लखनऊ के रहने वालों को इस शहर से प्यार इस कदर होता है
'लखनऊ हम पर फ़िदा, और हम फिदाए लख्ननऊ
क्या है ताकत आसमां की, जो छुडाये लखनऊ.'
मुझे याद है युनिवर्सिटी के ज़माने में जब हमें होली या विदाई समारोह में 'टाइटिल' देने होते थे तो शेर-ओ-शायरी का बडा सहारा रहता था.आखिर इस शहर की रवायत ही ऐसी है.
महबूबा को खत लिखा तो इस उम्मीद के साथ
'सियाही आँख की लेकर मैं नामा तुमको लिखता हूँ
कि तुम नामे को देखो और तुम्हं देखें मेरी आँखें'
लेकिन इतना करने के बाद भी उधर से कोई आवाज़ दे ऐसा ज़रूरी नहीं .
'नामावर तू ही बता,तूने तो देखे होंगे
कैसे होते हैं वह खत ,जिनका जवाब आता है.'
हाय रे किस्मत,वो पढते भी हैं और आँखें भी चुराते हैं.
'खत ग़ैर का पढते थे ,जो टोका तो वो बोले
अखबार का पर्चा है खबर देख रहे हैं '
याद आया वो कॉलेज के दिन जब छुपछुप कर उन्हीं पर नज़रें रहती थीं ,पर जैसे ही वो इधर देखते आँखें आसमान पर या किताबों पर गड जातीं ?
यह उम्मीद भी बेमिसाल है
' बरसों से कानों पे है क़लम इस उम्मीद पर
लिखवाएं मुझसे खत ,मेरे खत के जवाब में '
लेकिन जब खत पडा जाता है तब के लिये हिदायतें हैं
'नामे को पढना मेरे,ज़रा देखभाल के,
कागज़ पर रख दिया है,कलेजा निकाल के'
शनिवार, दिसंबर 29, 2007
बुधवार, दिसंबर 19, 2007
लखनऊ हम पर फ़िदा
एक उत्सुकता सी मन में जागी है कि जिस शहर में मैं रहती हूँ उसका इतिहास क्या है,उसका अतीत कैसा था,उसकी बुनियाद क्या थी ,उसकी शख्सियत क्या थी .वह क्या था जिसने लखनऊ को एक अलग सा परिचय दिया है .यह जो इमारतें आते जाते हम देखते हैं इनके पीछे कौन सी कहानियां है.किसने इन्हें बनवाया,क्या सपना था उनका इस शहर के बारे में . कैसा रहा होगा लखनऊ पहले का? यह जो सडक है इस पर पहले का नज़ारा कैसा था .कहाँ से आती थी और कहाँ तक जाना था? बहुत किस्से सुने है यहाँ की नज़ाकत,नफ़ासत और तहज़ीब के.'पहले आप वाला' किस्सा तो लखनऊ का नाम आते ही कोई भी बता देता है.पर यहाँ के नवाबों के शौक , उनके मिज़ाज के बारे में भी बहुत कुछ सुना है.
गोया पहुँचे यहाँ की प्रसिध्द किताबों की दुकान युनिवर्सल बुकसेलर्स.इसकी कई शाखाएं हैं . अलीगंज के कपूरथला कॉम्प्लेक्स में मिली यहाँ के मशहूर लेखक योगेश प्रवीण की लिखी किताबें . अभी तो पढना शुरू किया है.चिकन कारी के बारे में,बेगम अख्तर की गायकी के बारे में,कबाब ,रेख्ती, ठुमरी ....बहुत कुछ. पता चल रहा कि संजय दत्त की नानी जद्दन बाई इसी शहर की थीं.अब बस करना यह है कि एक कैमरा लो और जो पढती जा रही हूँ ,उस जगह जा कर कैमरे में कैद करो.खयाल नेक है खयाली पुलाव न बन जाए .
गोया पहुँचे यहाँ की प्रसिध्द किताबों की दुकान युनिवर्सल बुकसेलर्स.इसकी कई शाखाएं हैं . अलीगंज के कपूरथला कॉम्प्लेक्स में मिली यहाँ के मशहूर लेखक योगेश प्रवीण की लिखी किताबें . अभी तो पढना शुरू किया है.चिकन कारी के बारे में,बेगम अख्तर की गायकी के बारे में,कबाब ,रेख्ती, ठुमरी ....बहुत कुछ. पता चल रहा कि संजय दत्त की नानी जद्दन बाई इसी शहर की थीं.अब बस करना यह है कि एक कैमरा लो और जो पढती जा रही हूँ ,उस जगह जा कर कैमरे में कैद करो.खयाल नेक है खयाली पुलाव न बन जाए .
गुरुवार, दिसंबर 13, 2007
चीं चीं चैं चैं
कितना बोलते हैं हम अपने आपसे.यह अंदर का संवाद है कभी खत्म नहीं होता .जब देखो बातें किसी भी चीज़ पर,कहीं भी .सवेरे उठेते ही,दिन मे ,ऑफिस में . कुछ भी कर रहे हों अन्दर के 'सी पी यू' की 'प्रोसेसिंग ' चलती ही रहती है.
बेटी को श्यामक दावर के डांस क्लास में भरती का दिया है.अपनी भी ड्यूटी लगी है.ले जाओ ,एक घंटे बैठी रहो . जब वैसे ही कितनी बातें करती हूँ खुद से तो सोचिये एक घंटे बैठे ठाले क्या क्या सोच डाला .मुझे बहुत अच्छी लगती हैं लडकियां .कितनी चुलबुली हैं .कितनी उत्साहित हैं .कितनी कॉनफिडेंट . सच यह उम्र होती ही ...चटपट चटपट बातें करने की,खिलखिलाने की, गिगल करने की .अरे वह चुपचाप क्यों खडी है.चलो जाओ दोस्त बनाओ, हंसी पर रोक मत लगाओ .बोलने पर बंदिश नहीं .मुस्कराहट भी कितनी नाज़ुक सी है सबकी .शायद मिल्स एंड बून पडती होंगी .पर यह क्या एक के हाथ में सिडनी शेलडन .आजकल के बच्चे ज़्यादा जल्दी बडे हो जाते हैं .
डांस इंसट्रक्टर आया .अनजाने में सब थोडा इतरा रही हैं . कोई कट कर अलग से कुछ कहने लगी .एक फुसफुसाहट हुई " हे कूल डयूड मैन.हीस गाट एन ऐटिटयूड "! और फिर कनखियों से इधर उधर देख कर गिगल .
और कपडे ...स्टाइलिश. वह हल्की गुलाबी केपरी क्या जंच रही है . स्कर्ट अच्छी है पर ज़रा छोटी .जैसे जैसे उम्र बडती है स्कर्ट की लम्बाई भी बडती है.याद आया कभी मम्मी ने मेरी शॉर्ट स्कर्ट को लंबा कर दिया और मैं कितना नाराज़ हुई थी उनसे.क्या मस्ती है और बेफिक्री भी.
'ओह कम ऑन यार .डोन्ट बी अ स्पोइल स्पोर्ट .वी'ल हेव फन'
'बट माय माँ'स गोना मर्डर भी इफ आई'म लेट .'
कभी हम भी तो ऐसे ही थे.क्या इनको विशवास होगा अगर मैं बताऊँ कि यह सब एक 'डेजा वू ' की तरह है. यह सफेद बालों वाली आंटी भी ऐसी ही भाषा बोलती थीं .
