मंगलवार, सितंबर 03, 2013

और किसके नाम हो सकता था यह 100वा चिट्ठा !

2006  से इस ब्लॉग की शुरुआत हुई थी।हिन्दी ब्लॉग जगत में हरकत होनी तब शुरू ई हुई थी।  कुछ चंद लोग थे ,एक परिवार सा लगता था. नारद मुनि का साथ था अब तो महासागर है, कुछ पुराने अभी भी चले आ रहे है ,बहुत रास्ते में रुक गए , कुछ बेतहाशा दौड़ते जा रहे हैं। मेरा भी यह प्रयास  कभी तेज़ कभी बिलकुल ही अनमना  सा    चलता जा  रहा  है। रुक जाता है ,ठहरता है ,पर पूर्णविराम अभी तक नहीं लगा । स्थिति वैसे पूर्ण विराम जैसी ही है।   अब तक सिर्फ 99 चिट्ठे लिखे,वह भी बेतरतीब। कभी कुछ अच्छा लगा तो लिख दिया,कभी कुछ संजो कर रखने का दिल करा तो यहाँ सुरक्षित रख दिया. गाहे बगाहे कुछ याद आया तो यहाँ डाल  दिया। अर्धशतक ही पूरा हुआ काफी देर में। इसे यहाँ देखें  http://poonammisra.blogspot.in/2008/02/blog-post_27.html
 सोचा था सौंवीं पोस्ट एक ख़ास मौके पर लिखूँगी। पिछ्ले साल अपने मम्मी पापा की शादी की पचासवीं वर्षगाँठ पर।  आयी चली गयी। नए साल के इरादों की तरह ,इरादा  तो पुख्ता था  ,बस यहाँ चिट्ठे में तब्दील नहीं हो पाया।
इस बार अपने जन्मदिन पर कुछ दिन माँ पापा के साथ बिताये.लम्बे अरसे के बाद ४-५ दिन साथ रहने का मौक़ा मिला. गर्मी के बाद बरसात होने पर जैसे फूलों में आयी चमक, हरियाली और हरी, सूखे गले से गट गट नीचे उतरता पानी ,उपवास  के बाद नमक का स्वाद , दिनों से अपने आप को संभालता  नदी से टूटता बाँध।
दोपहर में मम्मी के रुपहले हो चले बालों को सहलाते , उनसे बातें करते।  पापा को टीवी के सामने छोड़ ,गर्ल्स टॉक !चाय की चुस्की और हर चुस्की से ताज़ा होती उनकी बेहिसाब चाय पीने की पुरानी  आदत। अब सुनने में  कठिनाई होती है ,तो एक डायरी साथ में। जो उनको पकड़ में नहीं आता वो उसमें लिखना। जाने से पहले उसके पन्ने पलटे।  बचपन में उस समय पत्थर की फिसलती फर्श पर लेट कर हम दो बहनों को अ ,आ और a ,b c की शुरुआत  कराने से लेकर उनकी नवीनतम ख्वाहिश। चाहती हूँ तुम्हें टीवी पर देखना ! गुनगुनाते रहती हैं  लोकगीत।  राम विवाह के  स्नेहास्क्त किस्से बहुत ही तन्मयता से गाती तो नहीं पर बड़े भाव से उन्हें बाचती हैं।  जैसे वह सामने ही हों।  बहुत प्यारे हैं उन्हें लोकगीत खासतौर से जनक की राम की खातिरदारी।  आवाज़ में वो दम नहीं , शब्द भी भूल चुकीं हैं ,पर फिर भी रिकोर्ड कर लिया उनका गाना……निहुरे निहुरे परसें जनकजी,धोतिया मईल हो जाई की हाँ जी ;धोतिया  तो हमरे धोबी कर धीन्हो , ऐसे सजन कहाँ पाएं की हाँ जी। कभी फिर ऐसा मौक़ा मिला तो उनसे सारे गीत गवाऊंगी । टेप कर लूंगी। उनका अंदाज़ अलग है। बचपन में क्लब जाने से ,ब्रिज और बैडमिन्टन के शौक को छोड़कर एक बड़े परिवार को संभालना ,रसोई में न जाने वाली भाई की दुलारी  बहन ,शादी  के बाद सास की भी प्यारी हो गयी।  ऐसी रसोई की अब तक कोई और खाने का स्वाद हम लोगों पर नहीं चढ़ा। ऐसा घर कि  कोई दुविधा होने पर आँख बंद कर बस माँ का ध्यान करो ,उनका घर रखने का सलीका याद करना भर रास्ता सुझा देता है । याद दिलाया कैसे उन्होंने बचपन में फ्रोकें सिलीं थीं। सबका नाम परियों  वाली फ़्रोक ,रोस (गुलाब) वाली फ्रोक , बुनाई की सिलाइयों में जाड़े के धूप की गर्मी को बाँध कर रखना। बातें क्या ख़तम होंगी? न यादें न बातें !