जब शाहजहाँ आगरा छोड़ दिल्ली बसने चले तो यमुना के तट पर मिली उन्हें माकूल जगह एक नया घरोंदा बनाने की। लाल किले का निर्माण शुरू हुआ और आबाद होने लगी आसपास की बस्ती। लोग आने लगे तो पालनहारी का आशीर्वाद मिले यह भी ज़रूरी था। यही मजमून था बीते रविवार की पैदल यात्रा का। दिल्ली कारवां से ताल्लुक रखने वाले युवा जोश पर बुज़ुर्गाना शऊर लिए आसिफ खान देहलवी जब हमें "Spiritual Chandni Chowk" की सैर पर ले गए तो परत-दर-परत खुलती कहानियों ने हमें एक रूहानी कूची से रंग दिया।
उर्दू बाजार से शुरू हुआ उर्दू मंदिर जो बाद में लाल मंदिर या दिगंबर जैन मंदिर के नाम से जाना गया दिल्ली का सबसे पुराना जैन मंदिर है। बस्ती है,व्यापार भी होना लाजिमी है। सो गुजरात से आये जैन-अग्रवाल व्यापारियों को यहाँ बसने की जगह दी गयी और उन्ही में से एक ने अपने खेमे में तीर्थंकर की प्रतिमा रखी और इसी ने अब इस मंदिर का स्वरूप ले लिए। दिलचस्प है कि इसी से जुड़ा एक चिड़ियों का अस्पताल है जो हम उस दिन नहीं देख पाए। जैन धर्म की सब जीवित प्राणियों के प्रति सहृदयता का प्रतीक। जैन मंदिर से लगा हुआ है गौरीशंकर मंदिर। कभी दिल्ली पर मराठा राज भी था और तब अप्पा गंगाधर ने यह शिव मंदिर बनवाया। नदी तट पर तब लाल किला नहीं था और अनेक शिवलिंग स्थापित थे। लोग स्नान कर इन पर जल चढ़ाते और फिर दिनचर्या शुरू होती।चांदी के आधार पर शिवलिंग पर जल चढ़ता जा रहा है,सुविधा के लिए स्टील के लोटे रखे हैं। मन्त्र जपते, शिव स्तुति करते भक्ति का ही सब ओर रंग है।
दिल्ली की कहानी है रक्त-रंजित। सत्ता के गलियारे मज़हब,जात-पांत,उम्र,पेशा किसी की भी इज़्ज़त नहीं करते और हर युग में दिल दहला देने वाले किस्सों से दिल्ली का इतिहास भरा हुआ है। सिख गुरुओं की शहादत हो या मुग़ल बादशाह के छोटे मासूम बच्चों का कत्ल--यह सबका साक्षी रहा है। प्यार से बसाया गया शाहजहांबाद और उससे भी अधिक मुहब्बत से जहाँआरा बेगम ने चांदनी चौक तामील किया। कूचा,कटरा,कलान,बाड़ा बहुतेरी कहानियां सुनीं उस दिन। हवेलियां थीं,व्यापार था,चाँद के खेलने के लिए तालाब था,शाम को सैर की सहूलियत के लिए पानी डालते भिश्ती थे। और इन सब को पाकीज़गी की चादर उढ़ाये यह सब धर्म स्थल थे। सीसगंज गुरुद्वारा में श्रद्धा से सेवा कर रहे लोगों को चप्पलें सौंपीं,पवित्र कुए का पानी पीया और ऊपर जाकर शांत चित्त हो मत्था टेका और सबकुछ रब पर छोड़ दिया।गुरु तेगबहादुर की शहादत के स्थल पर बने गुरूद्वारे में बहुत शक्ति है।
सटी हुई है सुनहरी मस्जिद।यहाँ सुनी दास्तान नादिर शाह की जिसने कान के पास से गुज़रे एक आवरा तीर से नाराज़ हो कत्ले-आम का हुक्म दिया और यहीं से खड़े होकर वह खूनी मंजर देखता रहा। मुहम्मद शाह रंगीला का समय था और जब वह वापस गया तो सात किमी लंबा कारवाँ था लुटे हुए और उपहार में दिए गए सामान का। साथ में था तख़्त-ए -इ ताउस(Peacock throne) और कोहिनूर हीरा और सोने की चिड़िया कहा जाने वाले हिन्दुस्तान को ख़ाक में मिला देने वाला अंजाम। सड़क पार था एक गिरिजाघर 'बैप्टिस्ट चर्च '। आपको इतिहास से वही परिचय करा सकता है जो अतीत को वर्तमान से जोड़ता रहे। इसीलिये जब उन तीन लड़कियों के बारे में आसिफ ने हाल का ही किस्सा सुनाया जो चर्च के बंद दरवाज़े के बाहर से एक दरख्वास्त कर रही थीं कि दरवाज़ा खोल दो बस नमाज़ पढ़नी है तो और उन्हें अंदर दाखिल किया गया तो इबादत और भी संजीदा हो गयी। 1814 में बना यह चर्च दिल्ली के सबसे पुराने गिरिजाघरों में से है। यहीं कहानी सुनी वज़ीर खानम की और यही दास्ताँ सुनते हुए गिरिजाघर के बाहर बजती घंटियों में सदियों पहले हुई कोई प्रार्थना गूंजने लगी।
सुनते-सुनाते उन तंग रास्तों पर जहां अब चांदनी चौक रेडेवेलप्मेंट का काम चल रहा है हम आगे बढ़े।रास्ते में जलेबी खाई। वैसे भी चाँदनी चौक का इतिहास यहाँ के खानपान को भी समेटे हुए है और हर दुकान बादशाह सलामत के समय से चली आ रही मालूम होती है। हमारे लखनऊ की नाज़ुक जलेबियों की तरह नहीं, यह तो ठोस अपना वजन दिखाती जलेबी,कह लें जलेबा, थी। बेड़मी,कचौड़ी,नगोड़ी हलवा ---भूखे भजन न होय गोपला!