ओहो मुझे भी जॉइन कर लेना था.कुछ नहीं तो कायदे से हाथ पैर मारना ही आ जाता .एक अपनी ही उम्र के दंपति को क्लास में जाते देखा .गम हुआ ...मैं भी तो सीख सकती थी.अरे कहाँ ...अकेले क्या मज़ा .पतिदेव साथ होते. हाँ लौट कर आएंगे तो ज़रूर सीखूँगी .वैसे हम दोनों ही के पास 'टू लेफ्ट फीट ' हैं. पर उससे क्या. नाचना है तो नाचेंगे ही. बच्चे बोलते थे हम आप लोगों को 'डिस ओन ' कर देंगे अगर आप लोग नाचने पहुँचे .'डिसओन 'करने में बिल्कुल अव्वल.जब देखो तब .आपलोग मेरे दोस्तों के सामने ऐसे कपडे पहन कर जाओगे ....'डिस ओन ' की धमकी .हाथ मत पकडना बाज़ार में...हम लोग डिस.......... हल्की मुस्कान आ गयी .नज़र एक ओर गयी तो देखा एक लडकी मुझे घूर रही थी .मैं सकपका गयी . सठिया गई ?
ड्रेस डिज़ाइनर आ गई .सरगर्मियां बढ गईं.रंग के चुनाव ,डिज़ाइन,क्या नहीं है ....सोचने को .माहौल गर्म हो गया .डिसकशन तू तू मैं मैं बनने जा रहा है .'शी इस सच अ बि....
'हेलो ,क्या कहा'
''कुछ नहीं !'
चलो यार .हम लोग सर से बात करते हैं.सम पीपल अरे एक्टिंग टू प्राइसी'
सर भी आ गए.डांस इंसट्रक्टर .....ताली बजा कर उसने सबका ध्यान खींचा.मैं सोचती उसकी ज़रूरत ही नहीं थी .आधी तो वैसे ही उसे देख रही थीं.कैसे उसने तुरन्त कमान अपने हाथ में ले ली.बहुत खूब.सारी चीं चीं चैं चैं बन्द. चलो मेरे भी ने का समय हुआ.अब अन्दर की चीं चीं चैं चैं किसी और विषय पर.
बेटी को श्यामक दावर के डांस क्लास में भरती का दिया है.अपनी भी ड्यूटी लगी है.ले जाओ ,एक घंटे बैठी रहो . जब वैसे ही कितनी बातें करती हूँ खुद से तो सोचिये एक घंटे बैठे ठाले क्या क्या सोच डाला .मुझे बहुत अच्छी लगती हैं लडकियां .कितनी चुलबुली हैं .कितनी उत्साहित हैं .कितनी कॉनफिडेंट . सच यह उम्र होती ही ...चटपट चटपट बातें करने की,खिलखिलाने की, गिगल करने की .अरे वह चुपचाप क्यों खडी है.चलो जाओ दोस्त बनाओ, हंसी पर रोक मत लगाओ .बोलने पर बंदिश नहीं .मुस्कराहट भी कितनी नाज़ुक सी है सबकी .शायद मिल्स एंड बून पडती होंगी .पर यह क्या एक के हाथ में सिडनी शेलडन .आजकल के बच्चे ज़्यादा जल्दी बडे हो जाते हैं .
डांस इंसट्रक्टर आया .अनजाने में सब थोडा इतरा रही हैं . कोई कट कर अलग से कुछ कहने लगी .एक फुसफुसाहट हुई " हे कूल डयूड मैन.हीस गाट एन ऐटिटयूड "! और फिर कनखियों से इधर उधर देख कर गिगल .
और कपडे ...स्टाइलिश. वह हल्की गुलाबी केपरी क्या जंच रही है . स्कर्ट अच्छी है पर ज़रा छोटी .जैसे जैसे उम्र बडती है स्कर्ट की लम्बाई भी बडती है.याद आया कभी मम्मी ने मेरी शॉर्ट स्कर्ट को लंबा कर दिया और मैं कितना नाराज़ हुई थी उनसे.क्या मस्ती है और बेफिक्री भी.
'ओह कम ऑन यार .डोन्ट बी अ स्पोइल स्पोर्ट .वी'ल हेव फन'
'बट माय माँ'स गोना मर्डर भी इफ आई'म लेट .'
कभी हम भी तो ऐसे ही थे.क्या इनको विशवास होगा अगर मैं बताऊँ कि यह सब एक 'डेजा वू ' की तरह है. यह सफेद बालों वाली आंटी भी ऐसी ही भाषा बोलती थीं .
ओहो मुझे भी जॉइन कर लेना था.कुछ नहीं तो कायदे से हाथ पैर मारना ही आ जाता .एक अपनी ही उम्र के दंपति को क्लास में जाते देखा .गम हुआ ...मैं भी तो सीख सकती थी.अरे कहाँ ...अकेले क्या मज़ा .पतिदेव साथ होते. हाँ लौट कर आएंगे तो ज़रूर सीखूँगी .वैसे हम दोनों ही के पास 'टू लेफ्ट फीट ' हैं. पर उससे क्या. नाचना है तो नाचेंगे ही. बच्चे बोलते थे हम आप लोगों को 'डिस ओन ' कर देंगे अगर आप लोग नाचने पहुँचे .'डिसओन 'करने में बिल्कुल अव्वल.जब देखो तब .आपलोग मेरे दोस्तों के सामने ऐसे कपडे पहन कर जाओगे ....'डिस ओन ' की धमकी .हाथ मत पकडना बाज़ार में...हम लोग डिस.......... हल्की मुस्कान आ गयी .नज़र एक ओर गयी तो देखा एक लडकी मुझे घूर रही थी .मैं सकपका गयी . सठिया गई ?
ड्रेस डिज़ाइनर आ गई .सरगर्मियां बढ गईं.रंग के चुनाव ,डिज़ाइन,क्या नहीं है ....सोचने को .माहौल गर्म हो गया .डिसकशन तू तू मैं मैं बनने जा रहा है .'शी इस सच अ बि....
'हेलो ,क्या कहा'
''कुछ नहीं !'
चलो यार .हम लोग सर से बात करते हैं.सम पीपल अरे एक्टिंग टू प्राइसी'
सर भी आ गए.डांस इंसट्रक्टर .....ताली बजा कर उसने सबका ध्यान खींचा.मैं सोचती उसकी ज़रूरत ही नहीं थी .आधी तो वैसे ही उसे देख रही थीं.कैसे उसने तुरन्त कमान अपने हाथ में ले ली.बहुत खूब.सारी चीं चीं चैं चैं बन्द. चलो मेरे भी ने का समय हुआ.अब अन्दर की चीं चीं चैं चैं किसी और विषय पर.
शुक्रवार, दिसंबर 07, 2007
रांग नम्बर
"हैलो !"
"हैलो!"
"हैलो.....?"
"अरे भाई आगे भी बोलिये !किससे बात करनी है?"
"जी आपसे"
"मुझसे?"
"जी."
"अरे कुछ नाम पता होगा ."
"जी आप ही का नाम है.
"अच्छा ....?"
"मेरे नाम वाले तो बहुतेरे हैं.शायद नम्बर गलत लग गया..आपका."
"नहीं.अबकी सही लगा ."
"कैसे पता?"
"आप तक जो पहुँच गया"
"तो क्या काम है मुझसे?"
"जी,आपका नाम जानना था..."
"अभी तक तो पता था ."
"पर अब याद नहीं."
"बडी कमज़ोर याददाश्त है.जब याद आ जाए तब दुबारा फोन कर लीजियगा"
और मैंने फोन रख दिया .
"हैलो !"
हैलो!"
"हैलो.....?"
आप कहाँ से बोल रही हैं?"
"आपने कहाँ फोन किया ?"
"आप कहाँ से बोल रही हैं?(अब की आवाज़ ज़रा ज़ोर देकर आई)
"आपने कहाँ फोन किया ?"(मैंने भी आवाज़ कडक की)
"लोग बताते ही नहीं कहाँ से बोल रहे हैं"
फोन कट जाता है.
मोबाइल पर मोबाइल से फोन आया ...फिर भी
"हैलो !"
"हैलो!"
"संजय से बात करनी है?"
"यहाँ कोई संजय नहीं है . नंबर चेक कर लीजिये ."