अब जब सब बच्चों का घर बस गया है ,सब के अपने किस्से,अपनी जिम्मेदारियाँ ,मिलना जुलना कम ,सुनायी देना कम ,तो यह सब बात करके ही पिछले दिनों से अविच्छेदता  बनी रहती है। एक निरंतरता का एहसास होता है. उन्हें भी  मुझे भी। पापा का उनके लिए समर्पित गीत, 'कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ,बहुत खूबसूरत ,मगर सांवली सी ……'
   पापा भी आ गए।" मम्मी बिटिया की बातें चलती ही जा रही हैं !अरे उसको कुछ आराम कर लेने दो। घर आयी है ,सोने दो , काम मत करवाना , पैर दबवाओगी  ज़रूर।"  "अरे यह खुद ही दबा रही है ,मैंने नहीं कहा ", मम्मी कहती हैं। माँ  के पैर दबाने में ही मेरे जीवन की सार्थकता है और दबवाने में उनकी। सुख का चरमोत्कर्ष !  पापा मितव्ययी ,अंतर्मुखी। सो हम  सब के लिए प्यार भी अन्दर की गहराई तक।  हमेशा अभिव्यक्त करने वालों से कम नहीं , शायद और भी भावुक और भी पैशनेट। पर शब्दों में नहीं बाँधा। शब्दों की असमर्थता है। उतनी गहराई जो सिर्फ वही महसूस कर सकते हों या उस प्यार को  पाने वाले । एक छवि है उनकी। …दफ़्तर से आकर ,चाय पीकर सीधे किचन गार्डन  में चले जाना। या फिर सवेरे एक घंटे तक अखबार पढ़ना। नेशनल पैनासोनिक पर  बेगम अख्तर को "ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे  रोना आया" का टेप चलता ही जाता ,या फिर एक ही टीवी जिस पर दूरदर्शन के शास्त्रीय संगीत के सारे नृत्य सारे संगीत के प्रोग्राम देखते। टीवी पर उनका एकाधिकार। पर हम साथ देखते क्रिकेट,चित्रहार और विम्बलडन। बनारस की मिट्टी है तो शास्त्रीय संगीत से प्यार है।खिलाड़ी हैं तो वोलीबॉल था, कुश्ती थी।   होली में मम्मी की भाभी के साथ उनकी होली ख़ास होती थी। याद है मामी अलग से इंतज़ार करतीं अपने इस सबसे छोटे और उम्र में बहुत छोटे बेटे जैसे नंदोई का. वह भी अलग अलग तरीकों से उन्हें चुपके  से रंग लगाने की तैयारी  करते। अनुशासन कड़ा  था ,पर जोर से आवाज़ नहीं उठती।
      फिर भी  बात करते करते  भावुक हो गए। बोले तुम लोगों को बड़े ही नहीं होना चाहिए था।चारों का बचपन कितना अच्छा था ! लैब में माइक्रोस्कोप से देखते हुए उनकी एक फोटो है , बहुत प्यारा ।  लम्बे ,गोरे ,हैंडसम। कैप पहन जब वह मुझे यूनिवर्सिटी छोड़ने जाते तो साथ की लडकियां  क्या अपने उम्र के लड़कों को छोड़ पापा को देखतीं।  प्यार का प्रदर्शन उन्हें पसंद नहीं। पर प्यार प्रदर्शन और शब्दों का मोहताज नहीं।

सौंवाँ  चिट्ठा  अपने माता पिता के  लिए , जिनके त्याग ,परिश्रम ,प्यार ,हुनर ,शख्सियत  ,शौक , मूल्य सबकुछ  मेरे लिए प्रेरणा स्रोत ,मेरे जीवन का सहारा हैं।


2 टिप्‍पणियां:

Rajendra kumar ने कहा…

१०० वां पोस्ट के लिए हार्दिक शुभकामनाये,आशा है आगे भी आप अपनी लेखन कार्य करती रहेंगी,धन्यबाद।

Afia Ahmad ने कहा…

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