाँ अपनाने और खोजने के सतत  प्रयास होने चाहिये. न सिर्फ हम निरोग दीर्घायु होंगे ,हमारी उत्पादकता बढ़ेगी और अन्तत: देश खुशहाल ,समृद्ध होगा .

बुधवार, मई 08, 2013

मायावी सफ़र

इस बार एक हफ्ते  में जो सफ़र किया वह  दिलचस्प था।  पांच दिन में ग्वालियार-आगरा -दिल्ली  जाना था और फिर वापस इलाहाबद। पर कुछ छोटी छोटी घटनाएं ऐसी हुईं  जो दिल को छू गईं। पिछले  चिट्ठे में मेट्रो के सुखद अनुभव का ज़िक्र था। एक और दिलचस्प मुलाक़ात हुई आगरा से दिल्ली जाते हुए।
आगरा से सवेरे ट्रेन पकड़ी जबलपुर एक्सप्रेस।  अपने फर्स्ट क्लास वाले कूपे में पहुंचे तो देखा एक अधेड़ उम्र की महिला को एक युवक बड़े आदर से बैठा रहा था औए निकलते  हुए 'टेक केर' बोल कर उतर गया । सामान  वगैरह रखकर,अपनी सीट  पर बैठे  तो एक नीली आँखों वाली,गोरी ,करीब साठ के आसपास की एक चुस्तदुरुस्त  महिला से नज़र मिली।  एक हल्की सी मुस्कान से मैंने उनको हेलो किया और अपना सामान लगाने में व्यस्त हो गयी।  पहले पड़े बिस्तरे को उठाने जब रेलवे  का कर्मचारी आया,तो हमने उससे दो साफ़  बिस्तर  की सिफारिश की।
"भैया,दो बिस्तर दे देजीये।  "
"दो नहीं तीन !"पीछे से आवाज़ आयी।
 तीन कहने के लहजे ने हमें पीछे मुड़कर देखने पर मजबूर कर दिया।  हिन्दी तो थी पर भारत की नहीं।   हिन्दी में विदेशी ज़बान का स्वाद  था।  बैठकर फिर ध्यान से देखा।  हो सकता है पंजाब की हों और बाहर रह रहीं हों।   थोड़ा और गौर किया तो  नाक नक्श  विदेशी ही लगे,हाँ हिन्दुस्तान की गर्मी में तपे  हुए।
        इतने में उन्हीं ने कौतूहल से पूछा,आप क्या भारतीय हैं या विदेशी। मैं तो सकपका गई। आजतक  मेरे भारतीय होने पर किसी ने शक नहीं किया था। आश्चर्य  से उन्हें देखा तो उन्होंने सफाई देते हुए कहा,आप की हेयर स्टील से लगा आप भारतीय नहीं है।  खैर इस वाक्य से बातचीन के दरवाज़े खुल गये।  मैंने उनसे यही सवाल किया कि आप देखने में तो विदेशी मूल की हैं,पर हिन्दी साफ़ सुथरी बोलती हैं। पता चला,वह फिनलेंड की रहने वाली हैं पर पिछले कोई सत्तरह साल से आगरा में रहती हैं। वहां माया नाम का होटल चलाती हैं। भारत आना कैसे हुआ,तो बताया की उन्हें चूहों से बहुत डर  लगता था। फिनलेंड की हैं पर शायद नौ या दस साल की उम्र से जर्मनी में रहती थीं। वहीं किसी ने किताब दी जिसमें बीकानेर के करनी माता मंदिर का ज़िक्र था जहां चूहों को  पूजा जाता है। वह बताती हैं की वह जर्मनी से यहाँ आयीं और उनका चूहों का फोबिया ख़तम हो गया। तब से  वह नियमित भारत  आतीं हैं और ताजमहल से तो इतनी प्रभावित थीं कि हर दौरे में वह एक बार आगरा ज़रूर जातीं।  यहीं ताजमहल के पास उनकी दोस्ती एक परिवार से हुई जो एक असफल गेस्ट हाउस चलाते थे।वैसे तो यह महिला एक नर्स थीं पर भ्रमण वगैरह से मिली जानकारी से इन्होने उनके साथ मिलकर,वहां पर एक अच्छा  होटल बनाने की कल्पना की !वह बड़े फख्र के साथ बताती हैं कि अब उन लोगों ने एक दूसरा होटल भी खोल लिया है,"रे ऑफ़ माया", जो डीलक्स श्रेणी में आता है।
          बड़ा दिलचस्प लगा उनकी बातें सुनकर। एक  विदेशी महिला,जो उत्सुकता पूर्वक भारत आयीं अपनी बीमारी की  हद तक के भय  का इलाज ढूँढतेऔर यहीं की होकर रह गईं। पिछले करीब चौदह साल से वह यहाँ पर हैं। उनसे बातचीन करते हुए लगा उनको हमारे देश और समाज की अच्छी पकड़ हो गयी है। कहती हैं उन्होंने हिन्दी सीखी,पर उनकी शिक्षिका ने इतनी शुद्ध हिन्दी सिखाई कि वह जब बोलती थीं तो लोग हंस पड़ते।  वैसे भी उन्हें आगरा की बोली बिलकुल नापसंद है।  बताती हैं लोग बिना गाली दिए बात ही नहीं करते।
          वह कभी ओरछा घूमने गयी थीं और वहां एक गाँव में बच्चों की भुखमरी  की हालत देखी तो वहां एक स्कूल खोल दिय।  स्कूल भी वह और लोगों के साथ मिलकर चलाती हैं। .आज वह बेहद परेशान थीं स्कूल के उनके साथी,उनके होटल के मुनाफे पर  नज़र गडाए थे और पुलिस में उन पर धोखेबाजी  की शिकायत   करना चाहते हैं।  दुखी थीं और इतनी मुश्किलों को देख उन्होंने स्कूल बंद करने का निश्चय कर लिया था।
         बातचीन का सिलसिला दिल्ली तक चलता रहा। नाम तो पूछा नहीं पर पता चला की इलाज के लिए बेटे के पास जर्मनी जा रहीं थीं।  इस रोचक  नेकदिल साहसी महिला को सलाम और हाँ उनसे बातचीत करना प्रेरणादायी ज़रूर लगा !