"आपका क्या नम्बर है?"
"आपने जो मिलाया है."
"पर आपका नम्बर क्या है?"
"जो भी है कम से कम संजय का तो नहीं है."
"आप उससे बात करवा सकती हैं?"
"ज़रूर करवा देती ,लेकिन उसका पता ठिकाना नहीं मालूम."
"नम्बर तो यही था ......?आपका नम्बर क्या है ?"
"याद नहीं "
मैं ही फोन काट देती हूँ.
"हैलो!"
"हैलो.....?"
"अरे भाई आगे भी बोलिये !किससे बात करनी है?"
"जी आपसे"
"मुझसे?"
"जी."
"अरे कुछ नाम पता होगा ."
"जी आप ही का नाम है.
"अच्छा ....?"
"मेरे नाम वाले तो बहुतेरे हैं.शायद नम्बर गलत लग गया..आपका."
"नहीं.अबकी सही लगा ."
"कैसे पता?"
"आप तक जो पहुँच गया"
"तो क्या काम है मुझसे?"
"जी,आपका नाम जानना था..."
"अभी तक तो पता था ."
"पर अब याद नहीं."
"बडी कमज़ोर याददाश्त है.जब याद आ जाए तब दुबारा फोन कर लीजियगा"
और मैंने फोन रख दिया .
"हैलो !"
हैलो!"
"हैलो.....?"
आप कहाँ से बोल रही हैं?"
"आपने कहाँ फोन किया ?"
"आप कहाँ से बोल रही हैं?(अब की आवाज़ ज़रा ज़ोर देकर आई)
"आपने कहाँ फोन किया ?"(मैंने भी आवाज़ कडक की)
"लोग बताते ही नहीं कहाँ से बोल रहे हैं"
फोन कट जाता है.
मोबाइल पर मोबाइल से फोन आया ...फिर भी
"हैलो !"
"हैलो!"
"संजय से बात करनी है?"
"यहाँ कोई संजय नहीं है . नंबर चेक कर लीजिये ."
"आपका क्या नम्बर है?"
"आपने जो मिलाया है."
"पर आपका नम्बर क्या है?"
"जो भी है कम से कम संजय का तो नहीं है."
"आप उससे बात करवा सकती हैं?"
"ज़रूर करवा देती ,लेकिन उसका पता ठिकाना नहीं मालूम."
"नम्बर तो यही था ......?आपका नम्बर क्या है ?"
"याद नहीं "
मैं ही फोन काट देती हूँ.
शनिवार, सितंबर 29, 2007
नाम से तेरे आवाज़ मैं न दूँगा
मंगलवार, सितंबर 25, 2007
बेटी
माँ की गोद में सिर छुपा दिया .उसने भी सिर पर हाथ फेरा ,हौले से मुस्कुराई और हम एक अंतरंग चुप्पी में बैठ गए.सोच रही हूँ मैं ......मेरी बेटी खेल रही है वहीं आसपास कहीं .वह हम दोनों को देखती है ,मुस्कुराती है ,और एक अनकही समझदारी से वापस खेलने लग जाती है .कह गई, मैं भी तो इसी साझेदारी में शामिल हूँ.लुका छुपी खेल रहे हैं और वह कहीं अँधेरे कमरे में छुप जाती है.अचानक वह अँधेरा ही उसे डरा देता है.चिल्लाती है वो और मैं उसे अपने गले से लगा लेती हूँ.ज़ोर से भींचती हूँ और वह अपनी नन्हीं बाँहें मेरे गले में डालकर हंस देती है.उसकी हँसी पर मेरी जान निछावर है.चलो फिर खेलें ....वो कहती है.अगर फिर डर लग गया तो.आप हैं न ...! मैं भी आपके साथ रोटी बनाऊँगी .मम्मी सिर दर्द कर रहा है क्या.मैं दबा दूँगी बिल्कुल ठीक हो जाएगा .सोचती हूँ सारी पूँजी बाँटूगी इसके साथ.जो कुछ मेरी माँ ने सिखाया मुझे.क्या वाकई सिखाया था.नहीं तो.फिर न जाने कैसे वो सब चीज़े मुझे भी आ गई जो मेरी माँ करती थी.उसी की तरह घर की देखभाल .कढाई,बुनाई....सिलाई.किताबों का शौक .उसी अंदाज़ से बुकमार्क लगाना.माँ से पूछा मैंने यह सब सिखाया कब आपने.मुझे तो याद नहीं.और वो हंस दी .बोली .....सिखाया नहीं तुम्हारी मदद ली थी सिर्फ .
बडी हो गई मेरी बेटी अब. दोस्त है वह . सिर भी दबाती है और दिल का हाल भी सुनती है.डांट भी देती है.मीठी सी झिडकी उसकी .हम दोनों आपस में कुछ गुपचुप करते हैं .मदर्स डे पर कार्ड देती है और फ्रेंशिप डे पर बाँधती है फ्रेंड्शिप बैंड.नानी क्या ममा हमेशा तुम्हारी बात मानती थी.और मम्मी हंस देंगी .ऐसा कभी हुआ है कि बच्चे मां बाप की हर बात माने.और मुझे जीभ दिखाती है,बिल्कुल मेरी तरह .मेरी गोद में सिर छुपा लेती है बिल्कुल मेरी तरह .
शनिवार, सितंबर 01, 2007
शुक्रवार, जुलाई 27, 2007
साया
देखो नक्शे कदम पर तुम्हारे ऐसे चल रह हैं हम
कदमों के निशां तुम्हारे मिटाते चल रहे हैं हम
पीछे मुडकर न देखना कभी जो राह छोड दी तुमने
तुम्हारे माज़ी को दामन में समेटते चल रहे हैं हम.
तुम न डरना किन्हीं काले सायों से कभी
रुसवाई को तुमसे जुदा करते चल रहे हैं हम
कदमों के निशां तुम्हारे मिटाते चल रहे हैं हम
पीछे मुडकर न देखना कभी जो राह छोड दी तुमने
तुम्हारे माज़ी को दामन में समेटते चल रहे हैं हम.
तुम न डरना किन्हीं काले सायों से कभी
रुसवाई को तुमसे जुदा करते चल रहे हैं हम
गुरुवार, जुलाई 12, 2007
जिन्दा बसीत खूब बसीत
इस बार गर्मी की छुट्टियां काबुल में बितानी है.घर का मुखिया वहीं पर है. बच्चे अपने दोस्तों से बताने में हिच्किचा रहे हैं .अफगानिस्तान भी कोई जगह है जाने की.पापा से कहिये इंग्लैंड ,सिंगापुर का प्रोग्राम बनाएं.ज़रा बाहर पेड को हिलाओ शायद पैसे टपक पडें ,पापा का जवाब है.काबुल तो जाना ही है.पापा वहां अकेले पडे है. किस हाल में रहते हैं इसकी खोज खबर भी लेनी है.मन में डर था कि न जाने वहाँ का क्या हाल होगा.आए दिन सुसाइड बाम्बरस की खबर पडने को मिलती है.
