अभी कुछ दिन पहले दिल्ली जाना हुआ . राजधानी से पुराना नाता है. नौकरी की शुरुआत वहीं से हुई और कोई १५ साल वहां बिताए हैं .इस बार कई जगह जाना था ,सो मेट्रो का सहारा लिया गया. कितना सरल, कितना आरामदेह साधन है. बाहर भी कुछ देशों में घूमने का मौक़ा मिला है और वहां की मेट्रो या सबवे से मैं खासा प्रभावित हूँ . शहर के किसी कोने से कहीं भी जाना हो, झट टिकट लो,साफ़ सुथरी ट्रेन में बैठो और मंजिल पहुँचते देर नहीं लगती . यहाँ से उतरो,वहां से चढो ।न कार का झंझट,न पार्किंग का तनाव.
इस बार दिल्ली पहुंचकर,तय हुआ की कार छोड़ ,इस बार मेट्रो से ही सारे सफर तय किये जायेंगे .वैसे भी शनिवार -इतवार थे .कार बुलाकर,ड्राइवर की छुट्टी क्यों बर्बाद की जाये ,यह भी सोच थी .
मेरा यह संभवतः ,मेट्रो में सफ़र का पहला या दूसरा अनुभव था। इससे पहले मैं एक बार कनात प्लेस से चांदनी चौक तक जा चुकी हूँ . इस बार केन्द्रीय सचिवालय से मयूर विहार ,वह भी आराम से राजीव चौक पर ट्रेन बदल कर और फिर मयूर विहार से गुड़गांव का सुखद अनुभव मिला . सप्ताहांत था,पर ट्रेन में बैठने की जगह इतनी आसानी से फिर भी नहीं मिली . कुछ स्टेशन तो खड़े होकर जाना ही पड़ा .स्टेशन साफ़ सुथरे थे ,टिकट खिड़की पर भी कतारें जल्दी जल्दी आगे बढ़ रही थीं .मेट्रो के संचालकोँ ने इसे अन्तराष्ट्रीय स्तर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी .अच्छा लगता था ,ट्रेनें ४ मिनट के अंतराल पर समय पर आ रही थीं और जो रास्ता तय करने पर पसीने निकल जाते थे वो अब बड़े आराम से तय हो रहे थे . न पेट्रोल का खर्च ,न ट्रेफिक जेम में फंसे ,न यातायात सिग्नल पर .
पर इस सफ़र में दो बड़े सुखद अनुभव् हुए. ट्रेन पर बैठने पर दिखा एक साफ़ सुथरा सा डिब्बा .सामने की सीट पर एक परिवार था,पति-पत्नी और दो ७-८ साल की बेटियाँ .बेटियाँ अल्लो चिप्स खा रही थॆन.वैसे तो यह भी नियम के खिलाफ था. पर खाने के बाद उन्होंने पेकेट वहीं नीचे फेंक दिया. अमूमन हम में में से कोई भी टोकता नहीं है,पर मेरे सामने खड़े एक युवक ने तुरंत उनसे निवेदन किया की डिब्बा इतना साफ़ है ,वह पेकेट उठा लें . महिला का कहना था की बच्चे हैं ,फेंक दिया ,क्या करें। युवक को हम सबसे समर्थन मिला और उस महिला को समझाया गया की बच्चे तो छोटे हैं पर वो और उनके पति तो नहीं .पेकेट उठाकर वह अपने बेग में रख सकती हैं और उतर कर किसी कूड़ेदान में फेंक सकती हें . बात उनकी समझ में आ गयी और उन्होंने फेंका हुआ कूदा उठाकर अपने साथ लाये बेग में रख लिया. आशा करती हूँ कि उतारकर उन्हने उसे सड़क पर नहीं बल्कि किसी कूड़ेदान में डाला होगा .युवक के विनम्र अनुरोध और देश की संपत्ति के प्रति जागरूकता पर हर्ष हुआ .
उसके तुरंत बाद ऐसी ही दिल को खुश करने वाली एक और घटना हुई . हम लोग मयूर विहार फेस -१ से चढ़े थे. बैठने की जगह तुरंत तो नहीं मिली,हाँ तीन स्टेशन बाद मुझे मिल गयी .मियांजी अभी भी खड़े हुए थे .एक स्टेशन पर दो व्यक्ति उतरे तो खड़े लोग बैठने को मुड़े . इसमें ,पतिदेव भी थे.पर उनसे पहले एक लड़का सीट पर पहुँच गया .मैं उन्हें ,बैड लक वाली नज़र दे ही रही थी ,कि वह युवक उठा और उसने अमित को उस सीट पर बैठने का आग्रह किया. देखकर दिल खुश हो गया .
