खूब हस्त खूब हस्तम .खान-ए-खैरत ह्स्ती? काबुल पहुँचने पर स्वागत होता है ऐसे. तमाम तरीकों से खैरियत पूछने के बाद .हिन्दुस्तानियों से खास लगाव.तुरन्त उर्दू में बात करने को बेताब लोग.रास्ते भर एके -४७ के दर्शन .ऊँची ऊँची दीवारों के पीछे घर.न किसी का आँगन दिखे न किसी का बगीचा.तमाम जगह निर्माण का काम .एक टूटे शहर को आबाद करना है.निशान ज़खमों के.घरों की दीवारें छलनी हैं गोलीबारी से.चमन के माली ही उजाड गए जिसे .....उस गुलशन के आसुओं का बयान क्या करना .घर भी छलनी हैं ,दिल भी छलनी हैं .हाजी साहब काबुल दिखाते हुए मायूस हो जाते हैं .दरख्त भी नही छोडे किसी ने.बाग तक काट दिए .नदी बेज़ार सी बहती हुई. गवाह है तारीखों के गुम हो जाने की .पर्वत अपने शहर को न बचा पाने की बेबसी में लाचार से दिखते. सूखे . सडकों पर जहाँ खिलखिलाहट होनी चाहिए बच्चों की.....आवाज़ आती है गश्त लगाती फौजों की.
1 टिप्पणी:
अरे फिर अचानक ही आ गईं आप!
वो भी काबुल से..छोटी किंतु सटीक झांकी लगी आज के काबुल की।
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