गर्मी तेज़ है। जैसी ही सर्दियां कम हुईं मैंने चिड़ियों और अन्य जीव जंतुओं के लिए एक बड़े से मिट्टी के बर्तन में पानी रख दिया था।आगे पीछे दोनों।बड़े इतरा कर मैं कहती हूँ दिल्ली के एक ख़ास इलाके में रहती हूँ। घर की चारदीवारी के अंदर ही बहुत से पेड़ हैं। पशु पक्षियों दोनों का ही खेला लगा रहता है। चिड़िया चहचाती हैं,गिलहरी इधर उधर व्यस्तता में दौड़ती रहती है,बन्दर जब आते हैं तहस-नहस तो होना ही है।सिर उठाकर आसमान की ओर देखती हूँ तो एक पेड़ पर तोतों का ही राज है। बोलते,चहचहाते फुर्र से उड़कर कभी इधर कभी उधर,इस डाल उस पात।एक ऊंचा शायद खजूर का पेड़ है जिसकी चोटी पर बाज बैठा है।तीखी नज़र से सब पर निशाना है उसका।और उसके विपरीत बरामदे में रखे पौधों पर एक नन्हीं सी चिड़िया पंख फड़फड़ाते हुए मंडरा रही है। बाहर कुर्सी मेज लगाकर इन्हें देखने में इतना आनंद आता है मानो सब मेरे ही हों। सिवाय बंदरों के। न वो मेरी सुनते हैं न कदर करते हैं। घंटों बैठ कर देख सकती हूँ इन सब को। आज सवेरे टहल रहे थे तो बगीचे में चिड़ियों के दाने पर गिलहरी का कब्ज़ा देखा। वैसे मैंने चिड़िया को चुगते हुए कभी नहीं देखा। ऐसा संयोग नहीं बन पाया। गिलहरी,क्या पता महादेवी वर्मा की गिल्लू की कोई वंशज होगी, बड़े इत्मीनान से नन्हे पैरों से दौड़ती आयी और उस पेड़ से लटकी थाली से सवेरे का नाश्ता करने लगी। मैंने भी आज उसे कैमरे में बटोरने की ठान ली थी। दबे पाँव गयी ... वैसे मेरा सिर्फ वहम है कि मैं दबे पाँव जाती हूँ। चिड़िया हो चाहे गिलहरी इन्हें दूर से ही आहट मिल जाती है।आज मेरे ऊपर कुछ मेहरबान थी या फिर कुछ विश्वास हो चला। मेरे करीब जाने पर वह भागी तो पर आसपास ही रही। कुछ किटकिट कर के खाती फिर मैं जैसे ही क्लोज़-अप के लिए एक कदम आगे बढ़ाती वह झटपट पत्तियों में भाग जाती। बहुत देर तक हमारा यही खेल चलता रहा और मैं उसका खाना रिकॉर्ड करती रही। काश गिल्लू की तरह वह भी मेरे साथ बैठती या मेरे कंधे पर चढ़ जाती। ऊके लिए मुझे उसी पेड़ के नीचे पड़ाव डालना पड़ेगा। वैसे यह भी है कि इतनी गिलहरियों में पहचानूँगी कैसे। नज़दीक आने नहीं देतीं,न आती हैं और दूर से सब एक जैसी। पर हैं सब बहुत नटखट। कितनी बार मैंने इन्हें एक दूसरे के पीछे भागते हुए देखा। पर जब वह दाना खाती हैं तो ह्रदय को बहुत खुशी मिलती है।
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