चिट्ठा जगत में चल रही पाँच प्रश्नों की लडी में राजीवजी ने मुझे भी पिरो दिया.वैसे देखा जाये तो मैं इस जगत के हाशिये पर ही रहती हूँ. दो कदम चलती हूँ और फ़िर दर्शक दीर्घा में बैठ जाती हूँ. जैसे मनीष का कहना है "आप तो रह रह कर आती हैं". पर मेरे चिट्ठा लिखना का मकसद अपने विचारों, संस्मरणों को एक डायरीनुमा रूप देना था. क्या होता है कि कितनी बातें हमारे मन में घूमती हैं,कितने लम्हों को आप चाहते हैं संजो कर रखना.कभी डायरी में लिखा था पर डायरी या कहें डायरियां खो गईं. इस तरह न जाने कितने लेख कितनी कविताएं अब गुमशुदा की श्रेणी में शामिल हो गईं हैं.बरहाल जो भी कारण हो , चिट्ठा लिखना मेरे लिये एक "सेफ डिपोसिट बाक्स " की तरह है. मेरे खयाल ,मेरे खयाली पुलाव, मेरे हाल , मेरी चाल सबका लेखा जोखा इस जगह सुरक्षित रहेगा. यह तो थी भूमिका मेरे चिट्ठे की,जो आगे राजीव के कुछ प्रश्नों के जवाब लिखने में मददगार साबित होगी.
मैं सोच रही हूँ कि कैसे लिखूँ. कितना पर्दा खोलना ठीक रहेगा. विभिन्न तरह के बुर्कों की तरह .पूरा बुर्का पहनी रहूँ ...बस चाल ढाल से पता चले कि कोई मोहतर्मा हैं.या फ़िर बुर्का पूरा ,पर थोडी हिम्मत करूँ और चेहरे का नकाब पीछे कर दूं. तीसरा तरीका है आजकल के फैशन का.पर्दा के नाम पर सिर्फ़ हिज़ाब पहन लूँ. एक और कशमश है .लिखने के स्टाइल को लेकर. वैसे तो मैं सीधे सादे तरीके से बात करना पसंद करती हूँ.इसलिये एक तरीका यह है कि चुपचाप सीधे सीधे जवाब लिखो ,संक्षिप्त और मतलब के.या फिर बेजी स्टाइल में...भावुक, पद्यमय.या फिर मिस इंडिया में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों की तरह....मेक अप किये हुए थोथे चने की तरह. पर मैंने निश्चय किया अपने व्यक्तित्व से मेल खाते जवाब दूंगी. टैग करने वाले के निवेदन का आदर मैं इसी तरहे से कर सकती हूँ.
आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र (फिल्म) कौन सी है?
मेरी एक कमज़ोरी है कि मैं पुस्तकें और फिल्में बहुत जल्द ही भूल जाती हूँ.पढती बहुत हूँ पर बहुत दिनों बाद कोई किसी पुस्तक के विषय में चर्चा करे तो मैं उसमें भाग लेने में असमर्थ रहती हूँ. एक पुस्तक याद है "To Kill A Mocking Bird". Harper lee के लिखने का तरीका, पुस्तक का विषय ,स्काउट और एटिकस फ़िंच का चरित्र चित्रण मुझे नहीं भूलते. स्काउट कहती है "Naw, Jem, I think there's just one kind of folks. Folks " . काश मैं अपने बच्चों को एटिकस फ़िंच की तरह का सुलझापन दे पाती.
एक और तरह की पुस्तकें मुझे पसंद हैं...किसी भी घटना का वैज्ञानिक आधार बताने वाले ग्रंथ. भौतिक विज्ञान की छात्रा रह चुकी हूँ.वह रास्ता कब का छूट गया परन्तु रूचि बरकरार है. इस समय मुझे याद आ रही है "The Tao of Physics ". विज्ञान और पूर्व की आध्यत्मिक मान्यताओं को जोडने और समझने का प्रयास जो मुझे अच्छा लगा. इनको लिखने के बाद लगा कि हिन्दी चिट्ठा है, कायदे से इसपर हिन्दी की पुस्तकों का नाम होना चहिये. पर सूची लम्बी है और ज्ञान पर किसी भाषा का एकाधिकार नहीं.