P.S. :आजकल अंतरजाल के होने से कुछ भी छुपा नहीं है।   गूगल किया और उनका नाम पता चल गया।  नाम है इवा माया  स्चुल्त !
http://www.artconsulting.net/en/art_for_life/blog/2010-02-25/india-orchha-maya-school-project

गुरुवार, मई 02, 2013

मेट्रो का तजुर्बा

         अभी कुछ दिन पहले दिल्ली जाना हुआ . राजधानी से पुराना नाता है. नौकरी की शुरुआत वहीं से हुई और कोई १५  साल वहां बिताए हैं .इस बार कई जगह जाना था ,सो मेट्रो का सहारा लिया गया. कितना सरल, कितना आरामदेह साधन है. बाहर भी कुछ देशों में घूमने का मौक़ा मिला है और वहां की मेट्रो या सबवे  से मैं खासा प्रभावित हूँ . शहर के किसी कोने से कहीं भी जाना हो, झट टिकट लो,साफ़ सुथरी ट्रेन में बैठो और मंजिल पहुँचते देर नहीं लगती . यहाँ से उतरो,वहां से चढो ।न कार का झंझट,न पार्किंग का तनाव.
इस बार दिल्ली पहुंचकर,तय हुआ की कार छोड़ ,इस बार मेट्रो से ही सारे सफर तय किये जायेंगे .वैसे भी शनिवार  -इतवार थे .कार बुलाकर,ड्राइवर की छुट्टी क्यों बर्बाद की जाये ,यह भी सोच थी .

