गुरुवार, नवंबर 06, 2014
गुरुवार, अक्टूबर 02, 2014
स्वच्छता दिवस पर कुछ ख़ास
कुछ दिनों पहले घर की साफ़ सफाई पर कुछ 5 -6 मिनट की एक लघु प्रस्तुति की थी। उस पावर पॉइंट प्रस्तुत को वीडियो में रूपांतरित किया पर पार्श्व स्वर का चित्रों के साथ तालमेल नहीं बैठ पाया। बहरहाल ,स्वच्छता दिवस के सन्दर्भ में , अभी तो इसे यहां पर डाल दे रही हूँ। फिर बाद में इसका तालमेल बैठाकर ,सही करूंगी।
सोमवार, सितंबर 22, 2014
रविवार, सितंबर 21, 2014
कल आज और कल
जीवन का एक अध्याय दूसरे से कितना भिन्न हो सकता है ,यह कल्पना से भी परे की बात है। कल जो जीने का तरीका था आज सिर्फ एक स्मृति बन कर रह जाता है। कल आफिस और घर की व्यस्तता सवेरे की चाय हरी होती ट्रेफिक लाइट पर आगे निकलने की होड़ में भागती हुई गाड़ियों की तरह पीना पड़ता था। अब चाय की हर चुस्की हलक से नीचे गुज़रते हुए ,चाय की ताज़गी के इश्तिहार में नाचते हुए दाने की तरह लगती है।आज ही कुछ हमउम्र दोस्तों के साथ बैठकर संस्कारों और महिलाओं पर राह चलते गिद्धनज़र डालते मनचलों की बात हो रही थी। लगा कि शायद यह छेड़छाड़ अब कम हो गयी है। तभी किसी ने अपने सफ़ेद हो गए बालों पर हाथ फेरा,अपने बेकाबू होते वजन पर ध्यान दिया और समझ में आया की इस हाल में कौन छेड़ेगा भला। पर हाँ अपने युवावस्था के दिन का भी ख्याल तुरंत आ गया। याद आ गया,कि राह चलते, ट्रेन में जाते,कालेज जाते हम सबने कितने फिकरे,कितनी छेड़छाड़ और कितनी ही भद्दी नज़रों का सामना किया है। फिर भी मुस्कुराते हुए अपनी पढ़ाई,अपनी नौकरी, अपनी ज़िंदगी जी। याद करते हुए यह भी एक आह निकली कि हाय यह आंटी का सम्बोधन कितना तकलीफदेह होता है।कोई बीस से तीस साल के उम्र के दरमियान,दीदी से आंटी बन जाना भी जीवन का एक दुखद किन्तु अनिवार्य दस्तूर है। एक बड़ा झटका लगता है जब पहली बार कोई आंटी कहकर सम्बोधित करता है!और अब उम्र के इस मोड़ पर शायद अस्तित्व इस आँटी के सम्बोधन में लिपट कर रह गया है।
इसी कमबख्त बढ़ती कमर ने एक और पहले की खुशनुमा स्मृति ताज़ा कर दी।वह दिन जब खाने के ऊपर कोई पाबंदी न थी।जब हर कौर के साथ कैलरी नहीं जुडी थीं। जब छरहरी काया पर बेइख़्तियार बढ़ते वज़न का मनहूस साया न था।वो समय था जब ठेले पर लगी चाट,आलू टिक्की और पानी के बताशे पर ज़बान फिसल जाती थी,समोसे पर मन मचल जाता और मीठे की मक्खी बनने पर कोई रोक नहीं। अब उबली सब्ज़ियाँ और सूप,संतुलित आहार और अगर कुछ मीठा खा लिया तो उससे बनी चर्बी को कम करने के तरीके ढूंढता यह परेशान मन !अब हर निवाला चर्बी का सवाल लेकर ही मुंह में जाता है।
बढ़ती उम्र में कहीं खो गया वह पहले प्यार की लाली देने वाला मीठा एहसास।जब उसका हाथ छू भर जाए के बस ख़याल से ही साँसों में एक महक आ जाती,जब कोई संगीत अपने आप बजने लगता और लगता गालों पर फैलती लाली का राज कोई न जाने। जब मिल्स एंड बून के टॉल,डार्क,हैंडसम नायक को आँखें ढूँढतीं।अब टूटे रिश्तों, पेचीदा नातों,दफ़न हुए एहसासों,मर्यादों की रखवाली और हकीकत की सीमाओं से हुए मोहभंग का अंजाम है कि उस तरुणाई की अंगड़ाई की जगह ले ली एक परिपक्व प्यार ने जहां ठहराव है ,जहां ज़िम्मेदारियाँ हैं पर सपनों में अनुभव की सीलन है। युवा आत्मविश्वास का दर्प, आगे बहुत सा समय होने का आभास और "प्यार सिर्फ प्यार" की सरलता पर विशवास ,यह तो अब सिर्फ आँखें मूँद कर पीछे देखने पर ही दिखता है।
तब जीवन में आगे कदम रखने की अधीरता थी,अब हर आगे रखे कदम पर दस बार पीछे मुड़कर देखने की जैसे बेबस बाध्यता हो गयी है !बदलना दस्तूर है,बदलाव के साथ अभ्यस्त होना समझदारी पर बदलते दौर पर आहें भरना एक जायज़ अधिकार !
