मंगलवार, मार्च 14, 2006

रंगीला रे

पिछ्ला चिट्ठा लिखा तो यादों का एक सिलसिला शुरू हो गया.कुछ बसंत का प्रभाव ,कुछ समीरजी की वतन से दूर होली की कसक वाली कविता ,कुछ आज सवेरे माँ का एक होली गीत गुनगुनाना.सब ने मिल कर मुझे अपनी उसी पुरानी कालोनी की होली को यहाँ अवतरित करने के लिए प्रेरित किया. पहले मम्मी का लोकगीत.बाग़बान फिल्म के बाद यह काफी मशहूर हो गया है लेकिन उस का असली रूप कहीं ज़्यादा मीठा है.

"होरी खेलें रघूबीरा अवध में, होरी खेले रघुबीरा..
कैके हाथ कनक पिचकारी कैके हाथ अबीरा
अवध में होरी खेले रघुबीरा...
राम के हाथ कनक पिचकारी ,लछमन हाथ अबीरा
अवध में होरी खेले रघुबीरा.."
माँ कहती है अवध की होली और ब्रज की होली में अंतर है.अवध की होली मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह सीमाओं में बँधी ,उसके लोकगीत भी उसी तरह ....स्नेहमयी,मर्यादित.ब्रज की होली नटखट ,गोपियों और कृष्ण की रासलीला से सराबोर .उसका भी एक गीत उन्होंने सुनाया:
"मत मारो ललन पिचकारी ,
घरे जाबे मारी
पहिला पीक मोरी चुनरी पे पडिगा
मोरी चुनरी के दाग छुडावो ,घरे जाबे मारी"  

लेकिन मेरी यादों की होली इन दोनों के बीच की है .एक सीमा में रहकर भी हल्ला,हुडदंग ,नाचना गाना। होली की तैयारियाँ तो पहले से शुरू हो जाती थीं.घर की सफाई से लेकर माँ की आँख बचाकर ताज़ा बनी गुझियों की सफाई। घर ताज़ा आलू के पापड़  और सेव की महक से भर जाता  हम सब इस बात पर होड़  लगाते कि कौन कितना पतला पापड़ बेल सकता था। धूप में सुखाना,समेटना,फिर तुरन्त उनको तल कर खाने की ज़िद करना।  माँ कहती होली के पहले नहीं...होलिका दहन हो जाने दो। पर सबसे मज़ा आता गुझिया बनाने में। मुझे याद है साल का यह इकलौता मौका होता जब पापा भी रसोइ के किसी काम में हाथ बँटाते।
कालोनी होने के कारण बच्चों के लिए हर घर के दरवाज़े हमेशा खुले रहते। और हर घर में उतना ही खयाल जैसे अपने घर में। होली की शुरुआत भी बच्चा पार्टी करती। हम लड़कियों को कुछ ज़्यादा तैयारी करनी पडती। सिर पर तेल ,मुँह पर एक पर्त वैसलीन और नाखून पर नेल पालिश ताकि उन पर रंग न लग जाए! सारी टोलियां अलग अलग निकलतीं ...बच्चे,मम्मीयां,पापा लोग । छोटे बच्चे पानी लाने और रंग की सप्लाई का काम करते। वहाँ का यह एक अलिखित नियम था कि पेंट इत्यादि का इस्तमाल वर्जित होगा। 
होली की शुरुआत बडे ही शालीन तरीके से होती।  बच्चे सब बडों का पैर छूकर प्रणाम करते,गुलाल लगाते और आशीर्वाद लेते। पर दिन चड़ता,रंग का असर दिखता और तब निकाले जाते पानी के रंग। किचन गार्डेन के पाइप,टब और गीली मिट्टी जब रंग का भंडार समाप्त हो जाता। जो लोग घरों से नहीं निकलते...उनकी तादाद न के  बराबर थी। पर उनको निकाल्ने का जिम्मा हम लड़कियों का होता। रो कर,बहला फुसलाकर ,चाणक्य नीति से उनको भी जश्न में शामिल कर लेते। यह अलग अलग टोलियाँ अंततः एक पार्क में मिलतीं और अब दूसरा चरण आरम्भ होता...कुछ फ्लर्टिंग,कुछ छेडखानी ,कुछ कलाइयाँ पकड़ी जातीं,कुछ भाभी-देवरों की तकरार। गाना बजाना,नाचना ,गुझिया खाना,थोडी ठंडाई। धूप चड़  गयी है। दिन के दो बज गए। सूखे रंग चेहरे पर चिडचिडाने लग गए। भूख भी लग रही है।  सब अपने घर वापस जाने को उत्सुक। शाम के होली मिलन की तैयारी भी करनी है। लेकिन वहाँ पर रंग छुडाने का कार्यक्रम भी सामूहिक होता। एक ट्यूबवेल था जहाँ हम एकत्र होते और तेज़ धार पानी में काफी रंग उतर जाते। य़ा फिर किसी के भी घर के पीछे किचन गार्डेन में...सीचने वाला पाइप लगाकर। जब तक की मम्मियों की डाँट न पड़ती।  थके कदम घर की ओर रुख करते,नहाने के लिये ,गर्मा गर्म पूडियाँ खाने के लिये। 
अब न वो कालोनी का वातावरण रहा ,न वो अल्ह्ड़पन,न वो बेफिक्री। गुझिया बाज़ार से आती है ,पिचकारियां चीन से और रंग कच्चे। 

5 टिप्‍पणियां:

Tarun ने कहा…

Holi ke baare me par par ke holi ki yaad barti ja rahi hai......

Holi hai, hindi blog jagat me swagat ke saaath

Jitendra Chaudhary ने कहा…

पूनम जी,
आपको और आपके परिवार को हमारी ओर से होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं। इस होली मे हर्बल रंगो का प्रयोग करें।

Poonam Misra ने कहा…

तरूण और जीतेन्द्रजी, आपको और हिन्दी ब्लोग के सभी सद्स्यों को होली की रंग भरी शुभकामनाएं

Udan Tashtari ने कहा…

पूनम जी
अब तो वहॉ भी होली सिर्फ किताबों मे है।
ढेरों शुभकामनाऐं।
समीर लाल

बेनामी ने कहा…

didi,

bachpan ki woh haseen yadein phir taaza ho gaeen
ishwar sey prarthna hai ki agli holi phir rageen ho jaye