शनिवार, फ़रवरी 24, 2007

हम भी चले लेख लिखन

कल एक सुखद आश्चर्य हुआ .अनूप शुक्लाजी से बातचीत हुई. मोबाइल बजा तो देखा कानपुर का नम्बर है.चूंकि मैं कोइ दो साल कानपुर में भी रह चुकी हूं तो लगा किसी पुराने परिचित ने याद किया.देखिये हमारी भी सोच...एक सीमित दायरे से बाहर ही नहीं निकलती.लगे दिमागी घोडे दौड्ने कि कौन हो सकता है.अपने जानने वालों की सूची स्कैन करी तो कानपुर में ऐसा कोई नहीं मिला जो मुझे फोन करे. खैर फोन उठाया और फोन करने वाले का परिचय सुना तो एकबारगी विश्वास नहीं हुआ.
कहना न होगा कि अनूपजी से बात करना न सिर्फ बहुत अच्छा लगा बल्कि उपयोगी भी.यह चिट्ठा उसी का परिणाम है.उनको हमारे कविताएं लिखने पर आपत्ति है.हमारे ही नहीं सारे कवियों के.कहते हैं आजकल नारदजी को कुछ ज़्यादा कविताएं सुनाई जा रही हैं.जिसको देखो वही कवि का जामा पहन लेता है.आखिर हमलोग कब तक झेलते रहेंगे आप सबको.कुछ गद्य लिखिये, कुछ लेख-वेख हो जाये . कविता का क्या है.समझने वाले तुरन्त समझ जाते हैं और न समझ्ने वाले पाँच बार पडकर भी ... जीतेन्द्रजी की तरह और भी लोग हैं जो कविता को देखकर घबरा जाते हैं .
नारदजी कुछ कहें और हम न सुनें,ऐसे तो हालात नहीं.नदी में रहकर मगर से बैर कैसा.सो ठान लिया कि अब कुछ लेख लिखे जाएं.पर अनूपजी जो बात आपसे कही थी वह तो अभी भी सच है.समयाभाव .कविता का क्या है.कुछ दिल ने मह्सूस किया,बच्चों का टिफिन पैक करते कुछ पंक्तियां भी पैक हो गईं , आफिस पहुँचे ,दो कामों के बीच टाइप किया,और तीसरा कोइ काम करते करते पोस्ट कर दिया. बाकी का काम नारद्जी के जिम्मे .जिसको पढना पढे, और जिसको नहीं पढना वो आगे बढ जाये,पर एक नज़र डालने के बाद! लेख का क्या किया जाए.टिफिन जल्दी पैक हो जाता है और तब तक लेख की आत्मा तक पास नहीं फटकती.अब सोचा है कि कुछ रास्ता तो निकालना होगा . तो अब अभियान -गद्य चालू हो गया है. नाश्ता बनाते, आफिस का काम करते ,बच्चों का होमवर्क कराते....बस यहीं तक सीमित रखते हैं ,गद्य की भाव-भंगिमा के बारे में सोचना . किस समय पर प्रस्तुति की रचना हुई है यह आप उसकी खुशबु से समझ जाइयेगा. मिज़ाज में थोडी सख्त ,तो जानिये बच्चों को पढा रहे थे, कुछ मसालेदार्,चटपटी तो रसोई में, अनमनी सी,बेजान तो आज हो गई खटपट घर में और कोमल , नाज़ुक सी तो दिखाई दिया है इंद्रधनुष.

6 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

लेख में थोड़ा समय तो ज्यादा लगता है. इसके लिये कुछ गैर जरुरी कार्यों मे से समय निकालना पड़ता है मसलन: आफिस का काम... :)

-वरना तो क्या है, ऑफिस के लिये जितना भी करो, वो तो कम ही मानते हैं तो कम ही करो. :)

--मात्र सलाह है, मानना अपने विवेक से.

Rajeev (राजीव) ने कहा…

मैं यह तो नहीं समझता कि काव्य रचना अपेक्षाकृत आसान है, जैसा कि आपने लिखा -
टिफिन पैक करते कुछ पंक्तियां भी पैक हो गईं अब ये तो रचनाकार की सृजनात्मकता हो सकती है। अधिक फिर कभी...

आपने लिखा मिज़ाज में थोडी सख्त ,तो जानिये बच्चों को पढा रहे थे इस संदर्भ में मानोशी जी क्या कहती हैं आज और कल का फर्क

और भी एक बात, अब जबकि गद्य की बात तय ही है और न भी होती तब भी, आपके उत्तरों की प्रतीक्षा है। मेरे चिट्ठे पर आपके लिये प्रश्न कल ही दे दिये गये थे, पर ई-मेल न होने से सीधी सूचना नहीँ दे सका।

उन्मुक्त ने कहा…

आपकी पोस्ट फायरफॉक्स में फैली दिखायी पड़ रही है, पढ़ी नहीं जा रही है। शायद आप justify कर रही हैं। ;se right align करके लिखें।

Rajeev (राजीव) ने कहा…

ठीक कहा है उन्मुक्त जी ने। यदि आप left या right एलाईन कर लें तो ठीक हो जायेगा। चूंकि आपने पद्य में ही लिखा अधिकतर और देखा भी हो शायद Internet Explorer में ही अधिकतर, अत: यह समस्या दिखायी न दी हो।

RC Mishra ने कहा…

शुभ संकेत हैं, पढ़ने की उत्सुकता है।

मुझे Justified text पढ़ने और देखने में अच्छा लगता है, प्रत्येक अनुच्छेद के आरम्भ में Tab का प्रयोग हो तो और भी अच्छा हो।

अनूप शुक्ल ने कहा…

ई बढ़िया बाउंसर पोस्ट मार दिया आपने! अरे हमने कहा कि आप कविता के साथ लेख भी लिखा करें। पद्य के साथ गद्य पर भी कुछ माउसे-इनायत किया करें और आपने यह समझा कि गोया हम कविता को जयश्रीराम कहने के लिये कह रहे हैं। धन्य हैं आप! बहरहाल, यह बहुत अच्छा लगा कि आपने लेख लिखने का मन बनाया और उसकी यह भूमिका लिखी। अब आगे आगे आपके लेखों का इंतजार रहेगा। समय कम रहे तो कविता-पैक करती रहें!