शनिवार, फ़रवरी 07, 2009

बसंत

गेहूं की बाली है,अमवा की डाली है
चारों ओर बहती पवन मतवाली है।

पीताम्बरी सरसों कैसे लजाती है ,
झूम झूम कैसे शरमाती इतराती है।

कोयलिया काली बावरी हुई जाती है ,
कुहू कुहू करती सबको तडपाती है।

नई कली कैसे मंद मंद मुस्काती है
तरु तरु नई कोपल नई आस जगाती है।

कचनार, ढाक पलाश में आग लग जाती है
मादक पछुआ जब उनको सहलाती है ।

सारी दिशायें कैसे मुखरित हो जाती हैं
बसंतागम की आहट जब पाती हैं।


7 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

बहुत सुन्दर कृति है

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गुलाबी कोंपलें

बेनामी ने कहा…

manmohak rachana,ek dam lajawaab

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर गीत है।बधाई।

daanish ने कहा…

प्रकृति के बेहद्द करीब ले जाती है
आपकी ये अनुपम रचना .....
नवगीत का मधुरिम आभास ....
बधाई . . . . .
---मुफलिस---

अनिल कान्त ने कहा…

sachmuch bahut hi pyari rachna hai

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

वाह वाह!!
मन को वसंती वसंती कर दिया आपने.

vijay kumar sappatti ने कहा…

poonam ji , namaskar,

main pahli baar aapke blog par aaya hoon ,, aapki saari rachnaaye padhi , mujhe aapki kavitaye bahut pasadn aayi aur specially ye waali kavita mujhe bahut acchi lagi , basant ke rang ji uthe hai aapki kavita me ..

aapka dhanywad.

regards

vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com