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इसी कमबख्त बढ़ती कमर ने एक और पहले की खुशनुमा स्मृति ताज़ा कर दी।वह दिन जब खाने के ऊपर कोई पाबंदी न थी।जब हर कौर के साथ कैलरी नहीं जुडी थीं। जब छरहरी काया पर बेइख़्तियार बढ़ते वज़न का मनहूस साया न था।वो समय था जब ठेले पर लगी चाट,आलू टिक्की और पानी के बताशे पर ज़बान फिसल जाती थी,समोसे पर मन मचल जाता और मीठे की मक्खी बनने पर कोई रोक नहीं। अब उबली सब्ज़ियाँ और सूप,संतुलित आहार और अगर कुछ मीठा खा लिया तो उससे बनी चर्बी को कम करने के तरीके ढूंढता यह परेशान मन !अब हर निवाला चर्बी का सवाल लेकर ही मुंह में जाता है।
बढ़ती उम्र में कहीं खो गया वह पहले प्यार की लाली देने वाला मीठा एहसास।जब उसका हाथ छू भर जाए के बस ख़याल से ही साँसों में एक महक आ जाती,जब कोई संगीत अपने आप बजने लगता और लगता गालों पर फैलती लाली का राज कोई न जाने। जब मिल्स एंड बून के टॉल,डार्क,हैंडसम नायक को आँखें ढूँढतीं।अब टूटे रिश्तों, पेचीदा नातों,दफ़न हुए एहसासों,मर्यादों की रखवाली और हकीकत की सीमाओं से हुए मोहभंग का अंजाम है कि उस तरुणाई की अंगड़ाई की जगह ले ली एक परिपक्व प्यार ने जहां ठहराव है ,जहां ज़िम्मेदारियाँ हैं पर सपनों में अनुभव की सीलन है। युवा आत्मविश्वास का दर्प, आगे बहुत सा समय होने का आभास और "प्यार सिर्फ प्यार" की सरलता पर विशवास ,यह तो अब सिर्फ आँखें मूँद कर पीछे देखने पर ही दिखता है।
तब जीवन में आगे कदम रखने की अधीरता थी,अब हर आगे रखे कदम पर दस बार पीछे मुड़कर देखने की जैसे बेबस बाध्यता हो गयी है !बदलना दस्तूर है,बदलाव के साथ अभ्यस्त होना समझदारी पर बदलते दौर पर आहें भरना एक जायज़ अधिकार !