हमारा यह सफर खत्म होना था इस जगह के सबसे मशहूर बाशिंदे की दहलीज पर। बहादुर शाह ज़फर और 1857 की बगावत के समय के मिर्ज़ा ग़ालिब गली कासिम जान में दालान में बैठकर खत और शेर लिखते। हवेली के कुछ भाग को अब संभालकर रखा गया है पर सामने महराबदार दरवाज़े का आधा हिस्सा ग़ालिब के नाम और आधा किसी कारखाने के नाम किया हुआ है।
हमारी इस "spiritual walk " के शुरू में एक नक्शा निकाल बहुत बारीकी से हमें परिचय कराया गया था एक ग़मगीन बाशाह के सपने से -लाल किले के ठीक सामने -उर्दू बाज़ार से,कोतवाली से,टाउन हॉल से, चांदनी चौक से मिर्ज़ा ग़ालिब की देहरी तक इतिहास के कई पड़ाव का सफर किया और साथ ही इबादत की कई सूरतें देखीं। इबादत की हर सड़क पहुंचाती सब एक जगह हैं। हवाओं में जब अर्धमगधी में मंत्रोच्चारण,अज़ान,जय भोलेनाथ,शबद के मीठे बोल और चर्च से आते गीतों के सम्मिलित स्वर गूंजते होंगे तो कितना पावन हो जाता होगा यहाँ का हर कोना। मिर्ज़ा ग़ालिब को ही कह लेने दें :
" न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता"
उर्दू बाजार से शुरू हुआ उर्दू मंदिर जो बाद में लाल मंदिर या दिगंबर जैन मंदिर के नाम से जाना गया दिल्ली का सबसे पुराना जैन मंदिर है। बस्ती है,व्यापार भी होना लाजिमी है। सो गुजरात से आये जैन-अग्रवाल व्यापारियों को यहाँ बसने की जगह दी गयी और उन्ही में से एक ने अपने खेमे में तीर्थंकर की प्रतिमा रखी और इसी ने अब इस मंदिर का स्वरूप ले लिए। दिलचस्प है कि इसी से जुड़ा एक चिड़ियों का अस्पताल है जो हम उस दिन नहीं देख पाए। जैन धर्म की सब जीवित प्राणियों के प्रति सहृदयता का प्रतीक। जैन मंदिर से लगा हुआ है गौरीशंकर मंदिर। कभी दिल्ली पर मराठा राज भी था और तब अप्पा गंगाधर ने यह शिव मंदिर बनवाया। नदी तट पर तब लाल किला नहीं था और अनेक शिवलिंग स्थापित थे। लोग स्नान कर इन पर जल चढ़ाते और फिर दिनचर्या शुरू होती।चांदी के आधार पर शिवलिंग पर जल चढ़ता जा रहा है,सुविधा के लिए स्टील के लोटे रखे हैं। मन्त्र जपते, शिव स्तुति करते भक्ति का ही सब ओर रंग है।
दिल्ली की कहानी है रक्त-रंजित। सत्ता के गलियारे मज़हब,जात-पांत,उम्र,पेशा किसी की भी इज़्ज़त नहीं करते और हर युग में दिल दहला देने वाले किस्सों से दिल्ली का इतिहास भरा हुआ है। सिख गुरुओं की शहादत हो या मुग़ल बादशाह के छोटे मासूम बच्चों का कत्ल--यह सबका साक्षी रहा है। प्यार से बसाया गया शाहजहांबाद और उससे भी अधिक मुहब्बत से जहाँआरा बेगम ने चांदनी चौक तामील किया। कूचा,कटरा,कलान,बाड़ा बहुतेरी कहानियां सुनीं उस दिन। हवेलियां थीं,व्यापार था,चाँद के खेलने के लिए तालाब था,शाम को सैर की सहूलियत के लिए पानी डालते भिश्ती थे। और इन सब को पाकीज़गी की चादर उढ़ाये यह सब धर्म स्थल थे। सीसगंज गुरुद्वारा में श्रद्धा से सेवा कर रहे लोगों को चप्पलें सौंपीं,पवित्र कुए का पानी पीया और ऊपर जाकर शांत चित्त हो मत्था टेका और सबकुछ रब पर छोड़ दिया।गुरु तेगबहादुर की शहादत के स्थल पर बने गुरूद्वारे में बहुत शक्ति है।
