मकबूल फ़िदा हुसैन के बारे में एक पोस्ट पढी .मुझे भी एक वाक़या याद आया जब मैंने उनसे औटोग्राफ लिया था.बात १९९३ की है.फरीदाबाद का मशहूर सूरज कुंड मेला चल रह था.थक हार कर शाम को हम बाहर निकले तो मेरी नज़र पडी एक लंबे गोरे हैंडसम शख्स पर .सफ़ेद बाल और सफ़ेद दाढी .ध्यान से देखा तो नंगे पाँव .दिमाग में कुछ पढा हुआ याद आया.कहीं पढा था कि एम ऍफ़ हुसैन जूते नहीं पहनते .वो कुछ आगे तेज़ी से चलते जा रहे थे और मैं भीड़ में फंसी.पर फिर भी दौड़ लगाई और पहुँची उनके पास। औटोग्राफ के लिए कागज़ ढूँढने लगी पर साथ में तो बटुवा भी नहीं था.तुरंत अपना शाल आगे बढ़ा दिया .पर अब कलम नहीं. हुसैन साहब ने मुस्कराकर अपने झोले से पेन निकाली और मेरे पीले शाल के कोने में अपने ह्स्ताक्षर कर दिए।
सिर पर हाथ फेरा.मैंने भी शुक्रिया किया और सूरज कुंड के उस मेले का यह अमोल तोहफा संभाल कर रख लिया.कहना न होगा वह शाल पहनने के काम तो फिर न आया .पर यह घटना सुनाते समय और वह क्षणिक मुलाक़ात को याद करने के लिए में बडे बाल सुलभ उत्साह से उसे दिखाती हूँ ।
सिर पर हाथ फेरा.मैंने भी शुक्रिया किया और सूरज कुंड के उस मेले का यह अमोल तोहफा संभाल कर रख लिया.कहना न होगा वह शाल पहनने के काम तो फिर न आया .पर यह घटना सुनाते समय और वह क्षणिक मुलाक़ात को याद करने के लिए में बडे बाल सुलभ उत्साह से उसे दिखाती हूँ ।
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