शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

अदिति तीन साल की हो गई..(वैसे वह अगले अप्रैल में नौ की होगी )

 एक बहुत पुरानी पोस्ट  थी जो ड्राफ्ट में दिखी.दिल किया उस याद को ताज़ा करने का.


निकि यानि अदिति की इस चिट्ठा पृष्ठ पर पुनरावृत्ति है.आज ( 5 अप्रैल 2006) वो तीन साल की हो गई.२००३ में नवरात्र की पंचमी के दिन हमने अपने संसार में उसका स्वागत किया था.मैं ,उसकी बुआ  ,अदिति के बचपन का एक अभिन्न हिस्सा रही हूँ.उसको बढता देख अपने आप में एक अदभुत एहसास है.मैंने पाया कि उसके लिये कोइ बात "क्योंकि बड़े  कह रहे हैं" इसलिये मान लेना नामुमकिन सा है.वो सीधे इस तरह से नही कहती है पर उसके तीन  प्रिय शब्द हैं...क्या,क्यों और क्यों नहीं.इसमें एक और शब्द कभी कभी जुड़  जाता है....कैसे.लेकिन अभी यह कम आता है.शुरुआत हुइ थी क्या से.जब उसने बोलना सीखा था और उसकी नन्ही सी पकड़  से कोइ शब्द बाहर होता , वह तब तक 'क्या'का साथ नही छोडती जब तक उसकी संतुष्टि नही हो जाती.यह अधिकतर प्रयोग होता है जब वह किसी शब्द का उच्चारण नहीं पकड पा रही हो मुझे याद है"हैर ड्रायर " कहने में उसे खासी मुश्किल आई,और वह अभी भी 'ड्र ' नहीं समझ पायी है.पर उसकी कोशिश ज़ारी है और वह हमेशा मुझे बाल धोने और सुखाने को कहती है जिससे वह उसको देख सके और सुन सके कि वह है क्या!पर अब तो उसके किसी भी वार्तालाप का सार होता है 'क्यों 'और 'क्यों नही'.अगर हम कुछ कर रहे हैं तो क्यों और नहीं कर रहे तो क्यों नही.सूरज रात में कहीं चला जाता है तो क्यों और दिन में चाँद नही दिखता  तो क्यों नहीं.और जब क्यों की बारात निकलती है तो उसका कोई अन्त नहीं.
उम्मीद करती हूँ कि वह हमेशा यूँ ही उत्सुक, बेहिचक सवाल पूछती रहे, जानने सीखने की ललक बनी रहे .


इन पांच वर्षों  में उसमें बहुत बदलाव आये हैं ,पर उसके कुछ सीखने की लगन कम नहीं हुई है.

गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

कुछ तो नया करो

नए साल में कुछ  नया करो
 ठंडी से एक आह भरो
 कोहरे भरे भोर  में   बाहर चलो
सांस निकालो,धुआं करो

रात अंधेरी सिहरते ओढो
 गली गली कुछ गाते घूमो
एक जलाओ अलाव कहीं
अलसाई  सी  कुछ राग छेड़ो

हसंते हुए कुछ याद करो
पुराने पल की  बात करो
पहले क्रश को बयान करो
कुछ खिसियाओ ,संकोच करो


कलेंडर को बदलते हुए
कुछ लम्हे संजो कर रखो
 क्या नया करना है सोचो
नए साल को सलाम करो  

मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

दो शहरों स बनी एक राजधानी बुडापेस्ट



कम्युनिस्ट साम्राज्य का पश्चिमी छोर और अब केपिटलिस्ट यूरोप का पूर्वी किनारा   कहा जाने वाला हंगरी दो अस्तित्वों के बीच अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद कर रहा है. हम  दुबई से वियना और वहां से टिरोल एरलाईन  के एक छोटे विमान से  ४५ मिनट में बुडापेस्ट पहुँच गए . बूडा और पेश्त नाम के दो शहरों से बनी हंगरी की राजधानी ,बाकी यूरोपीय शहरों से भिन्न लगी .वियना जैसा  कड़क  अनुशासन  यहाँ ज़रा लचीला हो गया और हवा भी यूरोपीय शीतलता से भिन्न ,थोड़ी एशियाई गर्मी का अंश लेने लगी.
डेन्यूब नदी के तट पर एक कतार में कई होटल बने हैं,उन्ही में एक इंटर कोंतिनेनेतल में ठहरने का इंतजाम था. पर ऐसा नहीं लगा  कि उड़ान के बाद ,अब थोडा सुस्ताया जाये. नयी जगह के माहौल को महसूस करने की आतुरता खींच ले गयी हमें आसपास की चहल पहल तक. डेन्यूब का किनारा तो कमरे की खिड़की से दिख रहा था,और नदी के उस पार का राजसी महल.भी. गजब की रोशनी थी और गजब का दृश्य !नदी पर नाव और तट पर बने अनेक रेस्त्रों से चहल पहल थी. आसपास काफी महंगा  सा बाज़ार था,लेकिन हर यूरोपीय शहर की तरह यहाँ भी छोट छोट केफे के बाहर कुर्सी मेज़ लगा कर सुन्दर खाने का इंतज़ाम. रात ग्यारह बारह बजे तक लोग सडकों पर दिखती हैं सो वहां उस समय घूमना भी सुरक्षित है और बहुत लुभावना  भी.
करीब ढाई दिन के समय में इस शहर के साथ इन्साफ करना नामुमकिन है .इतना कुछ देखने को है और इतना कुछ करने को. पहले दिन हम शहर का 'पेस्त' वाला हिस्सा घूमने निकले ,जो नया है,आधुनिक है . शहर घूमने का मज़ा पैदल में  ही  है.यातायात बहुत अधिक नहीं था,सो चलने में मज़ा भी आ रहा था. पैदल के लिए गाड़ियां रुक जाती और हम  कुचले जाने के डर से मुक्त थे. डेन्यूब के किनारे निकले और रुख किया इस्त्फान बासिलिका का.यह बुडापेस्ट का सबसे बड़ा  चर्च है. अन्दर से बेहद खूबसूरत,इस चर्च में सेंत स्टीफन के दाए हाथ को परिरक्षित रखा हुआ है.   यूरोप की  सबसे बड़ी  पार्लियामेंट बिल्डिंग  की भव्य इमारत को देखते हुए हम आगे अन्द्रसी एवेन्यू पर चले.यह सड़क दूर तक जाते है औए बुडापेस्ट के मुख्य सड़क कही जा सकती है.विश्व विरासत स्थल की सूचे में इसका नाम है और कई मशहूर दुकानों और इमारतों को दखने का मौक़ा मिला. यह रास्ता ख़तम होता है हीरोस स्क्वेयर पर जहां हंगरी के राजाओं की प्रतिमाएं हैं . साथ ही आसपास है म्यूजियम ,ओपेरा हाऊस और कम्युनिस्ट समय के अत्याचओं की कहानी कहता हाऊस ऑफ़ टेरर .  बुडापेस्ट की एक खासियत है यहाँ के गर्म पानी के स्रोत और स्पा जहां नहाने से बेहतरीन आराम मिलता है.इसी स्क्वेयर के पास है ज़ेचेन्यी बाथ. बुडापेस्ट   का भूमिगत रेल ,दुनिया का सबसे पुराना है, और इसके स्टेशन को पूर्ववत रखने की कोशिश की गयी है.
किसी शहर की सैर खरीदारी के बिना अधूरे है. सो हम पहुंचे यहाँ के वाची उत्चा ,जो हमारे होटल के पीछे ही एक सड़क है जिसके दोनों तरफ बहुत सुन्दर दुकानें और बाज़ार है. ग्लोबलिज़ेशन के ज़माने में हर शहर की दुकानों में एकरसता  सी आ गयी है. जो दिल्ली में दीखता है वही वियना में औए वही बुडापेस्ट में. सो इस बाज़ार को छोड़ हम पहुंचे ग्रेट मार्केट हॉल . यह एक तीन तलों में बना बाज़ार है,घुसते ही सब्जियों की अनेकों दुकानें और पहले ताल पर हंगरी  की प्रसिद्ध  कढाई और अन्य उपहार की चीज़ें दिखीं. मोल भाव तो हुआ ही पर सामान महँगा लगा. शायद इसलिए क्योंकि हम उससे एक दिन पहले,बुडापेस्ट के बाहर एक छोटे से गाँव ,सेंतेंद्रे घूम कर आये थे. यहाँ जेबकतरों से भी सावधान रहने की इदायत दी गयी थी सो आधा दिमाग तो अपना बटुआ और मोबाइल बचाने मैं ही लगा था.
रात होते होते हम वापस होटल पहुंचे और डेन्यूब  किनारे के अद्भुत समाँ का आनंद लिया. यहाँ पर हर शाम बेंच पर बैठीं  कुछ औरतें भी कढ़ाई के मेजपोश आदि बेचती हैं.बातें हुईं, खरीदारी हुई और पता चला कि  जो नहीं खरीदा वह असल में चीन  से आया था. भारत  की तरह वहां भी चीन सस्ते माल भेज रहा है.यही बात हमें वेनिस में भी दिखी  . मन में एक सवाल उठा कि जो हमने इया वह क्या वाकई उन औरतें के गाँव का है या फिर चीन का ?

किनारे बनी छोटे  लडके की एक मूर्ती के पास बैठकर,यह सब भूल गए और मज़ा  लिया ,नदी पर तैरती नौकाओं का, उस पार जगमगाते महल का, तोकाजी का और हर इमारत,हर कदम के पीछे छुपी एक कथा का.