डर ,आशंकाओं पर एक कौतूहल लिये हुए हम काबुल के लिये रवाना हुए.हवाई जहाज तो पूरा भरा हआ है . देखकर आश्चर्य हुआ कि इतनी तादाद भारतीय में वहाँ जा रहें हैं .बहुत से अफगानी भी थे.फिर काबुलीवाला याद आया और याद आया कि हमारा तो बहुत पुराना रिश्ता है . अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की खुदा गवाह का ज़िक्र काबुल में कइ बार किया गया. काबुल हवाई अड्डा छोटा सा है . दिल्ली से करीब पौने दो घंटे का सफर है. काफी सामान है हमारे पास कुल २३ अदद .संभालना मुश्किल पर मदद के लिये लोग हैं.सामान की कौन देखभाल करे.हम तो आँखें फाडे देख रहे थे एक अलग दुनिया को.हिन्दी या कहिये उर्दु समझने वालों की कमी नहीं.हिन्दी बोलने वालों का काम आराम से चल सकता है. पर फ़ि्ज़ा में एक सहमापन है.लगता है खुल कर हंसेगे तो कोई गोली लग जाएगीागर जिधर अपनी नज़र घुमाइये और ए के ४७ के दर्शन हों तो हिसी तो दूर तक नहीं फटकती .हमने तो ए के ४७ का नाम संजय दत्त के ही संदर्भ में ही सुना था .अब देखा वो क्या चीज़ है जिसके लिये संजय दत्त अदालत का रास्ता नाप रहे हैं .एक फोटो भी खिचवा लिया उसके साथ पर वो आगे की किश्त है. भारत से जाने पर दो चीज़ें तुरन्त नज़र आती हैं.रास्ता में कम से लोग .यहाँ की भीड नहीं दिखाई पडती.और यहाँ के रंग नहीं हैं वहाँ.सडक पर औरतें न के बराबर हैं और जीवन में रंग तो हमीं से होता है.हर जगह बदूकें दिखना आम बात है.पुनःनिमार्ण का काम चल रहा है .आयातित कारें हैं इसलिय बडी कारें खूब दिखती हैं.हर घर हर भवन की दीवारें ऊँची ऊँची हैं.आभास होता है एक बन्द से परिवेश का.हमारे घर पर पहरा है सिपाहियों का.खूब हस्त खाने खैरत हस्ती? हालचाल कुशल मंगल पूछकर हम सकुशल अपने घर में घुस गए .बाहर के कैदखाने से दूर अपनी दुनिया बसाने.
डर ,आशंकाओं पर एक कौतूहल लिये हुए हम काबुल के लिये रवाना हुए.हवाई जहाज तो पूरा भरा हआ है . देखकर आश्चर्य हुआ कि इतनी तादाद भारतीय में वहाँ जा रहें हैं .बहुत से अफगानी भी थे.फिर काबुलीवाला याद आया और याद आया कि हमारा तो बहुत पुराना रिश्ता है . अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की खुदा गवाह का ज़िक्र काबुल में कइ बार किया गया. काबुल हवाई अड्डा छोटा सा है . दिल्ली से करीब पौने दो घंटे का सफर है. काफी सामान है हमारे पास कुल २३ अदद .संभालना मुश्किल पर मदद के लिये लोग हैं.सामान की कौन देखभाल करे.हम तो आँखें फाडे देख रहे थे एक अलग दुनिया को.हिन्दी या कहिये उर्दु समझने वालों की कमी नहीं.हिन्दी बोलने वालों का काम आराम से चल सकता है. पर फ़ि्ज़ा में एक सहमापन है.लगता है खुल कर हंसेगे तो कोई गोली लग जाएगीागर जिधर अपनी नज़र घुमाइये और ए के ४७ के दर्शन हों तो हिसी तो दूर तक नहीं फटकती .हमने तो ए के ४७ का नाम संजय दत्त के ही संदर्भ में ही सुना था .अब देखा वो क्या चीज़ है जिसके लिये संजय दत्त अदालत का रास्ता नाप रहे हैं .एक फोटो भी खिचवा लिया उसके साथ पर वो आगे की किश्त है. भारत से जाने पर दो चीज़ें तुरन्त नज़र आती हैं.रास्ता में कम से लोग .यहाँ की भीड नहीं दिखाई पडती.और यहाँ के रंग नहीं हैं वहाँ.सडक पर औरतें न के बराबर हैं और जीवन में रंग तो हमीं से होता है.हर जगह बदूकें दिखना आम बात है.पुनःनिमार्ण का काम चल रहा है .आयातित कारें हैं इसलिय बडी कारें खूब दिखती हैं.हर घर हर भवन की दीवारें ऊँची ऊँची हैं.आभास होता है एक बन्द से परिवेश का.हमारे घर पर पहरा है सिपाहियों का.खूब हस्त खाने खैरत हस्ती? हालचाल कुशल मंगल पूछकर हम सकुशल अपने घर में घुस गए .बाहर के कैदखाने से दूर अपनी दुनिया बसाने.
मंगलवार, जुलाई 03, 2007
काबुल -पहली नज़र
खूब हस्त खूब हस्तम .खान-ए-खैरत ह्स्ती? काबुल पहुँचने पर स्वागत होता है ऐसे. तमाम तरीकों से खैरियत पूछने के बाद .हिन्दुस्तानियों से खास लगाव.तुरन्त उर्दू में बात करने को बेताब लोग.रास्ते भर एके -४७ के दर्शन .ऊँची ऊँची दीवारों के पीछे घर.न किसी का आँगन दिखे न किसी का बगीचा.तमाम जगह निर्माण का काम .एक टूटे शहर को आबाद करना है.निशान ज़खमों के.घरों की दीवारें छलनी हैं गोलीबारी से.चमन के माली ही उजाड गए जिसे .....उस गुलशन के आसुओं का बयान क्या करना .घर भी छलनी हैं ,दिल भी छलनी हैं .हाजी साहब काबुल दिखाते हुए मायूस हो जाते हैं .दरख्त भी नही छोडे किसी ने.बाग तक काट दिए .नदी बेज़ार सी बहती हुई. गवाह है तारीखों के गुम हो जाने की .पर्वत अपने शहर को न बचा पाने की बेबसी में लाचार से दिखते. सूखे . सडकों पर जहाँ खिलखिलाहट होनी चाहिए बच्चों की.....आवाज़ आती है गश्त लगाती फौजों की.
शुक्रवार, मई 25, 2007
सालगिरह पर
दिल द्वार दस्तक दी तुमने जब
ऊषा की स्निग्ध लाली जैसे
भोर-विभोर मैं डूब गयी
अर्ध्य देती मतवाली जैसे
शान्त अमित आकाश हो तुम
मैं समा गयी विस्तार में तेरे
निढाल पडी पा आलिगन तेरा
बरस पडी मैं अंक में तेरे
ओत प्रोत मैं प्रीत में तेरी
हर अंग लगे है नया नवेला
भावों के भँवर का मंथन
नहीं सभलता अब यह रेला
दहकते गुलमोहर सा रक्तिम
हो जाए यह तन मन मेरा
तेरी आँखों का स्पर्श पाऊँ
या तेरी खुश्बू का घेरा
नि:शब्द बैठे हम दोनों
डूबते सूरज से आमुख
सहपथ की निशानियों के
कारवाँ अब हैं सम्मुख
जीवन निशा की दहलीज पर
सान्निध्य तुम्हारा मेरा सहारा
पूनम की खामोश चांदनी
देगी तुम्हें सतत उजियारा
ऊषा की स्निग्ध लाली जैसे
भोर-विभोर मैं डूब गयी
अर्ध्य देती मतवाली जैसे
शान्त अमित आकाश हो तुम
मैं समा गयी विस्तार में तेरे
निढाल पडी पा आलिगन तेरा
बरस पडी मैं अंक में तेरे
ओत प्रोत मैं प्रीत में तेरी
हर अंग लगे है नया नवेला
भावों के भँवर का मंथन
नहीं सभलता अब यह रेला
दहकते गुलमोहर सा रक्तिम
हो जाए यह तन मन मेरा
तेरी आँखों का स्पर्श पाऊँ
या तेरी खुश्बू का घेरा
नि:शब्द बैठे हम दोनों
डूबते सूरज से आमुख
सहपथ की निशानियों के
कारवाँ अब हैं सम्मुख
जीवन निशा की दहलीज पर
सान्निध्य तुम्हारा मेरा सहारा
पूनम की खामोश चांदनी
देगी तुम्हें सतत उजियारा
मंगलवार, अप्रैल 17, 2007
साथ है पर फिर भी नहीं
करवटें बदलते अकेले तुम
जूझ रहे होगे तन्हाई से
पुरानी यादों से
आज के विरह से
चाह्ती हूँ कि सहारा दूँ तुम्हें
अपनी बाँहों का
अपने प्यार का
अपने विश्वास का
कुछ यादों के घेरों में
मेरा प्रवेश नहीं
वहाँ तुम हो
और तुम्हारी आह .