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शुक्रवार, मार्च 21, 2014
बसंत आयो मोरे अंगना
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पेटूनिया |
गृह मग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।
(सुमित्रानन्दान पंत )
वसन्त ऋतु क्या आयी हवा में एक स्निग्धता सी फ़ैल गयी । फागुन की बहार जैसे शिशिर की ठण्ड से थोड़ी सिहरन लेती है ,आगत ग्रीष्म से थोड़ी नरमी उधार ले लेती है ,और उसमें फूलों के रस की मादकता डाल कर ऐसी बयार बन जाती है कि ह्रदय में एक हूक सी उठती है ,एक प्रीतमयी व्याकुलता सी छा जाती है ।
ऐसे में फूलों ,बगीचों में घूमना एक स्वर्गिक आनंद देता है। नीम के पेड़ से पत्तियां झड़ रही हैं ,पीपल का विशाल वृक्ष सूना हो गया है ,पर बसन्ती हवा के आवेश में आम तो बौरा ही गया । सब अपने अपने तरीके से नवजीवन के लिए तैयार हो रहे हैं। मैं देख रही हूँ घर में नीम्बू और मौसमी पेड़ है उसमें भी चिकने नए पत्ते और छोटे छोटे फूल निकले हैं।
वसंत का जादू जब छाया तो अपने बगीचे में घूम घूम कर आँखों से उसका रस पीना ,उसे अपने भावों में समाना ,इस मधुमास का मदिर पान करना ,यही तो मादकता की पराकाष्ठा है।
इस बार जनवरी और फरवरी में हो रही बेमौसम बारिश ने लाख प्रयत्न किया , बसंत के रंग में भंग डालने का ,पर उन्मादित फाल्गुनी पवन को रोक नहीं पाया । वह तो हर विपरीत स्थिति से निकल कर अपना सौंदर्य बिखेरने पर आमदा है।
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मधुमक्खी और डाहलिया |
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बस अभी कली फूल बनने को है |
मै अग-जग का प्यारा वसंत।
मेरी पगध्वनि सुन जग जागा
कण-कण ने छवि मधुरस माँगा।
नव जीवन का संगीत बहा
पुलकों से भर आया दिगंत।
मेरी स्वप्नों की निधि अनंत
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत।
(महादेवी वर्मा )
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आइस प्लांट |
रविवार, मार्च 09, 2014
जादू की पुड़िया
जादू की पुड़िया है ,जीवन का यह खेला
जिसको भी देखो वह आया अकेला
फिर यह साथ दिखता कैसे यह रेला
लोगों की भीड़ है रिश्तों का एक मेला !
इस जादू की पुड़िया में होता कुछ गजब है
आते सब इंसान है जुड़ जाता एक मज़हब है
इंसानियत के मतलब हो जाते बेसबब हैं
दिल की दूरियों के सबब होते कुछ अजब हैं !
इस जादू की पुड़िया में न जाने कैसे राज हैं
कोई निकला भिखारी ,किसी के सिर पर ताज है
कोई काले रंग की दौलत पर भी करता बड़ा नाज़ है
कोई करता कड़ी मेहनत पर किस्मत नाराज़ है !
जादू की पुड़िया के करतब कर देते दंग हैं
माँ के पेट में सब के पलने का एक ही ढंग है
दुनिया में बेटा आये तो भर जाए सात रंग है
और बेटी होकर निकले तो सब रंग बेरंग हैं ?
जादू की पुड़िया यह जीवन कैसा तमाशा है
कहीं बदलते रिश्तों से आती हुई हताशा है
कहीं फैलता तिमिर लाता सिर्फ निराशा है
पर जादू तो जादू है ,दिखा सकता भोर सी आशा है !
बुधवार, फ़रवरी 19, 2014
बेकरारी
बसंत की दोपहरी कुछ अलग सी है
जब हवा छूकर कहती है
किसी के साथ की आस हो
दिल कुछ गुनगुनाए
कभी ठंडी एक बयार ,
कभी गर्म हवा का झोंका
न करार दे,
न बेकरारी ही बने रहने दे।
पैरों तले घास की नमी
और दिल में घुसती
हवा के साथ आयी
प्यार की गर्मी।
करार भी देती है
और बेकरारी भी।
जब हवा छूकर कहती है
किसी के साथ की आस हो
दिल कुछ गुनगुनाए
कभी ठंडी एक बयार ,
कभी गर्म हवा का झोंका
न करार दे,
न बेकरारी ही बने रहने दे।
पैरों तले घास की नमी
और दिल में घुसती
हवा के साथ आयी
प्यार की गर्मी।
करार भी देती है
और बेकरारी भी।
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