रही फिल्मों की बात ...तो उसमें तो मुझे काफी मशक्कत करनी पड रही है. मैं 'धूम-२' और 'फिर हेराफेरी' में सिनेमा हाल में ही सो गई, जिसको लेकर मेरी अच्छी टांग खिचाई होती है. बहुत पहले एक फ़िल्म देखी थी 'हिप हिप हुर्रे' ,जिसे दुबारा देखने की इच्छा अभी तक है. दूसरी इस समय याद नहीं आ रही है.
इन में से आप क्या अधिक पसन्द करते हैं पहले और दूसरे नम्बर पर चुनें - चिट्ठा लिखना, चिट्ठा पढ़ना, या टिप्पणी करना, या टिप्पणी पढ़ना (कोई विवरण, तर्क, कारण हो तो बेहतर)
चिट्ठा लिखना पसंद है. जैसे कि मैंने भूमिका में कहा मेरे लिये यह चिट्ठा डायरी का रूप है. मेरे आवारा बेघर ख्यालों का यह आशियाना है. इसलिये चाहे मैं कम लिखूं, पर जो लिखती हूँ वो ऐसा जिसे मैं संजो कर रखना चाहती हूँ
चिट्ठा पढना उसके बाद . विभिन्न विचारों से सामना होता है, कुछ सीखने को मिलता है ,अपने कूप से निकलने का माध्यम लगता है.
आपकी अपने चिट्ठे की और अन्य चिट्ठाकार की लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन-कौन सी हैं?(पसंदीदा चिट्ठाकार और सर्वाधिक पसंदीदा पोस्ट का लेखक भिन्न हो सकते हैं)
बहुत कम लिखा है .पर अपनी 'दो कप चाय' दिल के करीब है. मेरे पति और दोस्त अमित को समर्पित. अन्य चिट्ठाकारों की बहुत सी पोस्टें पसंद हैं . पर मैं अनूप भार्गव के मुक्तक ज़रूर पढती हूँ.उनका सादगी भरा लहज़ा पसंद है .अनूपजी, कहीं यह सूरज को रोशनी दिखाने जैसा तो नहीं है?
आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
हर तरह के....हास्य व्यंग ,यात्रा वृतांत, समसामायिक विषयों पर .जो नहीं अच्छे लगते वह जो बहुत रूढिवादी या संकीर्ण विचारों वाले.
आपके मनपसन्द चिट्ठाकार कौन है और क्यों?(कोई नाम न समझ मे आए तो हमारा ले सकते हैं ;) पर कारण सहित)
आपका नाम तो है ही राजीव . आपकी रचनाएं पढने को मिलती रहें यह मेरी कामना है. मुझे अच्छे लगते हैं मनीष के यात्रा संस्मरण और संगीत प्रेम, प्रत्यक्षा की नज़ाकत और भाव पेश करना का तरीका ,समीरलाजी की टीका टिप्पणी, रवि रतलामी के देसीटून्स....और अन्य कितने ही. साँस फूल गयी और फेहरिस्त समाप्त नहीं हो रही है. जो रूचिकर दिख जाये वही अच्छा है.
यही आशा है कि यह हिन्दी चिट्ठाकारी का मंच ऐसे ही विविधताओं से सुसज्जित रहे .नये कलाकार आएं ,पुराने, मंजे हुए कलाकार हम जैसों की हौसलाआफज़ाई करें और जो इस मंच पर नहीं आना चाहते वो तालियां बजाते रहें
9 टिप्पणियां:
आपके बारे में जान कर काफी अच्छा लगा.