पर अकेले तुम नहीं
एक पीडा सबकी अपनी होती है
नितांत निज.
तुम्हारे पास तो
दो अमानत हैं और मैं
कुछ ऐसे भी हैं
जो घुलते हैं
अव्यक्त भावों में
कल के दर्द हैं
कल का आसरा नहीं
जूझ रहे होगे तन्हाई से
पुरानी यादों से
आज के विरह से
चाह्ती हूँ कि सहारा दूँ तुम्हें
अपनी बाँहों का
अपने प्यार का
अपने विश्वास का
कुछ यादों के घेरों में
मेरा प्रवेश नहीं
वहाँ तुम हो
और तुम्हारी आह .
पर अकेले तुम नहीं
एक पीडा सबकी अपनी होती है
नितांत निज.
तुम्हारे पास तो
दो अमानत हैं और मैं
कुछ ऐसे भी हैं
जो घुलते हैं
अव्यक्त भावों में
कल के दर्द हैं
कल का आसरा नहीं
बुधवार, अप्रैल 04, 2007
क्या कहेगा कोइ अपनी पहचान किससे है
पति,बच्चों,या अपने पेशे से है.
हर रूप पहचान है मेरी
बिना एक के दूसरा अधूरा है.
लोग कहते हैं वो ढूँढ रहे हैं खुद को
मैं हर बार टूट कर बनाती हूँ खुद को.
ज़िन्दगी सफर है मंज़िल नहीं
लोहूलुहान पैरों का मरहम यहीं पर है.
यह सुख नहीं कि अपनी झलक दिखे कहीं
यह दुख भी नहीं कि कोई अपना नहीं.
तनहाई थी तो बेइंतहा साथ भी है
खुद पर भरोसा है तो साथी का हाथ भी है.
वो भी सफर के रास्ते थे जो पीछे छूट गये
रास्ता यह भी मखमली नहीं
निश्चित है तो सिर्फ
हर मोड का विस्मय.
पति,बच्चों,या अपने पेशे से है.
हर रूप पहचान है मेरी
बिना एक के दूसरा अधूरा है.
लोग कहते हैं वो ढूँढ रहे हैं खुद को
मैं हर बार टूट कर बनाती हूँ खुद को.
ज़िन्दगी सफर है मंज़िल नहीं
लोहूलुहान पैरों का मरहम यहीं पर है.
यह सुख नहीं कि अपनी झलक दिखे कहीं
यह दुख भी नहीं कि कोई अपना नहीं.
तनहाई थी तो बेइंतहा साथ भी है
खुद पर भरोसा है तो साथी का हाथ भी है.
वो भी सफर के रास्ते थे जो पीछे छूट गये
रास्ता यह भी मखमली नहीं
निश्चित है तो सिर्फ
हर मोड का विस्मय.
मंगलवार, अप्रैल 03, 2007
भोर भ्रमण
गुरुवार, मार्च 15, 2007
खुमार
फूँक फूँक कर रख रहे थे कदम हम
हर कदम पर फ़िर यह तूफ़ान कैसा
कहते हैं वक़्त मिटा देता है ज़ख्म
हर ज़ख्म का अब तक यह निशान कैसा
बहुत संभाल कर रखा था दामन हमने
उसके हाथों में मेरा यह आंचल कैसा
बद रखा था पलकों को भींच कर हमने
फिर ख्वाबों का इनमें यह घुसपैठ कैसा
न पी है न पिलायी है कभी हमने
फिर छाया है अजब सा यह खुमार कैसा .
हर कदम पर फ़िर यह तूफ़ान कैसा
कहते हैं वक़्त मिटा देता है ज़ख्म
हर ज़ख्म का अब तक यह निशान कैसा
बहुत संभाल कर रखा था दामन हमने
उसके हाथों में मेरा यह आंचल कैसा
बद रखा था पलकों को भींच कर हमने
फिर ख्वाबों का इनमें यह घुसपैठ कैसा
न पी है न पिलायी है कभी हमने
फिर छाया है अजब सा यह खुमार कैसा .
सोमवार, मार्च 12, 2007
कृष्ण अर्जुन
मैंने गीता पूरी कभी नहीं पढी .मुझे संस्कृत का इतना ज्ञान नहीं है कि उसका आनन्द ले पाऊँ.जो भी जानती हूँ वह बचपन में माता पिता के मुख से. खासकर "कर्मणयाधिकरस्ते....... . परिणाम के विषय में ज़्यादा सोचने या चिन्ता करने पर पापा यही दुहराते. पर गुडगाँव के एक प्रशिक्षिण कार्यक्रम के दौरान वहाँ एक प्रवक्ता ने श्लोक सुनाया.उनके द्वारा बताया गया यह श्लोक और असकी व्याख्या मुझे आज तक याद है.
इसकी व्याख्या अनेकों तरह से हो सकती है.पर जो मुझे अच्छी लगी उसका सारांश यह है कि अर्जुन शारीरिक क्षमता के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण बुद्धि और नीति के.जहाँ बुद्धि और शारीरिक क्षमता एक्साथ होते हैं वहाँ ऐशवर्य, विजय अलौकिक शक्ति और नीति रहती है. श्रीकृष्ण के सार्थित्व करने का अर्थ है शरीर की क्षमता को बुद्धि द्वारा सही दिशा देना.सिर्फ बल ,धनुर्विद्या या पराक्रम से विजय नहीं मिल सकती. उसके लिये बुद्धि,ज्ञान, विवेक, नीति का होना आवश्यक है. उसी प्रकार बिना स्वस्थ शरीर के एवं बाहुबल के पूर्ण विजय मिलना मुश्किल है. यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं .
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर् धृवा नीतिर्मतिर्मम ॥ 18:78 ॥
इसकी व्याख्या अनेकों तरह से हो सकती है.पर जो मुझे अच्छी लगी उसका सारांश यह है कि अर्जुन शारीरिक क्षमता के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण बुद्धि और नीति के.जहाँ बुद्धि और शारीरिक क्षमता एक्साथ होते हैं वहाँ ऐशवर्य, विजय अलौकिक शक्ति और नीति रहती है. श्रीकृष्ण के सार्थित्व करने का अर्थ है शरीर की क्षमता को बुद्धि द्वारा सही दिशा देना.सिर्फ बल ,धनुर्विद्या या पराक्रम से विजय नहीं मिल सकती. उसके लिये बुद्धि,ज्ञान, विवेक, नीति का होना आवश्यक है. उसी प्रकार बिना स्वस्थ शरीर के एवं बाहुबल के पूर्ण विजय मिलना मुश्किल है. यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं .
शुक्रवार, मार्च 09, 2007
अंतर्जाल
कल मैने एक किताब पढनी शुरू की, अर्नेस्ट हेमिंगवे की "फॉर हूम द बेल टोलस'.स्पेन के गृह युद्ध की पृष्ठ भूमि पर आधारित उनकी सर्वोत्तम कृति मानी जाती है.उसके आलेख के रूप में एक ब्रिटिश कवि ,जॉन डॉन ,की पंक्तियां लिखी हुई हैं , जो शीर्षक का आधार है. मुझे यह पंक्तियां बहुत पसंद हैं .लगा कि एसी बहुत सी पंक्तियां जो मुझे बार बार याद आती हैं और बहुत ज़्यादा अच्छी लगती हैं .सोचा कि क्यों न अपने फलसफे पर यह फलसफा भी डाल दूँ. सोचती हूँ एक श्रृंखला का रूप दे दूँ उन पंक्तियों को जिन्हें मैं संजो कर रखना चाह्ती हूँ.बहुत ही भिन्न स्रोतों से पर यह ऐसी पंक्तियां जो मेरे दिमाग में घूमती रहती हैं. पहली कडी में "जॉन डॉन" का यह चिन्तन . मैं जब भी इन्हें पडती हूँ , एक कंपन सी होती है.