      मेरा यह संभवतः ,मेट्रो में सफ़र का पहला या दूसरा अनुभव था। इससे पहले मैं एक बार कनात  प्लेस से चांदनी चौक तक जा चुकी हूँ . इस बार केन्द्रीय सचिवालय से मयूर विहार ,वह भी आराम से राजीव चौक पर ट्रेन बदल कर और फिर मयूर विहार से गुड़गांव  का सुखद अनुभव मिला . सप्ताहांत था,पर ट्रेन में बैठने की जगह इतनी  आसानी से फिर भी नहीं मिली . कुछ स्टेशन तो खड़े होकर जाना ही पड़ा .स्टेशन साफ़ सुथरे थे ,टिकट खिड़की पर भी कतारें जल्दी जल्दी आगे बढ़ रही थीं .मेट्रो के संचालकोँ  ने इसे   अन्तराष्ट्रीय स्तर  देने में कोई कसर  नहीं छोड़ी .अच्छा लगता था ,ट्रेनें ४ मिनट के अंतराल पर समय पर आ रही  थीं और जो रास्ता    तय करने पर पसीने निकल जाते  थे   वो अब बड़े आराम से तय    हो रहे थे . न पेट्रोल का खर्च ,न ट्रेफिक जेम में फंसे ,न यातायात सिग्नल पर .
       पर इस सफ़र में दो बड़े सुखद अनुभव् हुए. ट्रेन पर बैठने पर दिखा एक साफ़ सुथरा सा डिब्बा .सामने की सीट पर एक परिवार था,पति-पत्नी और दो ७-८ साल की बेटियाँ .बेटियाँ अल्लो चिप्स खा रही थॆन.वैसे तो यह भी नियम के खिलाफ था. पर खाने के बाद उन्होंने पेकेट वहीं नीचे फेंक दिया. अमूमन हम में में से कोई भी टोकता नहीं है,पर मेरे सामने खड़े एक युवक ने तुरंत उनसे निवेदन किया की डिब्बा इतना साफ़ है ,वह पेकेट उठा लें . महिला का कहना था की बच्चे हैं ,फेंक दिया ,क्या करें। युवक को हम सबसे समर्थन मिला और उस महिला को समझाया गया की बच्चे तो छोटे हैं पर वो और उनके पति तो नहीं .पेकेट उठाकर वह अपने बेग में रख सकती हैं और उतर कर किसी कूड़ेदान में फेंक सकती हें . बात उनकी समझ में आ गयी और उन्होंने फेंका हुआ कूदा उठाकर अपने साथ लाये बेग में रख लिया. आशा करती हूँ कि उतारकर उन्हने उसे सड़क पर नहीं बल्कि किसी कूड़ेदान में डाला होगा .युवक के विनम्र अनुरोध और देश की संपत्ति के प्रति जागरूकता पर हर्ष हुआ .

            उसके तुरंत बाद  ऐसी ही दिल को खुश करने वाली एक और  घटना हुई . हम लोग मयूर विहार फेस -१ से चढ़े  थे. बैठने की जगह तुरंत तो नहीं मिली,हाँ तीन स्टेशन बाद मुझे मिल गयी .मियांजी अभी भी खड़े हुए थे .एक स्टेशन पर दो व्यक्ति उतरे तो खड़े लोग बैठने को मुड़े . इसमें ,पतिदेव भी थे.पर उनसे पहले एक लड़का सीट पर पहुँच गया .मैं उन्हें  ,बैड  लक वाली नज़र दे ही रही थी ,कि  वह युवक उठा और उसने अमित को उस सीट पर बैठने का आग्रह किया. देखकर दिल खुश हो गया .

इन दोनों युवकों को आभार और उम्मीद है कि हमारी युवा पीढी यह जागरूकता दिखायेगी और हम सबको सिखाएगी भी . हो सकता है हमारे देश का भविष्य उज्जवल ही हो . 