इन दोनों युवकों को आभार और उम्मीद है कि हमारी युवा पीढी यह जागरूकता दिखायेगी और हम सबको सिखाएगी भी . हो सकता है हमारे देश का भविष्य उज्जवल ही हो .
इस बार दिल्ली पहुंचकर,तय हुआ की कार छोड़ ,इस बार मेट्रो से ही सारे सफर तय किये जायेंगे .वैसे भी शनिवार -इतवार थे .कार बुलाकर,ड्राइवर की छुट्टी क्यों बर्बाद की जाये ,यह भी सोच थी .
मेरा यह संभवतः ,मेट्रो में सफ़र का पहला या दूसरा अनुभव था। इससे पहले मैं एक बार कनात प्लेस से चांदनी चौक तक जा चुकी हूँ . इस बार केन्द्रीय सचिवालय से मयूर विहार ,वह भी आराम से राजीव चौक पर ट्रेन बदल कर और फिर मयूर विहार से गुड़गांव का सुखद अनुभव मिला . सप्ताहांत था,पर ट्रेन में बैठने की जगह इतनी आसानी से फिर भी नहीं मिली . कुछ स्टेशन तो खड़े होकर जाना ही पड़ा .स्टेशन साफ़ सुथरे थे ,टिकट खिड़की पर भी कतारें जल्दी जल्दी आगे बढ़ रही थीं .मेट्रो के संचालकोँ ने इसे अन्तराष्ट्रीय स्तर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी .अच्छा लगता था ,ट्रेनें ४ मिनट के अंतराल पर समय पर आ रही थीं और जो रास्ता तय करने पर पसीने निकल जाते थे वो अब बड़े आराम से तय हो रहे थे . न पेट्रोल का खर्च ,न ट्रेफिक जेम में फंसे ,न यातायात सिग्नल पर .
पर इस सफ़र में दो बड़े सुखद अनुभव् हुए. ट्रेन पर बैठने पर दिखा एक साफ़ सुथरा सा डिब्बा .सामने की सीट पर एक परिवार था,पति-पत्नी और दो ७-८ साल की बेटियाँ .बेटियाँ अल्लो चिप्स खा रही थॆन.वैसे तो यह भी नियम के खिलाफ था. पर खाने के बाद उन्होंने पेकेट वहीं नीचे फेंक दिया. अमूमन हम में में से कोई भी टोकता नहीं है,पर मेरे सामने खड़े एक युवक ने तुरंत उनसे निवेदन किया की डिब्बा इतना साफ़ है ,वह पेकेट उठा लें . महिला का कहना था की बच्चे हैं ,फेंक दिया ,क्या करें। युवक को हम सबसे समर्थन मिला और उस महिला को समझाया गया की बच्चे तो छोटे हैं पर वो और उनके पति तो नहीं .पेकेट उठाकर वह अपने बेग में रख सकती हैं और उतर कर किसी कूड़ेदान में फेंक सकती हें . बात उनकी समझ में आ गयी और उन्होंने फेंका हुआ कूदा उठाकर अपने साथ लाये बेग में रख लिया. आशा करती हूँ कि उतारकर उन्हने उसे सड़क पर नहीं बल्कि किसी कूड़ेदान में डाला होगा .युवक के विनम्र अनुरोध और देश की संपत्ति के प्रति जागरूकता पर हर्ष हुआ .
उसके तुरंत बाद ऐसी ही दिल को खुश करने वाली एक और घटना हुई . हम लोग मयूर विहार फेस -१ से चढ़े थे. बैठने की जगह तुरंत तो नहीं मिली,हाँ तीन स्टेशन बाद मुझे मिल गयी .मियांजी अभी भी खड़े हुए थे .एक स्टेशन पर दो व्यक्ति उतरे तो खड़े लोग बैठने को मुड़े . इसमें ,पतिदेव भी थे.पर उनसे पहले एक लड़का सीट पर पहुँच गया .मैं उन्हें ,बैड लक वाली नज़र दे ही रही थी ,कि वह युवक उठा और उसने अमित को उस सीट पर बैठने का आग्रह किया. देखकर दिल खुश हो गया .
इन दोनों युवकों को आभार और उम्मीद है कि हमारी युवा पीढी यह जागरूकता दिखायेगी और हम सबको सिखाएगी भी . हो सकता है हमारे देश का भविष्य उज्जवल ही हो .
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