इनको पढकर मुझे इस बात का एहसास होता है कि इस विश्व का हिस्सा हूँ सूक्ष्म ,नगण्य ही सही .पर कहीं कुछ भी हो रहा है तो वह मेरे अस्तित्व को भी प्रभावित करता है. ऐसा भाव और कई कवियों और लेखकों द्वारा दर्शाया गया है,पर यह पंक्तियां मुझे अन्दर तक छू जाती हैं. खासतौर पर उसकी अंतिम पंक्ति.
send not to know
For whom the bell tolls,
It tolls for thee. "
इस विशाल संसार में कहीं कुछ विनाश हो रहा हो तो हमारा भी एक अंश ध्वंस हो जाता है. हम भी थोडे छोटे हो जाते हैं .बडी सामायिक भी लगती है यह कविता.क्या बुश को या दुनिया के आतंकवादियों को पता है कि कहीं भी हिंसा होती है तो वह उनका भी नाश करेगी.सिर्फ किसी समाज विशेष की परस्परधीनता ही नहीं बल्कि विश्व्यापी निर्भरता के उदगार हैं यह. समाज का हर नैतिक पतन हममें से हर एक को प्रभावित करता है . कोई भी हममें से पूर्णता पृथक नहीं रह सकता है. इसकी व्याख्या बहुत बारीकी से कोई बुद्धिजीवी कर सकता है.
"No man is an island,
Entireof itself.
Each is a piece of thecontinent,A part of the main.
If a clod be washed away by the
sea,
Europe is the less.
As well as if apromontory were.
As well as if
a manor of thine own
Or of thine friend's were.
Each man's death
diminishes me,
For I am involved in mankind.
Therefore, send not to
know
For whomthe bell tolls,
It tolls for thee. "
इनको पढकर मुझे इस बात का एहसास होता है कि इस विश्व का हिस्सा हूँ सूक्ष्म ,नगण्य ही सही .पर कहीं कुछ भी हो रहा है तो वह मेरे अस्तित्व को भी प्रभावित करता है. ऐसा भाव और कई कवियों और लेखकों द्वारा दर्शाया गया है,पर यह पंक्तियां मुझे अन्दर तक छू जाती हैं. खासतौर पर उसकी अंतिम पंक्ति.
send not to know
For whom the bell tolls,
It tolls for thee. "
इस विशाल संसार में कहीं कुछ विनाश हो रहा हो तो हमारा भी एक अंश ध्वंस हो जाता है. हम भी थोडे छोटे हो जाते हैं .बडी सामायिक भी लगती है यह कविता.क्या बुश को या दुनिया के आतंकवादियों को पता है कि कहीं भी हिंसा होती है तो वह उनका भी नाश करेगी.सिर्फ किसी समाज विशेष की परस्परधीनता ही नहीं बल्कि विश्व्यापी निर्भरता के उदगार हैं यह. समाज का हर नैतिक पतन हममें से हर एक को प्रभावित करता है . कोई भी हममें से पूर्णता पृथक नहीं रह सकता है. इसकी व्याख्या बहुत बारीकी से कोई बुद्धिजीवी कर सकता है.
मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007
टैग-ए-माला की कडी हूँ मैं
चिट्ठा जगत में चल रही पाँच प्रश्नों की लडी में राजीवजी ने मुझे भी पिरो दिया.वैसे देखा जाये तो मैं इस जगत के हाशिये पर ही रहती हूँ. दो कदम चलती हूँ और फ़िर दर्शक दीर्घा में बैठ जाती हूँ. जैसे मनीष का कहना है "आप तो रह रह कर आती हैं". पर मेरे चिट्ठा लिखना का मकसद अपने विचारों, संस्मरणों को एक डायरीनुमा रूप देना था. क्या होता है कि कितनी बातें हमारे मन में घूमती हैं,कितने लम्हों को आप चाहते हैं संजो कर रखना.कभी डायरी में लिखा था पर डायरी या कहें डायरियां खो गईं. इस तरह न जाने कितने लेख कितनी कविताएं अब गुमशुदा की श्रेणी में शामिल हो गईं हैं.बरहाल जो भी कारण हो , चिट्ठा लिखना मेरे लिये एक "सेफ डिपोसिट बाक्स " की तरह है. मेरे खयाल ,मेरे खयाली पुलाव, मेरे हाल , मेरी चाल सबका लेखा जोखा इस जगह सुरक्षित रहेगा. यह तो थी भूमिका मेरे चिट्ठे की,जो आगे राजीव के कुछ प्रश्नों के जवाब लिखने में मददगार साबित होगी.
मैं सोच रही हूँ कि कैसे लिखूँ. कितना पर्दा खोलना ठीक रहेगा. विभिन्न तरह के बुर्कों की तरह .पूरा बुर्का पहनी रहूँ ...बस चाल ढाल से पता चले कि कोई मोहतर्मा हैं.या फ़िर बुर्का पूरा ,पर थोडी हिम्मत करूँ और चेहरे का नकाब पीछे कर दूं. तीसरा तरीका है आजकल के फैशन का.पर्दा के नाम पर सिर्फ़ हिज़ाब पहन लूँ. एक और कशमश है .लिखने के स्टाइल को लेकर. वैसे तो मैं सीधे सादे तरीके से बात करना पसंद करती हूँ.इसलिये एक तरीका यह है कि चुपचाप सीधे सीधे जवाब लिखो ,संक्षिप्त और मतलब के.या फिर बेजी स्टाइल में...भावुक, पद्यमय.या फिर मिस इंडिया में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों की तरह....मेक अप किये हुए थोथे चने की तरह. पर मैंने निश्चय किया अपने व्यक्तित्व से मेल खाते जवाब दूंगी. टैग करने वाले के निवेदन का आदर मैं इसी तरहे से कर सकती हूँ.
आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र (फिल्म) कौन सी है?
मेरी एक कमज़ोरी है कि मैं पुस्तकें और फिल्में बहुत जल्द ही भूल जाती हूँ.पढती बहुत हूँ पर बहुत दिनों बाद कोई किसी पुस्तक के विषय में चर्चा करे तो मैं उसमें भाग लेने में असमर्थ रहती हूँ. एक पुस्तक याद है "To Kill A Mocking Bird". Harper lee के लिखने का तरीका, पुस्तक का विषय ,स्काउट और एटिकस फ़िंच का चरित्र चित्रण मुझे नहीं भूलते. स्काउट कहती है "Naw, Jem, I think there's just one kind of folks. Folks " . काश मैं अपने बच्चों को एटिकस फ़िंच की तरह का सुलझापन दे पाती.
एक और तरह की पुस्तकें मुझे पसंद हैं...किसी भी घटना का वैज्ञानिक आधार बताने वाले ग्रंथ. भौतिक विज्ञान की छात्रा रह चुकी हूँ.वह रास्ता कब का छूट गया परन्तु रूचि बरकरार है. इस समय मुझे याद आ रही है "The Tao of Physics ". विज्ञान और पूर्व की आध्यत्मिक मान्यताओं को जोडने और समझने का प्रयास जो मुझे अच्छा लगा. इनको लिखने के बाद लगा कि हिन्दी चिट्ठा है, कायदे से इसपर हिन्दी की पुस्तकों का नाम होना चहिये. पर सूची लम्बी है और ज्ञान पर किसी भाषा का एकाधिकार नहीं.
रही फिल्मों की बात ...तो उसमें तो मुझे काफी मशक्कत करनी पड रही है. मैं 'धूम-२' और 'फिर हेराफेरी' में सिनेमा हाल में ही सो गई, जिसको लेकर मेरी अच्छी टांग खिचाई होती है. बहुत पहले एक फ़िल्म देखी थी 'हिप हिप हुर्रे' ,जिसे दुबारा देखने की इच्छा अभी तक है. दूसरी इस समय याद नहीं आ रही है.