सटी हुई है सुनहरी मस्जिद।यहाँ सुनी दास्तान नादिर शाह की जिसने कान के पास से गुज़रे एक आवरा तीर से नाराज़ हो कत्ले-आम का हुक्म दिया और यहीं से खड़े होकर वह खूनी मंजर देखता रहा। मुहम्मद शाह रंगीला का समय था और जब वह वापस गया तो सात किमी लंबा कारवाँ था लुटे हुए और उपहार में दिए गए सामान का। साथ में था तख़्त-ए -इ ताउस(Peacock throne) और कोहिनूर हीरा और सोने की चिड़िया कहा जाने वाले हिन्दुस्तान को ख़ाक में मिला देने वाला अंजाम। सड़क पार था एक गिरिजाघर 'बैप्टिस्ट चर्च '। आपको इतिहास से वही परिचय करा सकता है जो अतीत को वर्तमान से जोड़ता रहे। इसीलिये जब उन तीन लड़कियों के बारे में आसिफ ने हाल का ही किस्सा सुनाया जो चर्च के बंद दरवाज़े के बाहर से एक दरख्वास्त कर रही थीं कि दरवाज़ा खोल दो बस नमाज़ पढ़नी है तो और उन्हें अंदर दाखिल किया गया तो इबादत और भी संजीदा हो गयी। 1814 में बना यह चर्च दिल्ली के सबसे पुराने गिरिजाघरों में से है। यहीं कहानी सुनी वज़ीर खानम की और यही दास्ताँ सुनते हुए गिरिजाघर के बाहर बजती घंटियों में सदियों पहले हुई कोई प्रार्थना गूंजने लगी।
सुनते-सुनाते उन तंग रास्तों पर जहां अब चांदनी चौक रेडेवेलप्मेंट का काम चल रहा है हम आगे बढ़े।रास्ते में जलेबी खाई। वैसे भी चाँदनी चौक का इतिहास यहाँ के खानपान को भी समेटे हुए है और हर दुकान बादशाह सलामत के समय से चली आ रही मालूम होती है। हमारे लखनऊ की नाज़ुक जलेबियों की तरह नहीं, यह तो ठोस अपना वजन दिखाती जलेबी,कह लें जलेबा, थी। बेड़मी,कचौड़ी,नगोड़ी हलवा ---भूखे भजन न होय गोपला!
हमारा यह सफर खत्म होना था इस जगह के सबसे मशहूर बाशिंदे की दहलीज पर। बहादुर शाह ज़फर और 1857 की बगावत के समय के मिर्ज़ा ग़ालिब गली कासिम जान में दालान में बैठकर खत और शेर लिखते। हवेली के कुछ भाग को अब संभालकर रखा गया है पर सामने महराबदार दरवाज़े का आधा हिस्सा ग़ालिब के नाम और आधा किसी कारखाने के नाम किया हुआ है।
हमारी इस "spiritual walk " के शुरू में एक नक्शा निकाल बहुत बारीकी से हमें परिचय कराया गया था एक ग़मगीन बाशाह के सपने से -लाल किले के ठीक सामने -उर्दू बाज़ार से,कोतवाली से,टाउन हॉल से, चांदनी चौक से मिर्ज़ा ग़ालिब की देहरी तक इतिहास के कई पड़ाव का सफर किया और साथ ही इबादत की कई सूरतें देखीं। इबादत की हर सड़क पहुंचाती सब एक जगह हैं। हवाओं में जब अर्धमगधी में मंत्रोच्चारण,अज़ान,जय भोलेनाथ,शबद के मीठे बोल और चर्च से आते गीतों के सम्मिलित स्वर गूंजते होंगे तो कितना पावन हो जाता होगा यहाँ का हर कोना। मिर्ज़ा ग़ालिब को ही कह लेने दें :
" न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता"
1 टिप्पणी:
Lovely snap shots of Chandni Chowk, beautifully interwoven with legacy of Delhi.
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