बुधवार, मई 08, 2013

मायावी सफ़र

इस बार एक हफ्ते  में जो सफ़र किया वह  दिलचस्प था।  पांच दिन में ग्वालियार-आगरा -दिल्ली  जाना था और फिर वापस इलाहाबद। पर कुछ छोटी छोटी घटनाएं ऐसी हुईं  जो दिल को छू गईं। पिछले  चिट्ठे में मेट्रो के सुखद अनुभव का ज़िक्र था। एक और दिलचस्प मुलाक़ात हुई आगरा से दिल्ली जाते हुए।
आगरा से सवेरे ट्रेन पकड़ी जबलपुर एक्सप्रेस।  अपने फर्स्ट क्लास वाले कूपे में पहुंचे तो देखा एक अधेड़ उम्र की महिला को एक युवक बड़े आदर से बैठा रहा था औए निकलते  हुए 'टेक केर' बोल कर उतर गया । सामान  वगैरह रखकर,अपनी सीट  पर बैठे  तो एक नीली आँखों वाली,गोरी ,करीब साठ के आसपास की एक चुस्तदुरुस्त  महिला से नज़र मिली।  एक हल्की सी मुस्कान से मैंने उनको हेलो किया और अपना सामान लगाने में व्यस्त हो गयी।  पहले पड़े बिस्तरे को उठाने जब रेलवे  का कर्मचारी आया,तो हमने उससे दो साफ़  बिस्तर  की सिफारिश की।
"भैया,दो बिस्तर दे देजीये।  "
"दो नहीं तीन !"पीछे से आवाज़ आयी।
 तीन कहने के लहजे ने हमें पीछे मुड़कर देखने पर मजबूर कर दिया।  हिन्दी तो थी पर भारत की नहीं।   हिन्दी में विदेशी ज़बान का स्वाद  था।  बैठकर फिर ध्यान से देखा।  हो सकता है पंजाब की हों और बाहर रह रहीं हों।   थोड़ा और गौर किया तो  नाक नक्श  विदेशी ही लगे,हाँ हिन्दुस्तान की गर्मी में तपे  हुए।
        इतने में उन्हीं ने कौतूहल से पूछा,आप क्या भारतीय हैं या विदेशी। मैं तो सकपका गई। आजतक  मेरे भारतीय होने पर किसी ने शक नहीं किया था। आश्चर्य  से उन्हें देखा तो उन्होंने सफाई देते हुए कहा,आप की हेयर स्टील से लगा आप भारतीय नहीं है।  खैर इस वाक्य से बातचीन के दरवाज़े खुल गये।  मैंने उनसे यही सवाल किया कि आप देखने में तो विदेशी मूल की हैं,पर हिन्दी साफ़ सुथरी बोलती हैं। पता चला,वह फिनलेंड की रहने वाली हैं पर पिछले कोई सत्तरह साल से आगरा में रहती हैं। वहां माया नाम का होटल चलाती हैं। भारत आना कैसे हुआ,तो बताया की उन्हें चूहों से बहुत डर  लगता था। फिनलेंड की हैं पर शायद नौ या दस साल की उम्र से जर्मनी में रहती थीं। वहीं किसी ने किताब दी जिसमें बीकानेर के करनी माता मंदिर का ज़िक्र था जहां चूहों को  पूजा जाता है। वह बताती हैं की वह जर्मनी से यहाँ आयीं और उनका चूहों का फोबिया ख़तम हो गया। तब से  वह नियमित भारत  आतीं हैं और ताजमहल से तो इतनी प्रभावित थीं कि हर दौरे में वह एक बार आगरा ज़रूर जातीं।  यहीं ताजमहल के पास उनकी दोस्ती एक परिवार से हुई जो एक असफल गेस्ट हाउस चलाते थे।वैसे तो यह महिला एक नर्स थीं पर भ्रमण वगैरह से मिली जानकारी से इन्होने उनके साथ मिलकर,वहां पर एक अच्छा  होटल बनाने की कल्पना की !वह बड़े फख्र के साथ बताती हैं कि अब उन लोगों ने एक दूसरा होटल भी खोल लिया है,"रे ऑफ़ माया", जो डीलक्स श्रेणी में आता है।
          बड़ा दिलचस्प लगा उनकी बातें सुनकर। एक  विदेशी महिला,जो उत्सुकता पूर्वक भारत आयीं अपनी बीमारी की  हद तक के भय  का इलाज ढूँढतेऔर यहीं की होकर रह गईं। पिछले करीब चौदह साल से वह यहाँ पर हैं। उनसे बातचीन करते हुए लगा उनको हमारे देश और समाज की अच्छी पकड़ हो गयी है। कहती हैं उन्होंने हिन्दी सीखी,पर उनकी शिक्षिका ने इतनी शुद्ध हिन्दी सिखाई कि वह जब बोलती थीं तो लोग हंस पड़ते।  वैसे भी उन्हें आगरा की बोली बिलकुल नापसंद है।  बताती हैं लोग बिना गाली दिए बात ही नहीं करते।
          वह कभी ओरछा घूमने गयी थीं और वहां एक गाँव में बच्चों की भुखमरी  की हालत देखी तो वहां एक स्कूल खोल दिय।  स्कूल भी वह और लोगों के साथ मिलकर चलाती हैं। .आज वह बेहद परेशान थीं स्कूल के उनके साथी,उनके होटल के मुनाफे पर  नज़र गडाए थे और पुलिस में उन पर धोखेबाजी  की शिकायत   करना चाहते हैं।  दुखी थीं और इतनी मुश्किलों को देख उन्होंने स्कूल बंद करने का निश्चय कर लिया था।
         बातचीन का सिलसिला दिल्ली तक चलता रहा। नाम तो पूछा नहीं पर पता चला की इलाज के लिए बेटे के पास जर्मनी जा रहीं थीं।  इस रोचक  नेकदिल साहसी महिला को सलाम और हाँ उनसे बातचीत करना प्रेरणादायी ज़रूर लगा !

P.S. :आजकल अंतरजाल के होने से कुछ भी छुपा नहीं है।   गूगल किया और उनका नाम पता चल गया।  नाम है इवा माया  स्चुल्त !
http://www.artconsulting.net/en/art_for_life/blog/2010-02-25/india-orchha-maya-school-project

1 टिप्पणी:

P.N. Subramanian ने कहा…

संस्मरण रोचक रह. आभार.