इन में से आप क्या अधिक पसन्द करते हैं पहले और दूसरे नम्बर पर चुनें - चिट्ठा लिखना, चिट्ठा पढ़ना, या टिप्पणी करना, या टिप्पणी पढ़ना (कोई विवरण, तर्क, कारण हो तो बेहतर)
चिट्ठा लिखना पसंद है. जैसे कि मैंने भूमिका में कहा मेरे लिये यह चिट्ठा डायरी का रूप है. मेरे आवारा बेघर ख्यालों का यह आशियाना है. इसलिये चाहे मैं कम लिखूं, पर जो लिखती हूँ वो ऐसा जिसे मैं संजो कर रखना चाहती हूँ
चिट्ठा पढना उसके बाद . विभिन्न विचारों से सामना होता है, कुछ सीखने को मिलता है ,अपने कूप से निकलने का माध्यम लगता है.
आपकी अपने चिट्ठे की और अन्य चिट्ठाकार की लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन-कौन सी हैं?(पसंदीदा चिट्ठाकार और सर्वाधिक पसंदीदा पोस्ट का लेखक भिन्न हो सकते हैं)
बहुत कम लिखा है .पर अपनी 'दो कप चाय' दिल के करीब है. मेरे पति और दोस्त अमित को समर्पित. अन्य चिट्ठाकारों की बहुत सी पोस्टें पसंद हैं . पर मैं अनूप भार्गव के मुक्तक ज़रूर पढती हूँ.उनका सादगी भरा लहज़ा पसंद है .अनूपजी, कहीं यह सूरज को रोशनी दिखाने जैसा तो नहीं है?
आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
हर तरह के....हास्य व्यंग ,यात्रा वृतांत, समसामायिक विषयों पर .जो नहीं अच्छे लगते वह जो बहुत रूढिवादी या संकीर्ण विचारों वाले.
आपके मनपसन्द चिट्ठाकार कौन है और क्यों?(कोई नाम न समझ मे आए तो हमारा ले सकते हैं ;) पर कारण सहित)
आपका नाम तो है ही राजीव . आपकी रचनाएं पढने को मिलती रहें यह मेरी कामना है. मुझे अच्छे लगते हैं मनीष के यात्रा संस्मरण और संगीत प्रेम, प्रत्यक्षा की नज़ाकत और भाव पेश करना का तरीका ,समीरलाजी की टीका टिप्पणी, रवि रतलामी के देसीटून्स....और अन्य कितने ही. साँस फूल गयी और फेहरिस्त समाप्त नहीं हो रही है. जो रूचिकर दिख जाये वही अच्छा है.
यही आशा है कि यह हिन्दी चिट्ठाकारी का मंच ऐसे ही विविधताओं से सुसज्जित रहे .नये कलाकार आएं ,पुराने, मंजे हुए कलाकार हम जैसों की हौसलाआफज़ाई करें और जो इस मंच पर नहीं आना चाहते वो तालियां बजाते रहें
मैं सोच रही हूँ कि कैसे लिखूँ. कितना पर्दा खोलना ठीक रहेगा. विभिन्न तरह के बुर्कों की तरह .पूरा बुर्का पहनी रहूँ ...बस चाल ढाल से पता चले कि कोई मोहतर्मा हैं.या फ़िर बुर्का पूरा ,पर थोडी हिम्मत करूँ और चेहरे का नकाब पीछे कर दूं. तीसरा तरीका है आजकल के फैशन का.पर्दा के नाम पर सिर्फ़ हिज़ाब पहन लूँ. एक और कशमश है .लिखने के स्टाइल को लेकर. वैसे तो मैं सीधे सादे तरीके से बात करना पसंद करती हूँ.इसलिये एक तरीका यह है कि चुपचाप सीधे सीधे जवाब लिखो ,संक्षिप्त और मतलब के.या फिर बेजी स्टाइल में...भावुक, पद्यमय.या फिर मिस इंडिया में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों की तरह....मेक अप किये हुए थोथे चने की तरह. पर मैंने निश्चय किया अपने व्यक्तित्व से मेल खाते जवाब दूंगी. टैग करने वाले के निवेदन का आदर मैं इसी तरहे से कर सकती हूँ.
आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र (फिल्म) कौन सी है?
मेरी एक कमज़ोरी है कि मैं पुस्तकें और फिल्में बहुत जल्द ही भूल जाती हूँ.पढती बहुत हूँ पर बहुत दिनों बाद कोई किसी पुस्तक के विषय में चर्चा करे तो मैं उसमें भाग लेने में असमर्थ रहती हूँ. एक पुस्तक याद है "To Kill A Mocking Bird". Harper lee के लिखने का तरीका, पुस्तक का विषय ,स्काउट और एटिकस फ़िंच का चरित्र चित्रण मुझे नहीं भूलते. स्काउट कहती है "Naw, Jem, I think there's just one kind of folks. Folks " . काश मैं अपने बच्चों को एटिकस फ़िंच की तरह का सुलझापन दे पाती.
एक और तरह की पुस्तकें मुझे पसंद हैं...किसी भी घटना का वैज्ञानिक आधार बताने वाले ग्रंथ. भौतिक विज्ञान की छात्रा रह चुकी हूँ.वह रास्ता कब का छूट गया परन्तु रूचि बरकरार है. इस समय मुझे याद आ रही है "The Tao of Physics ". विज्ञान और पूर्व की आध्यत्मिक मान्यताओं को जोडने और समझने का प्रयास जो मुझे अच्छा लगा. इनको लिखने के बाद लगा कि हिन्दी चिट्ठा है, कायदे से इसपर हिन्दी की पुस्तकों का नाम होना चहिये. पर सूची लम्बी है और ज्ञान पर किसी भाषा का एकाधिकार नहीं.
रही फिल्मों की बात ...तो उसमें तो मुझे काफी मशक्कत करनी पड रही है. मैं 'धूम-२' और 'फिर हेराफेरी' में सिनेमा हाल में ही सो गई, जिसको लेकर मेरी अच्छी टांग खिचाई होती है. बहुत पहले एक फ़िल्म देखी थी 'हिप हिप हुर्रे' ,जिसे दुबारा देखने की इच्छा अभी तक है. दूसरी इस समय याद नहीं आ रही है.
इन में से आप क्या अधिक पसन्द करते हैं पहले और दूसरे नम्बर पर चुनें - चिट्ठा लिखना, चिट्ठा पढ़ना, या टिप्पणी करना, या टिप्पणी पढ़ना (कोई विवरण, तर्क, कारण हो तो बेहतर)
चिट्ठा लिखना पसंद है. जैसे कि मैंने भूमिका में कहा मेरे लिये यह चिट्ठा डायरी का रूप है. मेरे आवारा बेघर ख्यालों का यह आशियाना है. इसलिये चाहे मैं कम लिखूं, पर जो लिखती हूँ वो ऐसा जिसे मैं संजो कर रखना चाहती हूँ
चिट्ठा पढना उसके बाद . विभिन्न विचारों से सामना होता है, कुछ सीखने को मिलता है ,अपने कूप से निकलने का माध्यम लगता है.
आपकी अपने चिट्ठे की और अन्य चिट्ठाकार की लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन-कौन सी हैं?(पसंदीदा चिट्ठाकार और सर्वाधिक पसंदीदा पोस्ट का लेखक भिन्न हो सकते हैं)
बहुत कम लिखा है .पर अपनी 'दो कप चाय' दिल के करीब है. मेरे पति और दोस्त अमित को समर्पित. अन्य चिट्ठाकारों की बहुत सी पोस्टें पसंद हैं . पर मैं अनूप भार्गव के मुक्तक ज़रूर पढती हूँ.उनका सादगी भरा लहज़ा पसंद है .अनूपजी, कहीं यह सूरज को रोशनी दिखाने जैसा तो नहीं है?
आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
हर तरह के....हास्य व्यंग ,यात्रा वृतांत, समसामायिक विषयों पर .जो नहीं अच्छे लगते वह जो बहुत रूढिवादी या संकीर्ण विचारों वाले.
आपके मनपसन्द चिट्ठाकार कौन है और क्यों?(कोई नाम न समझ मे आए तो हमारा ले सकते हैं ;) पर कारण सहित)
आपका नाम तो है ही राजीव . आपकी रचनाएं पढने को मिलती रहें यह मेरी कामना है. मुझे अच्छे लगते हैं मनीष के यात्रा संस्मरण और संगीत प्रेम, प्रत्यक्षा की नज़ाकत और भाव पेश करना का तरीका ,समीरलाजी की टीका टिप्पणी, रवि रतलामी के देसीटून्स....और अन्य कितने ही. साँस फूल गयी और फेहरिस्त समाप्त नहीं हो रही है. जो रूचिकर दिख जाये वही अच्छा है.
यही आशा है कि यह हिन्दी चिट्ठाकारी का मंच ऐसे ही विविधताओं से सुसज्जित रहे .नये कलाकार आएं ,पुराने, मंजे हुए कलाकार हम जैसों की हौसलाआफज़ाई करें और जो इस मंच पर नहीं आना चाहते वो तालियां बजाते रहें
शनिवार, फ़रवरी 24, 2007
हम भी चले लेख लिखन
कल एक सुखद आश्चर्य हुआ .अनूप शुक्लाजी से बातचीत हुई. मोबाइल बजा तो देखा कानपुर का नम्बर है.चूंकि मैं कोइ दो साल कानपुर में भी रह चुकी हूं तो लगा किसी पुराने परिचित ने याद किया.देखिये हमारी भी सोच...एक सीमित दायरे से बाहर ही नहीं निकलती.लगे दिमागी घोडे दौड्ने कि कौन हो सकता है.अपने जानने वालों की सूची स्कैन करी तो कानपुर में ऐसा कोई नहीं मिला जो मुझे फोन करे. खैर फोन उठाया और फोन करने वाले का परिचय सुना तो एकबारगी विश्वास नहीं हुआ.
कहना न होगा कि अनूपजी से बात करना न सिर्फ बहुत अच्छा लगा बल्कि उपयोगी भी.यह चिट्ठा उसी का परिणाम है.उनको हमारे कविताएं लिखने पर आपत्ति है.हमारे ही नहीं सारे कवियों के.कहते हैं आजकल नारदजी को कुछ ज़्यादा कविताएं सुनाई जा रही हैं.जिसको देखो वही कवि का जामा पहन लेता है.आखिर हमलोग कब तक झेलते रहेंगे आप सबको.कुछ गद्य लिखिये, कुछ लेख-वेख हो जाये . कविता का क्या है.समझने वाले तुरन्त समझ जाते हैं और न समझ्ने वाले पाँच बार पडकर भी ... जीतेन्द्रजी की तरह और भी लोग हैं जो कविता को देखकर घबरा जाते हैं .
नारदजी कुछ कहें और हम न सुनें,ऐसे तो हालात नहीं.नदी में रहकर मगर से बैर कैसा.सो ठान लिया कि अब कुछ लेख लिखे जाएं.पर अनूपजी जो बात आपसे कही थी वह तो अभी भी सच है.समयाभाव .कविता का क्या है.कुछ दिल ने मह्सूस किया,बच्चों का टिफिन पैक करते कुछ पंक्तियां भी पैक हो गईं , आफिस पहुँचे ,दो कामों के बीच टाइप किया,और तीसरा कोइ काम करते करते पोस्ट कर दिया. बाकी का काम नारद्जी के जिम्मे .जिसको पढना पढे, और जिसको नहीं पढना वो आगे बढ जाये,पर एक नज़र डालने के बाद! लेख का क्या किया जाए.टिफिन जल्दी पैक हो जाता है और तब तक लेख की आत्मा तक पास नहीं फटकती.अब सोचा है कि कुछ रास्ता तो निकालना होगा . तो अब अभियान -गद्य चालू हो गया है. नाश्ता बनाते, आफिस का काम करते ,बच्चों का होमवर्क कराते....बस यहीं तक सीमित रखते हैं ,गद्य की भाव-भंगिमा के बारे में सोचना . किस समय पर प्रस्तुति की रचना हुई है यह आप उसकी खुशबु से समझ जाइयेगा. मिज़ाज में थोडी सख्त ,तो जानिये बच्चों को पढा रहे थे, कुछ मसालेदार्,चटपटी तो रसोई में, अनमनी सी,बेजान तो आज हो गई खटपट घर में और कोमल , नाज़ुक सी तो दिखाई दिया है इंद्रधनुष.
गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007
वक़्त को रोक लिया है मैंने
कौन कहता ह कि
वक़्त रुकता नहीं.
कौन कहता है
वक़्त वापस नहीं आता.
पलकों में छिपाये सपनों में
यादों की कोमल सिहरन में
एकांत की अनमनी मुस्कान में
कुछ पुरानी तस्वीरों के धुधलके में
वक़्त को रोक लिया है मैंने.
चेहरे की हर झुर्री में
सफेद बालों की चमक में
चरमराती हुई हड्डियों में
ढलते शरीर की शिथिलता में
वक़्त को कैद किया है मैंने.
किताब क बीच सूखे गुलाब में
स्कूल की 'स्लैम बुक' में
बचपन के पालने में
पुरानी 'अड्रेस डायरी' मे
छुपा लिया है वक़्त मैंने.
और इन सबसे रूबरू हो
बुला लेती हूँ
वापस
वक़्त को मैं.
वक़्त रुकता नहीं.
कौन कहता है
वक़्त वापस नहीं आता.
पलकों में छिपाये सपनों में
यादों की कोमल सिहरन में
एकांत की अनमनी मुस्कान में
कुछ पुरानी तस्वीरों के धुधलके में
वक़्त को रोक लिया है मैंने.
चेहरे की हर झुर्री में
सफेद बालों की चमक में
चरमराती हुई हड्डियों में
ढलते शरीर की शिथिलता में
वक़्त को कैद किया है मैंने.
किताब क बीच सूखे गुलाब में
स्कूल की 'स्लैम बुक' में
बचपन के पालने में
पुरानी 'अड्रेस डायरी' मे
छुपा लिया है वक़्त मैंने.
और इन सबसे रूबरू हो
बुला लेती हूँ
वापस
वक़्त को मैं.
शनिवार, फ़रवरी 17, 2007
दो कप चाय

मैँ सवेरे दो कप चय बनाती हूँ
और हर रोज़ तुम्हें नींद से उठाती हूं
जानती हूं तुम्हारा अभी जागने का मन नहीं
तुम कुनमुनाओगे, पेट के बल लेटोगे
और हर रोज़ तुम्हें नींद से उठाती हूं
जानती हूं तुम्हारा अभी जागने का मन नहीं
तुम कुनमुनाओगे, पेट के बल लेटोगे
पर फोन उठाओगे ज़रूर.
तुम "गुड मार्निंग" कहोगे
और मेरी चाय में चीनी घुल जायेगी.
और दूसरी चाय
और दूसरी चाय
मुझे नहीं पसंद यह 'टिवनिंग्स" की
लेमन टी
पर तुम वहाँ उठोगे कैसे
बिना चाय पिये
मेरी 'ढाबे वाली' चाय
मेरी 'ढाबे वाली' चाय
पर तुम हँसते थे
और अदरक डालने पर झिडकते.
मैंने भी ज़िद में
तुम्हारी चाय नहीं पी कभी.
पर अब तुम्हें सवेरे जगाना तो है ही.
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