शनिवार, फ़रवरी 16, 2013

चलो मन गंगा जमुना तीर

            इलाहाबाद में महाकुम्भ के मौके पर होना एक दुआ कबूल होने जैसा है। हर बारह साल में होने वाला यह पर्व  श्रद्धालुओं को खींचकर ले आता है। मकर संक्रान्ति  के दिन से  इस पर्व का आरम्भ होता है और करीब दो महीने तक संगम तट पर अपना विशवास,अपनी आस्था लिए लोग यहाँ रहते हैं, स्नान करते  हैं और आत्मा की शुद्धि  की कामना करते हैं।
                        समुद्र मंथन के बाद अमृत निकलते ही देवों  और दानवों में उसे पाने के लिए लड़ाई छिड़ गयी .इंद्र के पुत्र ,जयंत,  ने गौरय्या का रूप धारण किया और अमृत वाले कुम्भ को राक्षसों से बचाने के लिए  भागे .12 साल तक वह उसे बचाकर भागते रहे .पर इस दौरान चार बार वह कलश छलका और अमृत की एक एक बूँद , प्रयाग,उज्जैन,हरिद्वार और नासिक में गिरी . ऐसा विशवास है कि हर बारह साल पर अमृत की वह बूँद इन स्थानों पर फिर से प्रकट होती है। और तब यहाँ होता है कुम्भ का पर्व,जब श्रद्धालु पावन नदियों में स्नान कर उस  अमृत बूँद से स्वयं को शुद्ध करते हैं .इसके अलावा हर 144 साल पर महाकुम्भ का आयोजन होता है और इस बार का  मेला महाकुम्भ का पर्व है। उसपर प्रयाग तो गंगा,यमुना,सरस्वती का संगम स्थल है , इसलिए तीर्थराज है।सो यहाँ के महाकुम्भ की महत्ता अधिक है।
           संगम किनारे यहाँ कुम्भ नगरी बन गयी है। क्षेत्र को कई सेक्टर में बाँट दिया गया है . गंगा के दूसरे तट को जोड़ने के लिए  पोंटून पुल बने हैं। 'इसकोन ' हो या शंकराचार्य का मठ ,उत्तरप्रदेश पर्यटन हो या फिर कोई निजी यात्रा कंपनी अनेकों शिविर लगे हैं और रहने की व्यवस्था है . पुलिस स्टेशन है,डाकघर है ,अस्पताल हैं , ट्रेन टिकट खरीदने की सुविधा है। देश भर से आये साधू संतों ने अपने आश्रम यहीं बना लिए। 13 अखाड़ों  के ध्वज लहराते दिख रहे हैं। सब तरफ बस गेरुआ रंग दिखाई देता है।सबके चेहरे पर वही श्रद्धा ,इश्वर के  प्रति भक्ति की चमक है। 14 जनवरी को जब सूर्य उत्तरायण होकर  मकर राशि में प्रवेश  करते हैं तब से आरम्भ होता है कुम्भ पर्व और  यह समाप्त होता है शिवरात्री को।करीब दो महीने तक चलने वाले इस मेले में कुछ ख़ास तिथियाँ  ऐसी होती हैं जो बहुत शुभ होती हैं और उन दिनों महा स्नान होता है। इनमें भी जो सबसे बड़ा स्नान है वह है मौनी अमावस्या का .कहते हैं इसी दिन सृष्टि की रचना हुयी थी . इस बार करोड़ लोगों ने स्नान किया।  शाही स्नान की शुरुआत   साधू संतों  के अखाड़ों  से होती  .घाट  तक पहुँचने के लिए इनका जुलूस भव्य होता है . हाँ, दिगम्बरधारी  नागा साधू तो वैसे भी सर्वाधिक  कौतूहल का विषय होते ही हैं। संगम के पानी में एक तरफ होती है इन विशेष भक्तों  की भक्ति तो दूसरी तरफ साधारण जनमानस की आस्था भी कम अटूट है। एक तरफ गेरुआ वस्त्रधारी, चन्दन तिलक लगाए ,जटाधारी , सन्यासी हैं ,जिनकी पेशवाई और रंग ढंग धार्मिक तो है ही साथ ही भव्य भी . दूसरी तरफ है जन मानस  की श्रद्धा जो उसे मीलों पैदल चल कर ,ठण्ड में, बिना सुख सुविधा के भी यहाँ आने को विवश करती है। छत्तीसगढ़ से आयी रामरती देवी हों ,  राजस्थान से भैरों सिंह या फिर नज़दीक ही वाराणसी के पांडेपुर के समस्त निवासी  .सभी की आस्था में वह बल है जो उन्हें  संगम तक पहुचने  की शक्ति देता है। बसें तो शहर के बाहर ही रोक दी गयी  हैं .अपने सर पर गठरी उठाये ,कंधे पर बैग टाँगे ,गाँव के गाँव ,उमड़  पड़े हैं। बूढ़े भी हैं,बच्चे भी हैं,युवा भी हैं  .सब गंगा मैया की जयगान करते,हाथ थामे  बढे जा रहे हैं। यहाँ तक की अमेरिका से आये जार्ज और न्यूजीलैंड से आयीं रिबेका भी यहाँ पहुंचकर  इसी भावना में सराबोर हो रहे हैं। फिर यहाँ ठन्डे पानी में नहाकर सब धन्य हो जाते हैं। माँ अपने छोटे साल भर के बच्चे को भी डुबकी  लगा कर पुण्य का भागी बना देती है .बुज़ुर्ग भी स्नान करते हुए सोचते हैं जन्म   सार्थक  हो   गया .
             नदी  का किनारा हो, सवेरे उठें तो गंगा यमुना   की  लहरों पर सूरज की किरणों   की लाली दिखे , ठन्डे बहते पानी में नहाकर  , उसी नदी में खड़े होकर सूरज को अर्ध्य दें  ,दिन में सन्त  ,महात्माओं के प्रवचन सुनें और एक कुटी में सो जाएँ।  संगम  किनारे रेत पर मडई डाल  कर माघ की शीत में  एक महीने तक कुछ   लोग   कल्पवास करते हैं।   संयम ,तप और गंगा की सेवा से आत्मा शुद्ध हो और मोक्ष मिले यह आस लिए हर साल श्रद्धालु आते हैं।बाकी मेले की चकाचौंध से अप्रभावित यह उनकी बेहद निजी,अपार विशवास लिए  साधना है। 

