आज बहुत दिनों बाद ऐसा मौका हुआ की कुछ जन्मदिन के कार्ड डाक से भेजने थे। एक अदद पत्र पेटिका ढूंढते ढूंढते कई सडकों के चक्कर लगाए । आख़िर काफ़ी देर बाद एक छोटे से पोस्ट आफिस के सामने लेटर बॉक्स मिला। शहर में रहनेवालों के लिए अब चिट्ठी ,स्टैंप,डाकघर मानों लुप्तप्राय से हो रहे हैं। अब ज़माना है कुरियर का,ईमेल का, मोबाइल से बात करने का। यह चिट्ठी - पत्री तो किसी गुज़रे ज़माने की बात हो गयी। यह सब सुविधाजनक तो है पर चिठ्ठी का रोमांस इन में कहाँ।
मुझे याद है जब मैं पहली बार घर छोड़कर दिल्ली नौकरी करने गई थी.हर चीज़ को देखकर अपने घरवालों से बांटने का इतना मन करता की चिट्ठी कम पोथी ज़्यादा घरवालों को मिलती। जवाब में भी एक पोथी ही मिलती.हर बात का ज़िक्र ,हर घटना का बड़ी तसल्ली से वर्णन .मेरी चिट्ठियों के तो हाशिये पर भी कुछ न कुछ लिखा होता और अगर शब्दों से काम न चलता तो ग्राफिक्स भी बनाए जाते.फोन आता पर कम हफ्ते में एक बार और इसलिए उसका भी बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता। हम भी अपने प्रशिक्षण केन्द्र से बाहर किसी "पी सी ओ" पर लाइन लगाते घर फोन मिलाने के लिए। और अब सोते जागते ,जब मन चाहे फोन लगा दिया जाता है,मोबाईल की सहूलियत है.पर इंतज़ार की वह बेकरारी नहीं।
इनबाक्स खोलिए तो बहुत सी ईमेल आपके पास आई होंगी पर हाथ से लिखी चिट्ठी की आत्मीयता शायद उनमें न मिले। संपर्क तो तुंरत स्थापित हो जाता है पर चिट्ठी की तरह हर बात बताने की तड़प उनमें नहीं झलकती।
घर बैठे कुरियर वाला आपकी डाक ले जायेगा पर डाकिये की साइकिल ,खाकी युनिफोर्म और घर परिवार की खुशी में वह नहीं सम्मलित होता.मुझे याद है अपोइन्ट्मेन्ट लेटर मिलते ही हमारा डाकिया जिद पकड़ लिया की यह तो तभी मिलेगा जब मेरी बख्शीश और मिठाई का डिब्बा बदले में दिया जायेगा.आख़िर बेबी की नौकरी लगी है ! बचपन से वह देखता आ रहा था हमें । काली कोने वाली चिठ्ठी भी उसी ने हमें दी जब दादाजी नहीं रहे और हमारी शादी का कार्ड भी उसी ने बांटा ।
पोस्टकार्ड की भी याद आती है.दूरदर्शन से प्रसारित सुरभि में पूछे प्रशनों के जवाब लिख कर भेजने के लिए पोस्टकार्ड आए। हमारे एक भाई को अपने हॉस्टल से चिट्ठी लिखने में आलस आती थी सो उन्हें पते लिखे पोस्टकार्ड थमा दिए गए की भैया इस पर अच्छा हूँ लिख कर डाल दिया करो !
प्रगति की नाम पर हमारी जिंदगी में आराम के साधन बहुत हैं पर वह रूमानियत नहीं।
10 टिप्पणियां:
बहुत ही सुंदर और प्यारा पोस्ट,अच्छा लगा पढ़कर.शुभकामनाएं.
आलोक सिंह "साहिल"
अब वो दिन कहाँ रहे..
सब ई-युग का ज़माना है.
प्रगति की नाम पर हमारी जिंदगी में आराम के साधन बहुत हैं पर वह रूमानियत नहीं।
-सच तो है मगर अब इसी में रुमानियत जगानी पड़ेगी-और क्या रास्ता है. :)
मेरे साथ तो कम से कम ऐसा नहीं है। अभी भी सप्ताह में एक दिन तो पोस्टमैन आ ही जाता है। शायद, लेखक जो ठहरा। इसलिए उसके आने का इंतजार बना ही रहता है।
"इनबाक्स खोलिए तो बहुत सी ईमेल आपके पास आई होंगी पर हाथ से लिखी चिट्ठी की आत्मीयता शायद उनमें न मिले।"
सही बात है. मेरे बच्चे जब हास्टल में थे तो मैं हमेशा हस्तलिखित पत्र भेजता था!!
-- शास्त्री
-- समय पर दिया गया प्रोत्साहन हर मानव में छुपे अतिमानव को सबके समक्ष ला सकता है, अत: कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
सही कहा आपने। हाथ से लिखे खतों की बात ही और है। उनमें जो अपनापन होता है, वह ईमेल में नहीं।
आप भी लखनऊ की रहने वाली हैं, यह जानकर खुशी हुई।
चिटठी पर चिटठा, क्या बात है। सुन्दर प्रस्तुति।
चिट्ठी चिटठा और पोस्ट मेन बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति.
सही कहा आपने अब अपनेपन से लबरेज वो चिटिठयाँ सिर्फ यादों में ही रह गयी हैं।
आप शायद मानेंगी नहीं यह पोस्ट पढ़ते कितने दोस्त याद आ गये, ना जाने क्या क्या याद आ गया। वे भी क्या दिन थे जब पोस्टकार्ड और अन्तर्देशीय लिखा करते थे। श्रीमतीजी को पहला पत्र भी अन्तर्देशीय में ही तो लिखा था।
आज तो शायद बच्चों को पता भी नहीं होगा कि लिफाफा, पोस्टकार्ड और अन्तर्देशीय कैसा होता है।
कितने दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ, पता नहीं क्यों इतनी बढ़िया पोस्ट मैं पढ़ने से कैसे चूक गया?
आप से शिकायत है आप भी तो नियमित नहीं लिखती हैं।
sagarnahar @ gmail.com
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