आशा है आगे भी अनवरत लिखती रहेंगी। मैं भी लखनऊ से हूं, कभी-कभी लखनऊ की भी खबरें दिया कीजिये।
पूनम जी,
टैग के प्रश्नव्यूह में अपने उत्तर दे कर आग्रह का सम्मान करने के लिये धन्यवाद।
आपने अपनी बातें बड़ी साफगोई से लिखी हैं। अपने चिट्ठा-लेखन का कारण भी बिलकुल सीधा बताया - सेफ डिपॉज़िट वॉल्ट, कोई पूर्वाग्रह नहीं। बस जब जैसा अनुभव किया, संकलित कर लिया उसे। शायद ऐसे ही चालू हुई थी ब्लॉगिंग। (आलोक जी का SMS नुमा चिट्ठा 9-2-11 तो देखा ही होगा) अब तो अन्य भी विविध रूप और आयाम हैं इसके और यही मज़ेदार बात भी है इसके बारे में। फिलहाल तो ऐसा ही सोचना है अपना।
अन्य बातें तो ठीक हैं पर हमारा नाम कहाँ लिख दिया चिठ्ठाकारों में! (वह तो अंतिम विकल्प के लिये Hint था, बस) हमने तो अभी कुछ विशेष लिखा ही नहीं - और आगे... ?
साँस फूल गयी और फेहरिस्त समाप्त नहीं हो रही है कहीं ऐसा तो नहीं कि कष्ट दिया हो इस प्रश्नव्यूह नें। यदि ऐसा है तो क्षमा चाहता हूँ।
वाह! ये अच्छा हुआ कि आप लेख भी लिखने लगीं! चिट्ठाजगत के बारे में आपके विचार जानकर अच्छा लगा!
अच्छा लगा पढकर । टू किल अ मॉकिंगबर्ड ,मुझे भी बहुत पसंद है । पर किताबों की बातें फिर कभी । लिखा करो खूब (अमित के लिये ही सही ;-)
ब हू हू, चिट्ठाजगत में इतने साहित्य-प्रेमी हैं कि हम खुद को अल्पसंख्यक महसूस करने लगे हैं। अभी हाल ही में बहुत शर्म आई जब भाई लोगों ने प्रिय पुस्तक, प्रिय लेखक पूछ डाले।
“चिट्ठा लिखना मेरे लिये एक "सेफ डिपोसिट बाक्स " की तरह है. मेरे खयाल ,मेरे खयाली पुलाव, मेरे हाल , मेरी चाल सबका लेखा जोखा इस जगह सुरक्षित रहेगा.”
आपने तो मेरे मन की बात कह दी। यही तो खासियत है जी चिट्ठाकारी की। मैं भी पहले कई मैगजीनों से, किताबों से,हिट एंड ट्रायल द्वारा टिप्स एंड ट्रिक्स सीखता था, उन्हें लिख कर रख लेता था लेकिन फिर वो इधर उधर होकर खो जाते थे।
ब्लॉगिंग ने इतना अच्छा माध्यम दिया है कि अब लिखा हुआ तो सेफ रहता ही है, पाठकों के भी कई बार काम आता है।
बड़ा अच्छा रहा आपको जानना और खास तौर पर यह जानना कि इस नाचीज की टीका टिप्पणियों पर आपकी नजर है, शुक्रिया!!
--होली की मुबारकबाद :)
पूनम जी जब भी आप के चिट्ठे का खयाल आता है एक दूसरे से बात करती वो डोरियाँ नजर आने लगती हैं।:) हिंदी चिट्ठाजगत में आने के बाद वो पहली उन पोस्ट्स में थीं जो मैंने पढ़ी थीं । खैर, अब आप अपने बेतरतीब पर अनूठे खयालों को नियमित रूप से जमा करती रहें तो हमें आपसे कोई शिकायत नहीं होगी ।
हिप हिप हुर्रे उसी वक्त देखी थी जब ये रिलीज हुई थी ।
हिप हिप हुर्रे हुर्रे हो होता है जो होने दो
हार जीत तो होनी है खेल तो यारों खेलने दो..
ये गीत उस वक्त जुबां पर चढ़ सा गया था। फिल्म भी काफी पसंद आई थी । वैसे भी उस जमाने में प्रकाश झा का परिवार हमारे घर के पास रहा करता था तो थोड़ा soft corner भी था उनके लिए ।:)
बहरहाल, मेरे चिट्ठे को आपने जिक्र के लायक समझा जानकर खुशी हुई ।
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