हमारे देश में अगर खुर्जा और लखनऊ के नजदीक चिनहट की पोटरी मशहूर है वैसे ही काबुल के पास एक गाँव है इस्तलिफ जहाँ के कुम्हारों ने अपने हुनर को तमाम मुश्किलों के बावजूद बरकरार रखा है। यहाँ पर इस कला को यहाँ के कलाकारों ने पिछले ३०० साल से संजोया हुआ है। तालिबान के समय यह गाँव भी तहस नहस हो गया था ।
काबुल से करीब ५५ किमी उत्तर की ओर बसा यह गाँव मुख्य मार्ग से हटकर है इसलिए यह अफगानिस्तान में फैली भूमिगत बारूदों से बच गया था पर लडाई में इसे ध्वस्त आर दिया गया था। अब इसका भी पुनः निर्माण हो रहा है। । इस उद्योग को कई NGO की मदद मिल रही है। लेकिन गरीबी और आधुनिक तकनीक न अपनाने के कारण यहाँ बनाई गई वस्तुओं को गुणवत्ता शायद विश्व स्तरीय नही है . सलांग के रास्ते में कुछ दुकानें पड़ीं। हम इस्तलिफ तो नही जा पाए पर कुछ सामान इन्हीं दुकानों से खरीद लिया । यहाँ के कुम्हार अधिकतर फल रखने की प्लेट ,सजावट की वस्तुएं या फ़िर चाय की प्यालियाँ बनाते है।
दुकान के बाहर करीने से रखी वस्तुएं ।
आइये दुकान के भीतर चलें। यहाँ पर मोलभाव बहुत होता है। अपने हिसाब से हमने बहुत कम कीमत पर एक फूलदान n खरीदा । परन्तु कार में बैठे तो थोड़ी देर बाद हमारे अफ़गानी दोस्त वैसा ही एक ओर फूलदान दी हुई कीमत से आधे दाम पर ले आए .हाय सैलानी सब जगाह मारा जाता है!
इस्तलिफ की मशहूर ब्लू पोट्री का एक नमूना।
इन्हें पहचाना ! जी हाँ ... धारावाहिक "क्योंकि सास भी कभी बहू थी " की तुलसी और मिहिर. तुलसी की तस्वीर अफगानिस्तान में जगह जगह देखने को मिलती है पर वहां की हस्तकला के उत्पाद पर भी यह आश्चर्य की बात है.