मंगलवार, जनवरी 18, 2011

अंडमान की यात्रा ..जहाँ अभी भी नैसर्गिक सौन्दर्य रिझाता है.

इस वर्ष तय हुआ कि साल की शुरुआत कहीं सैर सपाटे करते हुए,घर से दूर करेंगे.सो पहुँच गए ठण्ड से निजात पाने पोर्ट ब्लेर , भारत का एक खूबसूरत शहर .वैसे तो इंडियन एरलाईन के कारण शुरुआत काफी  रोमांचक हुई ,यहाँ तक  की ऐसा लग रहा था कि हमें   घर वापस जाना होगा. हवाई अड्डे पहुँचने पर बताया गया कि जिस प्लेन में हमारा टिकट है वह तो भर चुकी  है और हमें बैठाया नहीं जाएगा. लेकिन उस में भी एक मोड़ था.हमारे ६ सदस्य के परिवार दल के तीन सदस्यों को उन्होंने बोर्डिंग कार्ड दे दिया था . तो आधा परिवार चेन्नई में और आधा दिल्ली में.खैर कुछ बहसबाजी कर हम बाकी तीन भी चेन्नई पहुँच गए , रात के बारह बजे.
पर सवेरे  पोर्ट ब्लेर का जहाज समय पर चला और हम ८ बजे के करीब एक सुन्दर हरे  भरे शहर में पहुंचे.सर्किट हॉउस में ठहराने का प्रबंध था .फिर शुरू हुआ प्राकृतिक सौन्दर्य और इतिहास के संगम का सफ़र . दोपहर बाद हम गए पोर्ट ब्लेर से कुछ  किमी दूर   रॉस टापू. एबरडीन जेटी  से ही यह ऐतिहासिक द्वीप दिखाई पड़ता है. वहां के लिए जहाज जाते हैं और उसी दिन वापस भी आना पड़ता है.आख़िरी जहाज ४.३० बजे हमें वापस ले आया. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में ५७२ द्वीप हैं जिनमें सिर्फ ३८ ही आबाद हैं. बाकी जंगल ही जंगल.
रॉस टापू पर पहुँचते ही लगा कि हम इतिहास के पन्ने पलट रहे हैं. जहाज से उतारते ही एक जापानी युद्ध काल का  बन्कर दिखा.
रॉस आईलैंड का इतिहास रोचक है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने  स्वतंत्रता सेनानियों और बंदियों को अंडमान भेजने का निर्णय किया . रॉस आइलैंड को संचालन केंद्र बनाया गया और यहाँ चीफ कमिशनर का दफ्तर बना . आज रॉस टापू एक दम वीराना है. भारत की नौसेना का यहाँ एक अड्डा है और उस ने यहाँ एक छोटा म्युसियम बना है. पर एक ज़माना   था जब यहाँ  चहल पहल थी  और चीफ कमिश्नर का खूबसूरत   बंगले में  बॉलरूम  था ,एक सुन्दर चर्च ,वाटर ट्रीटमेंट प्लांट , अस्पताल,छापाखाना ,बाज़ार,बेकरी आदि सब थे. अब सिर्फ इनके खँडहर दिखाई पड़ते हैं. लेकिन खंडहर बताते हैं इमारत की बुलंदियों की कहानी . शानदार चर्च  अब टूट फूट गया है. इमारतों के खँडहर में वहां पाए जाने  वाले वृक्ष की जड़ों ने जकड लिया . जैसे कि बीते ह्युए कल से बदला ले रहे  हों  , भारतीयों  पर किये गेये ज़ुल्मों का.
 एक कब्रिस्तान भी दिखा .अंग्रेजों के ज़माने में पूर्व का पेरिस कहा जाता था यह टापू. १९४२ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों ने अन्य अंडमान के द्वीपों की तरह  यहाँ भी कब्जा कर लिया और १९४५ में यह वापस अंग्रेजों के पास आया. जापानी आवास के समय नेताजी भी यहाँ पधारे थे और यहाँ के मुख्यालय पर भारतीय झंडा लहराया था . लेकिन १९४५ के बाद अंग्रेजों ने इसे त्याग ही दिया और पोर्ट ब्लेर में अपना मुख्यालय  स्थापित किया.




वहां पहुंचकर , नौसेना सबसे एक रजिस्टर में नाम दर्ज करवाती है और २० रुपये प्रवेश शुल्क है. घूमते रहे और देखते रहे इतिहास को. पेड़ों की भरमार तो है ही,लगता ही नहीं यहाँ कोई रहता है. हिरन के झुण्ड घूमते नज़र आयेंगे और अगर आप हाथ बढ़ाकर बिस्किट दें तो कभी अपनी झिझक छोड़ कर  आपके नज़दीक भी आ जाते हैं..
चर्च की पीछे की तरफ है एक छुपा   हुआ समुद्र तट  'फेरार बीच' .कम लोग वहां तक जाते हैं इसलिए बड़ा अच्छा लगा वहां बैठना .समुद्र में लटकती पेड़ की एक शाखा पर हम डगमगाते, डरते जा बैठे. पेड़ों के बीच पगडंडियों  पर,खंडहरों के इर्द गिर्द  घूमते वापस जाने का समय हो गया . सोच कर लगा कि कैसे एक भरा पूरा कस्बा अब सिर्फ सैलानी आँखों  की कौतुहल का विषय रह गया है .

2 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…

लगता है कि देखने जान पड़ेगा।

MadanMohan Tarun ने कहा…

Bahut Achhaa likhaa aapne.Chitra aur varnan dono hi prashansneeya hain.

MadanMohan Tarun