रविवार, जुलाई 09, 2017

हम फिदाए लखनऊ


लखनऊ है तो महज़ गुम्बद-ओ मीनार नहीं,सिर्फ एक शहर नहीं,कूचा ओ बाज़ार नहीं,
इसके दामन में मोहब्बत के फूल खिलते हैं, इसकी गलियों में फरिश्तों के पते मिलते हैं,
'लखनऊ हम पर फ़िदा, और हम फिदाए लखनऊ 
क्या है ताकत आसमां की, जो छुडाये लखनऊ

लखनऊ कह लें या नखलऊ........ अवध के नवाबों ने बड़े नाज़ से इस शहर को आबाद किया। उनके हर शौक की निशनियां यहां बिखरी हैं । बड़ा इमामबाड़ा की भूलभलैया  में छिपी है  नवाब आसफ-उद -दौला की वह कहानी जो अकाल में जनता की मदद के लिए स्वयं उसको बनाने में जुट  गए। वह भावना दिलचस्प है जो नवाबी खानदान से जुड़े लोगों की  शाख़  में गुस्ताखी लाये बिना उनकी ज़रूरतों को पूरा करने का उपाय ढून्ढ लाई । लखनऊ  में हर मोड़ पर उस ज़माने की इमारतें रास्ता रोके खड़ी हैं। छोटा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, छत्तर मंज़िल ,रेजीडेंसी,बारादरी,दिलकुशा ,शाहनजफ का इमामबाड़ा ऐसे कितने ही अद्भुत स्मारक चिन्ह लखनऊ को एक अलग पहचान देते हैं।  अंग्रेज़ों  की बसाई छावनी के गिरिजाघर हों या आज का हज़रतगंज स्थित बृहत् केथेड्रल ,सब इस शहर को चार चाँद लगाते हैं। वैसे चाँद की चाँदनी की बात करें तो यहाँ के नज़ाकत और नफासत वाली हवाओं के लिए वह भी बहुत गर्म हैं। यहाँ तो हज़रतगंज में शाम की सैर करने पर भी ज़ुखाम हो जाने के चर्चे हैं ! शाम -ए -अवध का मज़ा उठाना हो तो  गंजिंग करना अनिवार्य है। मेफेयर का ज़माना अब नहीं रहा। उसका मलाल हमेशा रहेगा।  जनपथ है,रॉयल कैफ़े है ,शुक्लाजी की चाट है ,रामआसरे की मिठाई है , हनुमान मंदिर है। राम आडवाणी की पुस्तकनिधि है, रोवर्स के सामने  भीड़  है, खियामल की साड़ियां हैं।
  पर अगर असली खरीदारी करनी है तो चौक की गलियों में आरी,जाल ,मूरी ,फंदा,टेपची और न जाने कितने कमाल दिखाती चिकनकारी को देखिये। वैसे अमीनाबाद का गड़बड़झाला और नजीराबाद भी कम नहीं। कुछ आगे है लखनऊ का सबसे पुराना बाजार नक्खास। यहाँ अब भी  चिड़ियों का एक अनूठा बाज़ार लगता है।  लखनऊ का नाम लेते ही बहुत से नाम तुरंत याद आ जाते हैं। चिकन की महीन कशीदाकारी तो है ही , साथ में कितनी और कलाओं का पर्याय है यह शहर। यहाँ हर शौक को परिष्कृत कर एक ललित कला का रूप दे दिया गया । पहले आप और आदाब के इंतहाई अदब के साथ साथ यहाँ मशहूर हैं नफासत के कई किस्से। नवाब साहब का दाँत टूट गया  तो उनके खानसामा ने तुरंत गल जाने वाले गलावटी कबाब पेश  किये । ज़रा सोचिये इसमें सौ से भी अधिक मसालों  का इस्तेमाल होता है। क्या आपने जरकुश और बओबीर का  नाम  सुना है कभी ? क्या चन्दन को मसाले की तरह सोचा है कभी ?इसका मज़ा लेना हो तो टुंडे कबाबी के  यहाँ जाइये। कोयलों की  धीमी आंच पर घंटों पकता खाना  दम पुख्त के नाम से मशहूर  है और इससे  शुरू हुई लज़ीज़ पकवानों की एक अलग ही श्रृंखला।  पर शाही रसोई के बाहर भी यहाँ के खाने का मज़ा बेमिसाल है। अमीनाबाद की प्रकाश कुल्फी , वहीं पीछे कबरवाली दुकान की कचौड़ियां या दोपहर बाद लगता तिवारी की चाट  का ठेला  ...यहाँ का हर निवाला एक सवेदनशील ह्रदय की अभिव्यक्ति है।
जिस शहर में नवाब अपने निष्कासन  की पीड़ा  ठुमरी में व्यक्त करें ,वहां सुरों का राज न हो यह नामुमकिन है। " बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये" सुनकर फूटफूट कर रोने का दिल करता है।  गायकी का ज़िक्र आये और लखनऊ का हर बाशिंदा बेगम अख्तर से  राब्ता न बनाए यह हो ही नहीं सकता । बेगम साहिबा जब "ए मुहब्ब्त तेरे अंजाम पर रोना आया " गातीं तो हर लखनऊ वाला  शाम पर रोने के किस्से याद करता है।  वह शाम जो  कत्थक के लखनऊ घराने के थिरकते पैरों के घुंघरुओं से खनक जाती है ।   या वो शामें जो नीचे गोमती की लहरों और ऊपर  अठखेलियां करती पतंगों पर कुर्बान हैं ।
कहते हैं लखनऊ की सड़कें मंज़िल तक नहीं पहुंचाती हैं। वो खुद ही मंज़िल  होती हैं।  इसीलिये मुस्कराइए की आप लखनऊ में हैं।
तहज़ीब कोई मेरी नज़र में जंचेगी क्या
मेरी निगाहे शौक ने देखा है लखनऊ।



3 टिप्‍पणियां:

SANDEEP PANWAR ने कहा…

उपरोक्त सभी स्थलों के एक एक फोटो भी लगाना था,

Unknown ने कहा…

वाह बहुत खूबसूरत।पढ़कर मन लखनऊ की गलियारों मे घूमने लगा।लखनऊ की जुबां का जबाब नहीं चाहे वह भाषा की जुबां हो या खाने के लुफ्त़ की जुवा ंं

foreverinsearch ने कहा…

Wah!