          महाकुम्भ में श्रद्धा,भक्ति,धर्म कई रूप में दिखाई पड़ी . शान्ति ,शुद्धि और समृद्धि  की कामना लिए संगम स्नान कर जब लाखों , करोड़ों लोग  निहाल हो जाते हैं , तो यह सृष्टि , यह प्रकृति भी उनके संकल्प और समर्पण से तेजमय  हो जाती है।

शनिवार, जनवरी 05, 2013

आम आदमी की पार्टी बनी है।

आम आदमी  की  पार्टी बनी है। 'आप' सब उसके सदस्य हैं .जानकर एक आशा जागी है कि  शायद कुछ बदले या फिर आसपास के वातावरण को बदलने की एक शुरुआत तो हुई।वरना हम सब तो सिर्फ दोष देना जानते हैं कुछ करना नहीं। बहस चलती  रहती है कि  अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे  हैं उससे स्थिति में  कुछ बदलाव आ सकता है या नहीं। लोकपाल बिल के अनशन की तरह हमारे देश की जटिल और कुटिल होती व्यवस्था एवं राजनीति में कुछ बदलेगा ?
पर मेरे ज़हन में एक सवाल उठता है कि अरविन्द केजरीवाल तो जो  उन्हें करना था वह कर रहे हैं पर जो आम आदमी को करना चाहिए वो क्या हम करेंगें।2014 में अगला संसदीय चुनाव होना है। अभी तक हमारा यह रोना था कि हमारे पास  विकल्प नहीं है।सब पार्टियां एक ही  तरह की हैं . सिर्फ ऊपर के लिबास अलग हैं ,पर अन्दर सबकी फितरत समान  है .वही सत्ता  का नशा, राजा प्रजा  की भावना ,चोर ,अपराधियों को टिकट ,भ्रष्टाचार और अनैतिकता को बढ़ावा . हम या तो वोट देने जाते ही नहीं या फिर हताश हो उस पार्टी को देते हैं जो सत्ता में नहीं थी और कह देते हैं एंटी इनकम्बेंसी वोट !तभी देखिये ये कौन लोग सत्ता में बार बार आते हैं। इस पार्टी के हों या उस पार्टी के ...सब का अंजाम एक ही होता है .एक घोटाला या दूसरा। राष्ट्र में बढ़ते ज़ुल्म,बच्चों, स्त्रियों,निर्बल का शोषण ,स्विस अकाउंट के बढ़ते जमा खाते और देश में बढ़ता काला धन, कोमेनवेल्थ  गेम्स से लेकर छोटी सी कोतवाली तक व्याप्त घूसखोरी की आदत , सूची लम्बी है .

पर अब हमारे सामने भी एक विकल्प आया है .  निराशावाद स्वर में हम कह सकते हैं कि यह मुट्ठी भर लोग सालों से सड़ती व्यवस्था से क्या लड़ पायेंगे .यह भी सोच सकते हैं कि क्या इनके इरादे भी इमानदार हैं या यह भी अन्दर  से वही हैं  ,बस अब लिबास और सफ़ेद हो गया है . लेकिन ज़िम्मेदारी अब आम आदमी की है . अगर हम इस सड़ी व्यवस्था से निजात चाहते हैं ,कुछ परिवर्तन लाना चाहते हैं तो अब गेंद हमारे पाले में है . अगले चुनाव में क्या आम आदमी पार्टी यह उम्मीद कर सकती है कि हम उसके उम्मीदवारों को विजयी  बनाएं ? उनके साथ प्रदर्शन पर नहीं गए,केंडल मार्च नहीं कर पाए,तो क्या चुनाव के समय तो परिवर्तन की आस को तो वोट के ज़रिये व्यक्त कर ही सकते हैं। या फिर जो इमानदार ,देश के हित के बारे में सोचने वाले लोग हैं वह सामने आयें और इस पार्टी  की  ओर   से  प्रत्याशी बनें। अगर वह बिना ज़्यादा  धन खर्च किये चुनाव लड़ते हैं तो फिर यह हमारी यानिआम आदमी की ज़िम्मेदारी बनती  है कि वोट डालते समय प्रत्याशियों की सूची को गौर से देखें और मुहर एक इमानदा  व्यक्ति के सामने लगायें। चोर,उचक्कों,अपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को जिताने से तो हम यही सन्देश दे रहे हैं की हम व्यवस्था के सामने असहाय हैं . बया छोटे शहर,गाँव हो या कस्बा ,हमें एक विकल्प मिला है और हमें इसे  आजमाना  चाहिए। यह हम अपने लिए,अपने देश के लिए और समाज के  भविष्य के लिए योगदान कर सकते हैं .