बुधवार, अप्रैल 04, 2007

क्या कहेगा कोइ अपनी पहचान किससे है
पति,बच्चों,या अपने पेशे से है.
हर रूप पहचान है मेरी
बिना एक के दूसरा अधूरा है.

लोग कहते हैं वो ढूँढ रहे हैं खुद को
मैं हर बार टूट कर बनाती हूँ खुद को.
ज़िन्दगी सफर है मंज़िल नहीं
लोहूलुहान पैरों का मरहम यहीं पर है.

यह सुख नहीं कि अपनी झलक दिखे कहीं
यह दुख भी नहीं कि कोई अपना नहीं.
तनहाई थी तो बेइंतहा साथ भी है
खुद पर भरोसा है तो साथी का हाथ भी है.

वो भी सफर के रास्ते थे जो पीछे छूट गये
रास्ता यह भी मखमली नहीं
निश्चित है तो सिर्फ
हर मोड का विस्मय.

8 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

अच्छा परिचय है। दुख है तो सुख भी है। जिंदगी सफर है, मंजिल नहीं। बधाई!

सुजाता ने कहा…

किसी का आग्रह है अपने बारे में कुछ बताइये. पति,बच्चे ...

क्या कहेगा कोइ अपनी पहचान किससे है
पति,बच्चों,या अपने पेशे से है.

सही फ़रमाया आपने!
इस "किसी" से सावधान रहिएगा। न बताने पर यह जासूसी करता है और सब विवरण प्रकाशित करने की धनकी भी देता है ।
हम भुक्त्भोगी है।

Neelima ने कहा…

कविता अच्छी लगी .पूनम जी

ghughutibasuti ने कहा…

अच्छी कविता है।
घुघूती बासूती

Rajeev (राजीव) ने कहा…

पूनम जी, आपने तो अपने चिट्ठे के नाम को सार्थक रखते हुए यह कविता लिख दी!

निश्चित है तो सिर्फ
हर मोड का विस्मय.

क्या खूब कहा है - जैसा कि मैं भी अक्सर सोचता हूँ
अनिश्चितता ही निश्चित है
परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि विस्मय के अनुभव होते-होते हर मोड़ का विस्मय भी विस्मयकारी नहीँ जान पड़ता।

संगीता मनराल ने कहा…

मेरी अभी हाल ही मे शादी हुई है| पहले पहल ये सब बातों से अंजान थी लेकिन अब लगता है यही जिन्दगी का सच है| अच्छी और सार्थक कविता| बधाई!

Mohinder56 ने कहा…

पूनम जी
बहुत सही और सटीक लिखा है आप ने..

जीवन यही है, कभी आप किसी के चारो तरह चक्र लगाते है, कभी आप धूरी होते है और बाकी सब आप के चारो‍ और...

बाहर का तो पता नही मगर... नारी के बिना घर.. शमसान बराबर है

शैलेश भारतवासी ने कहा…

आपकी कुछ पंक्तियाँ आश्चर्यचकित करती हैं, अद्‌भुत उपमाएँ-

ज़िन्दगी सफर है मंज़िल नहीं
लोहूलुहान पैरों का मरहम यहीं पर है.

निश्चित है तो सिर्फ
हर मोड का विस्मय